लोकसभा चुनावों के दौरान बिहार पर पूरे देश की नजर रहा करती है। इस बार कन्हैया और गिरिराज सिंह के कारण मीडिया की नजरें अभी से चौकन्नी हो गयी हैं। आखिर बेगूसराय का क्या होगा? यह सभी की दिलचस्पी का सबब बना हुआ है। बेगूसराय अभी पूरे बिहार के चुनाव का केन्द्र बना हुआ है। इस लोकसभा के माध्यम से हम बिहार में राजनीतिक दलों की आपसी खींचतान, सामाजिक समीकरण एवं सियासी दिशा का कुछ संकेत पा सकते हैं। सोचने-समझने के पुराने फ्रेम अप्रासंगिक हो रहे हैं। हर दिन कुछ नये घटनाक्रम सामने आ जाते हैं।
कन्हैया कुमार को सी.पी.आई द्वारा उम्मीदवार बनाया जाना, उनका महागठबन्धन का प्रत्याशी न बन पाना, एन.डी.ए के उन्मादी व बड़बोले चेहरे गिरिराज सिंह द्वारा चुनाव लड़ने से आनाकानी करना ये सभी बिहार की राजनीति को समझने में भी सहायता करते हैं। बिहार के दोनों गठबंधन जदयू- भाजपा के नेतृत्व वाला एन.डी.ए. गठबंधन और राजद के नेतृत्व वाला महागठबंधन दोनों आन्तरिक संकट से जूझ रहे हैं। इन दोनों गठबन्धनों में कुछ भी सामान्य नहीं है। दोनों गठबन्धन अन्दरूनी मतभेदों से त्रस्त व तबाह हैं।
बिहार के चुनावों में ‘जाति’ सबसे निर्णायक कारक मानने वालों के लिए इस बार का चुनाव थोड़ी परेशानी का सबब पैदा कर रहा है। कुछ हलकों में कन्हैया को उसकी जाति ‘भूमिहार’ साबित कर बेगूसराय को समझने की कोशिश की जा रही है। पहचान की राजनीति पर जोर देने वाली पार्टी राजद और उसके समर्थकों द्वारा यह बात बार-बार दुहरायी जा रही है। बेगूसराय पर वामपन्थियों के दबदबे को चुनाती दी जा रही है और इसके लिए पिछले चुनावों में उसके तीसरे स्थान पर चले जाने को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
कन्हैया जिस विधानसभा क्षेत्र व से आता है वहाँ से कम्युनिस्ट पार्टी की 1962 से 2010 यानी 48 वर्षों तक लगातार जीत होती रही है। लगभग आधी सदी तक बहुत कम विधानसभा क्षेत्र रहे होंगे जहाँ से कोई पार्टी इतने लम्बे समय तक जीतती रही हो। इसका पुराना नाम बरौनी जबकि नया नाम तेघड़ा विधानसभा क्षेत्र हैं। कन्हैया के गाँव बीहट से ही सुप्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता चन्द्रशेखर सिंह पहले व्यक्ति थे जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पहले विधायक बने। जब वे 1956 में चुनाव में खड़े हुए तो कम्युनिस्टों को रोकने के लिए बूथ लूटे गए। बूथ कब्जे की यह शुरूआत थी। 1967 के पहले गैरसंविद सरकार में वे मन्त्री भी बने। चन्द्रशेखर सिंह और इन्द्रदीप सिंह उस सरकार में कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से मन्त्री थे। भूराजस्व मन्त्रालय इन्हीं लोगों के हाथो में था। गरीबों को भूमि का पर्चा दिलाने तथा भूमि सम्बन्धों में बदलाव की दिशा में ली गयी पहलकदमियों ने बिहार में किसानों, खेतिहरों के आन्दोलन के नये चरण का सूत्रपात किया। कम्युनिस्ट मन्त्रियों ने बिहार में टाटा की जमींदारी को समाप्त करने का निर्णय लिया। टाटा के तत्कालीन सर्वेसर्वा जे.आर.टी टाटा जब इन्द्रदीप सिंह से मिलने आये तो उन्हें लकड़ी के बेंच पर इन्तजार करना पड़ा। उस सरकार को बी.पी.मण्डल के नेतृत्व में जल्द ही गिरा दिया गया। बी.पी मण्डल ने अपने मात्र 47 दिन के कार्यकाल में टाटा की जमींदारी को फिर से बहाल करने का प्रयास किया।
1970 से चले भूमि आन्दोलन को नया आवेग मिला और कम्युनिस्ट बिहार विधानसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी ताकत बन चुके थे। और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कम्युनिस्ट बिहार की सत्ता में आ सकते हैं। इन सबका केंद्र था बेगूसराय। इसलिए कम्युनिस्टों की बढ़ती राजनीतिक ताकत को तोड़ने के लिए सामन्तों की निजी सेना का गठन कामदेव सिंह के नेतृत्व में किया गया जिसे कॉंग्रेस आलाकमान का भी समर्थन व सहयोग प्राप्त था। कुख्यात तस्कर कामदेव सिंह ने बेगूसराय में बड़े पैमाने पर कम्युनिस्टों का कत्लेआम कराया। अगले एक दशक तक बेगूसराय की कम्युनिस्ट पार्टी कामदेव सिंह से संघर्ष में मुब्तिला रही जब तक कि 1980 में वह पुलिस की गोलियों का शिकार न हुआ। उसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी बेगूसराय की अधिकांश विधानसभा व लोकसभा में जीतती रही। उसकी जीत का सिलसिला, एकाध अपवादों को छोड़कर, 1996 तक जारी रहा। 1989, 1991 व 1996 में वामपन्थी सांसद यहाँ से चुने जाते रहे।
2004 व 2009 में वह बेगूसराय से दूसरे स्थान पर रही है। पूरे हिन्दी इलाके में कम्युनिस्ट पार्टियाँ अपनी स्वतन्त्र ताकत की बदौलत यदि कहीं जीतने की स्थिति में रहती है तो वह बेगूसराय रही है। यदि कम्युनिस्ट पार्टियों के राष्ट्रीय स्तर के पदों को देखें तो वे कई बेगूसराय से हैं। मसलन प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव बेगूसराय के क्रमशः राजेंद्र राजन और मुरली मनोहर प्रसाद सिंह है। विश्वविद्यालय और महाविद्यालय कर्मचारियों के अखिल भारतीय संगठन ;ए.आई.एफ.यू.टी.ओ. जैसे महत्वपूर्ण पद को देखें तो वह भी बेगूराय के अरूण कुमार के खाते में जाता है। सोवियत संघ के सहयोग से बना कारखाना बरौनी रिफाइनरी के कारण इसे बिहार के चुनिंदा आद्यौगिक इलाकों में माना जाता है।
इन्हीं वजहों से इसे बिहार का लेनिनग्राड कहा जाता है। आखिर पूरे हिन्दी क्षेत्र में बेगूसराय को लेनिनग्राड क्यों कहा जाता है? एक बड़ी वजह जिसकी ओर समाजशास्त्रियों व राजनीति विज्ञानियों की नजर कम गयी है वो है वर्ग संघर्ष का एक अलहदा मॉडल। हिन्दी क्षेत्र में कम्युनिस्टों पर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि उनका वर्ग संघर्ष एकांगी रहा है यानी सिर्फ वो आर्थिक शोषण पर तो लड़ता रहा है परन्तु सामाजिक उत्पीड़न, जाति के सवाल को नजरअन्दाज करता रहा है। लेकिन बेगूसराय का अनुभव थोड़ा भिन्न किस्म का रहा है। यहाँ दो मुद्दे लड़ाई के केन्द्र में रहे हैं। पहला ‘मांग मनसेरी’ औ दूसरा ‘चिरागदानी’। पहली मांग आर्थिक किस्म की है यानी एक मन (40 किलो) में एक सेर (5 किलो) की मजदूरी मिलनी चाहिए और दूसरी सामाजिक किस्म की यानी चिरागदानी यानी पिछड़ी दलित जातियों के लोगों की नवविवाहिता महिलाओं को पहले सामंतों के घर पहली रात बिताने की जालिमाना प्रथा के विरूद्ध संघर्ष। कहा भी जाता है कि बेगूसराय में वर्ग संघर्ष दो टांगों यानी सामाजिक उतपीईड़न और आर्थिक शोषण के खिलाफ संघर्षरत रहा है। इन्हीं वजहों से यहाँ वामपन्थ का आधार बेहद मजबूत रहा है। और ‘जाति’ को ही केन्द्रीय तत्त्व मानने वालों को उतनी सफलता नहीं मिल पायी साथ ही यहां ‘वर्ग’ की लड़ाई ने जातीय आयामों को भी अपने में शामिल कर लिया। इन्हीं वजहों से जातीय विभाजन बाकी जिलों की तुलना में उतने स्पष्ट नहीं हैं। ‘जाति’ का आधार बनाकर विश्लेषण करने वालों को यहाँ हमेशा परेशानी होती है।
जाति व धर्म के फ्रेम से देखने वालों के लिए यह चुनाव निराशाजनक परिणाम ला सकता है। जाति को ठहरी, रूढ़, अपरिवर्तनीय ईकाई मानने वालों को धक्का लगेगा। यह चुनाव के एक नये आख्यान, नये नैरेटिव पर लड़ा जा रहा है। वैसे भी जब कोई बड़ा आख्यान आता है वह दूसरे छोटे-छोटे आख्यानों को समाहित कर लेता है। इस बार जाति प्रधान नहीं गौण पहलू बनकर रह जाएगा। कन्हैया कुमार को लगभग हर जाति, समुदाय व हिस्सों से मिल रहा समर्थन इसी बात की ओर संकेत करता है।
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