- अर्चना वर्मा
न केवल हमारे बल्कि किसी भी समाज में आरक्षण की व्यवस्थाओँ और प्रावधानों के कारगर होने का पैमाना केवल यही हो सकता है कि वे अपने समाज में उत्तरोत्तर अप्रासंगिक और अनावश्यक होती चली जायें। सामाजिक समुदायों मेँ कोई ऐसा दुर्बल, असहाय और असमर्थ न रहे जिसे आरक्षण की ज़रूरत हो। अगर ऐसा हुआ होता तो हमारे पास सामाजिक न्याय के यथोचित बँटवारे के लिये आरक्षण की आवश्यकता और औचित्य का प्रमाण भी हुआ होता लेकिन क्या ऐसा होना संभव है? क्या ऐसा होना कभी भी संभव था?
भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान करते हुए बाबा साहब अम्बेडकर ने पूरा विश्वास किया होगा कि ऐसा संभव है। यहाँ तक कि उन्होंने उसकी एक अवधि भी निर्धारित कर दी थी। उनके लिये आरक्षण का अर्थ सामाजिक अन्याय का इलाज रहा होगा। लेकिन आज सत्तर साल बाद अगर पीछे मुड़ कर देखें तो स्वयं वे ही लाइलाज किस्म के आशावादी प्रतीत होते हैँ।
सामाजिक न्याय को समझने के लिये अपने अपने सन्दर्भ मेँ सामाजिक अन्याय को परिभाषित करना ज़रूरी है क्योंकि हर समाज में उसकी परिभाषा अलग होती है। जैसे हमारे समाज में अन्त्यज कही जाने वाली किसी जाति और जन्म से निर्धारित होने वाला सामाजिक अन्याय, जो प्रकृति में अमरीकी और यूरोपीय समाज में रंगभेद से निर्धारित होने वाले सामाजिक अन्याय से थोड़ा ही अलग है। ‘’थोड़ा ही अलग’’ इस अर्थ में कि हमारे दलित समाज की जातीय पहचान वैसी अपरिहार्य नहीं जैसी त्वचा के रंग के कारण अमरीकी समाज में अश्वेत नागरिक की होती है। व्यवसाय, शिक्षा-दीक्षा, रहन-सहन, आदि के आधार पर दलित समाज में उसे पुनःपरिभाषित किया जा सकता है।
जन्म और जाति के आधार पर आरक्षण के अधिकार को परिभाषित करने के पीछे हमारे संविधान के निर्माताओं की मंशा उस ‘’अकारण’’ सामाजिक अन्याय के प्रतिकार की थी जो किसी जाति विशेष में जन्म की दुर्घटना या संयोग के कारण न्यूनतम मानवाधिकारों का भागी भी नहीं बनने देता। जब यह प्रावधान किया गया था तब अन्याय के इस सामाजिक आधार का मुकाबला किन्हीं अन्य जातियों के पिछ़ड़ेपन या आर्थिक आधार से नहीं किया जा सकता रहा होगा ।
फिर सन 1979 में जनता दल की सरकार आई। ‘’बैकवर्ड कास्ट्स’’ के आरक्षण पर विचार के लिये मण्डल कमीशन आया। ‘’पिछड़ी जातियाँ‘’ कहने की बजाय मै जानबूझ कर ‘’बैकवर्ड’’ का प्रयोग कर रही हूँ क्योंकि “पिछड़ी” में सामाजिक अन्याय की ध्वनि है। जिस प्रकार के सामाजिक अन्याय के परिणामस्वरूप किसी जाति में जन्म के परिणामस्वरूप दुर्बलता, असहायता, असमर्थता, घृणा और तिरस्कार उत्तराधिकार में प्राप्त होता है, इन जातियों का पिछ़ड़ापन वैसे किसी अन्याय का परिणाम नहीं है। उनका पिछड़ापन प्रतिगामी प्राथमिकताओं वाली जीवन-पद्धति का फल है जिसे अपनी इच्छाशक्ति और चयन के द्वारा बदला भी जा सकता है, बशर्ते वे चाहें तो ! लेकिन तब तक आज़ादी के पिछले तीस सालों में सरकारी नौकरियों में आरक्षण के परिणामस्वरूप अनुसूचित जातियोँ और अनुसूचित जनजातियों के बीच एक पढ़ा-लिखा अपेक्षाकृत सम्पन्न और मुखर तबका नज़र आने लगा रहा होगा और दूसरों को वहाँ पहुँचने के लिये आरक्षण एक आसान रास्ता दिखाई दिया होगा। लेकिन मण्डल कमीशन को आगे चलकर आरक्षण के जरिये वोटबैंक की जातिवादी सामाजिक अभियांत्रिकी का सूत्रपात बनना था।
दो साल बाद 1981 में मण्डल कमीशन की रिपोर्ट आई। तब तक मोरारजी देसाई की सरकार गिर चुकी थी। फिर वापस इन्दिरा गाँधी की सरकार आई। फिर राजीव गाँधी की सरकार आई। इतने साल वह रिपोर्ट ठण्डे बस्ते में पड़ी रही।
1990 में 7 अगस्त को वी.पी. सिंह ने मण्डल कमीशन की रिपोर्ट को स्वीकृति की घोषणा के साथ संसद में पेश किया था। यहाँ से सामाजिक न्याय के अखाड़े मेँ “बैकवर्ड कास्ट्स” का प्रवेश होता है।
बी.पी. मण्डल ने स्वयं अपनी रिपोर्ट में “बैकवर्ड कास्ट्स” में अब तक की अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को भी शामिल करते हुए माना था कि ये “बैकवर्ड कास्ट्स” ग्रामीण प्रदेशोँ में अनुसूचित जातियों का दमन, उत्पीड़न और शोषण करने वाले समुदाय हैँ। फिर भी उन्होंने दोनो कोटियों को एक साथ ग्रथित करते हुए शायद इस उम्मीद से देश की आबादी के 54% को पिछड़ा समुदाय के अन्तर्गत रखा था कि “बैकवर्ड कास्ट्स” अपना वैर और वर्चस्व भाव भुला कर अनुसूचितों को बराबरी का दर्जा देंगीं। या कौन जाने सिर्फ संख्याबल के लाभ का लोभ रहा हो। किसी भी दशा में इसे उसी किस्म का लाइलाज आशावाद कहा जा सकता है जैसा बाबासाहब अम्बेडकर ने संविधान मेँ सामाजिक अन्याय के प्रतिकार मेँ आरक्षण का प्रावधान करते हुए अपने मन में पोसा था। 1990 मेँ जब मण्डल रिपोर्ट की कार्यान्विति की सूचना ने समूचे उत्तर भारत में एक राजनीतिक तूफान खड़ा किया था तब की बहसों में बैकवर्ड और अनुसूचित के बीच मौजूद इस दमन, उत्पीड़न और शोषण के रिश्ते का कोई संज्ञान नहीं था और अक्सर बैकवर्डों की पक्षधरता के लिये अनुसूचितों के प्रति घृणित सामाजिक व्यवहारों की नज़ीरें पेश की जाती थी मानो बैकवर्ड भी वैसे ही अन्यायों का शिकार हों, बिना इस अहसास के कि अधिकांशतः बैकवर्ड ही खुद इस कारोबार में मुब्तिला हैं। दोनो समुदाय तब भी अलग थे, वे आज भी एक नहीं हैँ।
लेकिन निस्संदेह जैसी भी रही हो यह शुरुआत, किसी न किसी स्तर की आत्मसजगता और अस्मिता बोध की ओर ले ही गयी है। कुछ न कुछ तो बदला ही है। बिहार में जीतन माँझी ने अपनी अल्पकालीन ताजपोशी के छूटने के बाद एक इण्टरव्यू में कुछ इस आशय की बात कही थी कि वे चुप रहने की वजह से यहाँ तक पहुँचने के लिये राजनीति में बचे रहे और शायद गूँगे आज्ञाकारी अनुगामी समझे जाने की वजह से इस जगह को भरने के लिये चुने गये।
क्या इस बात से सन्तोष किया जा सकता है कि बहुत छोटा सा, बिल्कुल नामालूम सा, फ़र्क है लेकिन आया तो है। जिस भी वजह से, जितनी भी देर के लिये, उनके जीवन मेँ इस मौके की नौबत आई तो ! नितीश ने उनको चुना तो सही। या फिर इसे तथाकथित सामाजिक न्याय की असलियत का उद्घाटन और उस फासले का प्रमाण मान कर रफ़ा-दफ़ा किया जाय जो सामाजिक न्याय के मौलिक भागीदारों और बैकवर्डों के बीच आज आज भी मौजूद है। क्या जस-का-तस? शायद। शायद नहीं। कहा नहीं जा सकता। सामाजिक अन्याय के कर्ता-धर्ता ही जब सामाजिक न्याय के दावे और आरक्षण की माँग में हिस्सेदार बन कर खड़े हों तो क्या कहा जा सकता है, ‘ केसव कहि न जाय का कहिये’ के सिवाय?
रास्ते जहाँ तक ले जाने के लिये बनाये जाते हैं, अन्ततः वहाँ पहुँचाते भी हैँ या नहीं, इस सवाल का जवाब तब तक नहीं मिलता जब तक लगातार-लगातार चलते चले जाने के बावजूद गन्तव्य का अता-पता न मिलने का अहसास न होने लगे।
गन्तव्य दर अस्ल है क्या? एक सचमुच के समतामूलक समाज की रचना या फिर दबंगसुलभ हिंसा और रक्तपात के जरिये अपनी अपनी जात और जमात के लिये आरक्षण हड़प लेने का पुरुषार्थ? 1990 मेँ जब मण्डल-कमीशन का ह़ड़कम्प मचा था तब अक्सर यह ख़याल आता था कि बाबा साहब ने सामाजिक अन्याय के अपने उस प्रावधान की यह परिणति क्या कभी सोची होगी? और अभी पिछले कुछ समय में आरक्षण पर पाटीदार, जाट, गुज्जर के दावों और आन्दोलनों को देखते हुए यह ख़याल आता रहा है कि बी.पी. मण्डल ने अपनी रिपोर्ट के प्रावधानों का ऐसा परिणाम क्या कभी कल्पित किया था?
बात दरअस्ल केवल आरक्षण की है भी नहीं। वी.पी.सिंह ने जब वह रिपोर्ट संसद मेँ पेश की थी तो भानमती का पिटारा खोल दिया था जिसमें से क्या क्या निकल पड़ने वाला है, किसी ने भी इसकी कल्पना नहीं की थी। वह सामाजिक विखण्डन का शर्तिया नुस्खा था।
सामाजिक अन्याय द्वारा परिभाषित अन्त्यज जातियों के लिये प्रतिकार का प्रावधान निश्चित किया जा सकता था क्योंकि जातियों की गिनती भी निश्चित और निर्धारित की जा सकती थी। सामाजिक न्याय पर दावेदारी से परिभाषित जातियों की संख्या न सीमित की जा सकती है और न ही निश्चित या निर्धारित। वह दबंगई से अपना दावा मनवा लेने का मामला बन जाता है और कुछ के लिये आरक्षण का प्रावधान बाकी बहुत के मन में अपने वंचित रह जाने का क्षोभ और सामाजिक अन्याय का शिकार होने का आक्रोश जगाता है। जिसको मिल जाता है वह दूसरों को घुसने नहीं देना चाहता, जिसको अभी तक नहीं मिला है वह अपने लिये रास्ता खोलने के सारे रास्ते अपनाने को वैध मानता है। और किसी की भी माँग का औचित्य किसी दूसरे की माँग से कम उचित नहीं।
यहाँ तक आने के लिये इस रास्ते से भी गुजरना ज़रूरी था। लेकिन अब इसके आगे यह रास्ता कहीं ले नहीं जाता, आमने सामने का मैदान बन जाता है। चाहे जब तक मारो काटो करते हुए डटे खड़े रहो। यहाँ से एक दूसरी यात्रा, एक नये रास्ते की तलाश ज़रूरी हो जाती है। यहाँ तक कि अब तो सामाजिक अन्याय के प्रतिकार से परिभाषित जिस आरक्षण को सर्वथा न्यायोचित माना जा सकता है वह भी एक अवरोध की दशा तक पहुँच कर दलदल बन गया है। फिर फिर लौट लौट कर वही वही परिवार और वही वही समुदाय आरक्षण का लाभ उठाते और अपने ही समुदाय के शेष सदस्यों के प्रति सामाजिक अन्याय में भागीदार बनते हैं। दूसरों के लिये रास्ता न छोड़ने का औचित्य बाते हुए कहते हैँ कि क्रीमी लेयर हटाने का मतलब यह होगा कि सारी जगहें भरने लायक भी योग्य अभ्यर्थी नहीं मिलेंगे। यह पूछने का मौका अभी नहीं आया है क्या कि आजादी के सत्तर साल बाद भी यह नौबत क्यों नहीं आई है कि पर्याप्त संख्या में योग्य अभ्यर्थी मिलते हों ?
आरक्षण की ज़रूरत बेशक अभी बाकी है लेकिन प्रावधानों पर पुनर्विचार का वक्त आ गया है।
लेखिका वरिष्ठ आलोचक हैं|
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