
स्वास्थ्य के क्षेत्र में क्या करे सरकार
- अमूल्य निधि
पिछले महीने मध्यप्रदेश में पन्द्रह साल बाद नई सरकार का गठन हुआ है और जाहिर है, उसके सामने तरह-तरह के जनहित के मुद्दे खडे़ हुए हैं। इनमें आम लोगों को प्रभावित करने वाला स्वास्थ्य का मुद्दा सबसे अहम है।
पिछले कुछ सालों से देश में, विशेषकर मध्यप्रदेश जैसे कुछ राज्यों में जहाँ एक ओर विकास परियोजनाओं के नाम पर जल, जंगल, जमीन और संसाधनों को कार्पोरेट के हाथों में सौंपा जाने लगा है, वहीं दूसरी ओर स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी मूलभूत सेवाओं को भी निजी हाथों में सौंपकर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हुआ जा रहा है। आम लोगों को निजीकरण की जन-विरोधी नीतियां और कार्यक्रम कितने नापसंद हैं इसकी तस्दीक हाल के मध्यप्रदेश समेत चार राज्यों के चुनाव परिणामों ने भी की है। अब नई सरकारों के समक्ष चुनौतियां हैं कि वे अपने-अपने घोषणा-पत्रों में दिए गए वचनों को क्रियान्वित करें और अब तक जनता जिन मुद्दों का विरोध करती आ रही है उन पर चर्चा कर ठोस वैकल्पिक नीति और कार्यक्रम बनाकर लागू करें।
मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य क्षेत्र की बात करें तो पिछले पांच सालों में ‘स्वास्थ्य सूचकांक’ की स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं हो पाया है। ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे- 4’ के अनुसार प्रदेश में संस्थागत प्रसव का आंकड़ा तो 80.8 प्रतिशत तक पहुँच गया है, परन्तु अभी भी शिशु मृत्यु दर 51 है और पांच वर्ष में गुजर जाने वाले बच्चों का आंकड़ा 65 है। आज भी प्रदेश की 15 से 49 वर्ष की 52.5 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया यानी (खून की कमी) से ग्रस्त हैं। ‘नीति आयोग’ के अनुसार मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में मातृ मृत्यु दर 173 है।
मध्यप्रदेश में डाक्टरों की कमी एक बड़ी समस्या है। प्रदेश के 254 सरकारी अस्पतालों में सर्जन तो हैं, परन्तु एनेस्थीसिया (निश्चेतना) विशेषज्ञ नहीं हैं, विशेषज्ञ डाक्टरों के कुल 3195 पद स्वीकृत हैं, लेकिन इनमें से केवल 1063 पदों पर नियुक्तियां हुई हैं। प्रसूति रोग, शिशु रोग, एनेस्थीसिया विशेषज्ञ के 1386 पद स्वीकृत हैं, परन्तु महज 419 पदों पर डाक्टर कार्यरत हैं।
वर्ष 2015 में मध्यप्रदेश शासन ने 27 जिला अस्पतालों को निजी कंपनी को सौंपने की तैयारी कर ली थी। इसके तहत आलीराजपुर जिला अस्पताल और जोबट सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र को गुजरात के ‘दीपक फाउंडेशन’ को हस्तांतरित करने का अनुबंध और नियमों की अनदेखी कर सरकारी पैसा देने का निर्णय किया गया था। राज्य में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रहे संगठन ‘जन स्वास्थ्य अभियान’ (जेएसए) ने इसकी जांच करवाने के लिए हाईकोर्ट में याचिका भी दायर की थी।
सरकार ने कुछ वर्ष पूर्व ‘दीनदयाल स्वास्थ्य गारंटी योजना’ चालू कर सरकारी दवाएं व जांच मुफ्त करवाने की घोषणा की थी, परन्तु अधिकांश जिलों में खून, ब्लड-शुगर, अल्ट्रा-साउंड जैसी मूलभूत जांचे उपलब्ध नहीं हैं। अनेक ‘सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों’ पर तो सोनोग्राफी मशीन तक उपलब्ध नहीं है। मई 2018 में बड़वानी जिले में ‘जेएसए’ के एक अध्ययन से पता चला था कि एमआरआई, सीटी स्कैन व अन्य मंहगी जांचें जिन्हें निजी संस्थानों को आउटसोर्स किया गया था, उनका विस्तृत विवरण तक स्वास्थ्य विभाग के पास उपलब्ध नहीं था। इंदौर के सबसे बड़े सरकारी चिकित्सालय ‘महाराजा यशवंतराव अस्पताल’ में निजी अस्पतालों से भी बेहतर सीटी स्कैन और एमआरआई जाँच की सुविधा मिल रही है, लेकिन उन्हें अनदेखा कर निजी क्लीनिकों, अस्पतालों की कमाई के लिए उन्हें आउटसोर्स किया गया था। पीपीपी मॉडल के अंतर्गत शुरू किए गए डायग्नोस्टिक सेंटर को बाजार भाव से 40 फीसदी अधिक तक फीस लेने की छूट दी गयी थी, पर इन सेंटरों पर ना तो कोई रेट लिस्ट लगायी गई है और ना ही कम पैसों में सुविधायें उपलब्ध करवाई जा रही हैं। मध्यप्रदेश के अधिकांश अस्पतालों में कम गुणवत्ता वाली दवाएं बिना गुणवत्ता देखे आवंटित कर दी गयी थी जिनकी जाँच आवश्यक है।
हाईकोर्ट द्वारा गठित समिति ने व्यवसायिक स्वास्थ्य, मुख्य रूप से सिलिकोसिस पर अपनी जांच रिपोर्ट मध्यप्रदेश सरकार को वर्ष 2017 में सौंप दी थी। इस रिपोर्ट में हाईकोर्ट को गलत जानकारी देने तथा सिलिकोसिस पीड़ितों को मुआवजा व पुनर्वास की सुविधाएँ उपलब्ध ना करवाने की पुष्टि की गयी थी, लेकिन उस पर अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई है। आज की परिस्थितियों में व्यावसायिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक समग्र नीति बनाने की आवश्यकता है जिसमें स्वास्थ्य समस्याओं को पहचानने के साथ ही सम्पूर्ण पुनर्वास, मुआवजा, इलाज आदि का समावेश हो। मध्यप्रदेश सरकार ने 2012 में अनैतिक क्लिनिकल ट्रायल में लिप्त डाक्टरों की विभागीय जाँच की थी, परन्तु अभी तक उन डॉक्टरों पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है। मातृ मृत्यु-दर व शिशु मृत्यु की ‘डेथ ऑडिट’ बंद कर दी गयी है। ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन’ के अंतर्गत ‘स्वास्थ्य योजना’ पिछले 13 सालों से बन नहीं पाई है।
ऐसे में जरूरी है कि जन-स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के सभी रूपों को रोका जाये और विभिन्न प्रकार की ‘सरकारी-निजी साझेदारियां’ (पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप), जो सार्वजनिक प्रणाली को कमजोर कर रही हैं, को खारिज किया जाये। जो सार्वजनिक संसाधन निजी संस्थानों को मजबूत करने में लगे हैं, उनका उपयोग सार्वजनिक सेवाओं को बढ़ाने और स्थायी रूप से सार्वजनिक पूंजी का निर्माण करने के लिए किया जाए। राज्य की नई सरकार को चाहिए कि वह व्यवसायिक स्वास्थ्य और सुरक्षा पर व्यापक नीति निर्माण कर उस पर अमल करे एवं असंगठित एवं कृषि क्षेत्रों में कार्यरत कर्मियों के लिए ‘कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम (ईएसआई)-1948’ को विस्तारित और सशक्त करे।
कमजोर वर्गों और विशेष जरूरतों वाले समूहों की कमजोरी का कारण सामाजिक स्थिति (जैसे महिलाएं, दलित, आदिवासी), स्वास्थ्य स्थिति (जैसे एच.आई.वी. से पीड़ित), पेशा (मैला ढोने वाले),अक्षमता,उम्र या अन्य हो सकते हैं। जरूरी है कि सभी महिलाओं, बेघरों, सड़कों पर भटकने वाले बच्चों, विशेषकर कमजोर आदिवासी समूहों, शरणार्थियों, प्रवासी लोगों तथा ट्रांसजेंडरों की स्वास्थ्य सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति की गारंटी दी जाये। जाति और समुदाय, धर्म आधारित भेदभाव के सभी रूपों का स्वास्थ्य सेवाओं से शीघ्र उन्मूलन किया जाये।
राज्य के नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाने में लगे स्वास्थ्य विभाग के सभी कर्मचारियों, आशा, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता एवं सहायिका जैसे ठेके (कांट्रेक्ट) पर कार्यरत सभी कर्मचारियों को नियमित किया जाए और उन्हें श्रम कानूनों से संरक्षण प्राप्त हो। पर्याप्त संख्या में स्थायी पदों का सृजन कर सुप्रशासित और पर्याप्त जन स्वास्थ्य कर्मियों का बल स्थापित किया जाये। सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के सभी स्तरों को पर्याप्त कौशल प्रशिक्षण, समुचित वेतन और कार्यस्थल में समुचित परिस्थितियाँ उपलब्ध हों तब ही मध्यप्रदेश की बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारा जा सकेगा। (सप्रेस)
लेखक स्वास्थ्य अधिकार मंच से जुड़े हैं तथा जनस्वास्थ्य अभियान के राष्ट्रीय कार्यदल के सदस्य हैं।
सम्पर्क- +919425311547, mulyabhai@gmail.com
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