वाल्टर हाउजर की पहली पुण्यतिथि (1 जून) के अवसर पर
- अनीश अंकुर
आज एक जून है। बिहार से गहरा लगाव रखने वाले सुप्रसिद्ध अमेरिकी इतिहासकार वाल्टर हाउज़र की आज पहली पुण्यतिथि है। बिहार के प्रति वाल्टर हाउजर का विशेष अनुराग था। पचास के दशक से ही उन्होंने बिहार पर शोध करना आरम्भ कर दिया था। प्रख्यात स्वाधीनता सेनानी व किसान नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती को केन्द्र में रखकर वाल्टर हाउजर ने लगभग 6 दशकों तक काम किया। उन्होंने किसानों को अपने इतिहास लेखन का केन्द्र तब बनाया जब अकादमिक जगत में इसका प्रचलन तक नहीं था। उन्होंने उस वक्त बिहार में काम किया जब अकादमिक जगत में इसे ‘वाइल्ड वेस्ट’ की संज्ञा दी जाती थी। यानी ‘कानपुर लाइन’ के बाद उधर काम करना खतरनाक माना जाता था। ऐसे में बिहार आकर इतने लम्बे समय तक वाल्टर हाउजर का काम करना कोई सामान्य बात न थी। वाल्टर ने अपने कई छात्रों को भी बिहार पर शोध के लिए प्रेरित किया।
पी.एच.डी थीसिस की दिलचस्प कहानी
वाल्टर हाउजर के अनथक प्रयासों के परिणामस्वरूप स्वामी सहजानन्द सरस्वती को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली। स्वामी सहजानन्द पर वाल्टर ने 1957 से ही शोध करना शुरू किया था। अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय से उन्होंने ’बिहार प्रांतीय किसान सभा’ पर अपना पी.एच.डी, 1961 में प्राप्त किया। यह पी.एच.डी स्वामी सहजानन्द व किसान आन्दोलन पर काम करने वालों के लिए संदर्भ बिंदू (रेफरेंस प्वाइंट) बन चुका था। इस थीसिस की एक प्रति पटना के ए.एन सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान तथा दूसरी प्रति नेहरू म्युजियम लाइब्रेरी में वे छोड़ गये थे।
वाल्टर हाउजर की जब इस पी.एच.डी थीसिस के कुछ वर्षों बाद दुनिया के स्तर पर वियतनाम युद्ध होता है। भारत में 1967 में कम्युनिस्ट पार्टी के बंगाल और बिहार में संविद सरकार सत्ता का हिस्सा बनने के बाद भूमि संघर्षें की बाढ़ आ जाती है, नक्सलवादी आन्दोलन प्रारम्भ हो जाता है। इन सबसे किसान, इतिहास अध्ययन के केन्द्र में आ जाते हैं। साथ ही केन्द्र में आते हैं तीस व चालीस के दशक के प्रख्यात किसान नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती।
इसके बाद अकादमिक जगत में लोगों का ध्यान वाल्टर के काम पर जाता है। उनके पी.एच.डी थीसिस की प्रतियाँ फोटो स्टेट चोरी छुपे बांटी जाने लगी। कई लोगों ने तो इसी के आधार पर पूरी किताब लिखी लेकिन वो पी.एच.डी थीसिस नहीं प्रकाशित हो पायी थी। कहीं-कहीं उसका दुरूपयोग भी शुरू हो गया। जैसे चंद्रभूषण ने वाल्टर हाउजर के नाम से ‘सहजानन्द से चारू तक’ पुस्तक बगैर वाल्टर हाउजर की सहमति के प्रकाशित करवा दिया।
60 वर्ष पूर्व छपी इस थीसिस का पुस्तकाकार प्रकाशन 2019 के मार्च में सम्भव हो पाया। इस पुस्तक का लोकार्पण बड़े धूमधाम से पटना में आयोजित किया गया। पटना का अकादमिक जगत, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्तागण, संस्कृतिकर्मी सभी इस खास मौके पर इकट्ठा थे। वाल्टर हाउजर खुद तो वृद्धावस्था के कारण न आ सके लेकिन उनकी पुत्री शीला हाउजर अमेरिका से आयीं और इस विशेष मौके पर उपस्थित थीं। खुद शीला हाउजर का जन्म भारत में ही हुआ था।
आखिर पी.एच.डी के प्रकाशन में इतना विलम्ब क्यों हुआ?
आखिर वाल्टर हाउजर की जिस थीसस ने अरविन्द नारायण दास सरीखे कई स्कॉलरों को प्रेरित किया खुद उसके प्रकाशन में इतना विलम्ब क्यों हुआ? वाल्टर हाउजर के छात्र एवं वेस्लेयन विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर विलियम पिंच ने इसकी दिलचस्प वजह बतायी ‘‘वाल्टर हाउजर, जैसा कि, उन्होंने 2004 में बताया था कि वे पहले यूरोपीय इतिहास पढ़ना चाहते थे लेकिन 1954 में रेडफील्ड – सिंगर की जोड़ी द्वारा ‘विलेज इंडिया’ (ग्रामीण भारत) विषय पर आयोजित सेमिनार ने बिहार आने में निर्णायक भूमिका निभायी। यहाँ आकर जब वे बिहटा स्थित सीताराम आश्रम में आए तो स्वामी सहजानन्द सरस्वती से सम्बन्धित दस्तावेजों को देखने पर उनके सामने एक पूरा नया परिदृश्य खुलता चला गया जिसमें बदलाव, शहरी केन्द्रों में नहीं बल्कि ग्रामीण अंचलों में होता दिख रहा था।’’
विलियम पिंच ने यह भी जोड़ा ‘‘एडवर्ड सईद की परिपे्रक्ष्य में बदलाव लाने वाली प्रख्यात पुस्तक ‘ओरियेंटलिज्म’ ने ‘जाति’ व ‘धर्म’ को अपरिर्वतनीय श्रेणियों के बतौर देखने की ओर इशारा किया था। यानी हिंदूइज्म भारत को, यदि हेगलीय या र्माक्सवादी अर्थ में कहें तो, इतिहास की मुख्य धारा में प्रवेश करने से रोक रही है। 1980 के मध्य से मुझे ऐसा लगने लगा कि स्वामी सहजानन्द सरस्वती (उनके सन्यासी जीवन की गतिशीलता ने) के व्यक्तित्व ने ऐसी पुरानी धारणाओं व मान्यताओं को हमेशा के लिए चुनौती पेश कर दी है।’’
हाउजर ने ‘जाति’ व ‘धर्म’ आधारित औपनिवेशिक श्रेणियों के बजाय ‘किसान’ को बतौर श्रेणी इस्तेमाल किया। उनका काम ये भी बताता है कि भारतीय समाज को आधुनिक की परियोजना को आगे बढ़ाने वाली निर्णायक लड़ाई, महाराष्ट्र और बंगाल में नहीं बल्कि बिहार में लड़ी जा रही थी और उसके केन्द्रक थे स्वामी सहजानन्द। वालटर हाउजर ने ये भी महसूस किया कि यह समाज के अन्दर से उभरने वाली, भारत को आधुनिक बनाने वाली शक्ति है। इन्हीं वजहों से उन्होंने स्वामी सहजानन्द सरस्वती, कार्यानन्द शर्मा, यदुनंदन शर्मा, सरीखे लोगों को भारत को आधुनिक बनाने वाले नेताओं के रूप में देखा।
वाल्टर हाउज़र 1962 में वर्जीनिया विश्वविद्यालय में बतौर अध्यापक नियुक्त हुए। स्वामी सहजानन्द सरस्वती व किसान आन्दोलन पर उनकी अन्य कृतियों में प्रमुख है “सहजानन्द ऑन एग्रीकल्चर लेबरर एंड द रूरल पुअर’’ “सहजानन्द एंड द पीजेंट्स ऑफ झारखण्ड: अ व्यू फ्रॉम 1941’’ “कल्चर, वर्नाकुलर पॉलिटिक्स एंड द पीजेंट्स, इंडिया 1889-1950”। इसके अलावा उनके आत्मकथात्मक संस्मरणों की पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद “माई लाइफ स्ट्रगल” के नाम से किया गया।
“कल्चर, वर्नाकुलर पॉलिटिक्स एंड द पीजेंट्स- इंडिया 1889-1950” स्वामी सहजानन्द सरस्वती के व्यक्तित्व को समझने के लिए प्रमुख कृति हैं। वैसे तो इस अकादमिक संस्करण में स्वामी जी के आत्मकथात्मक संस्मरणों की किताब “मेरा जीवन संघर्ष” का अंग्रेजी अनुवाद है लेकिन जो चीज इस पुस्तक को बेहद खास बनाती है वो हर चैप्टर के बाद वालटर हाउजर द्वारा अपने लम्बे शोध से निकली अंर्तदृष्टि संपन्न टिप्पणियाँ। ये संस्करण स्वामी सहजानन्द के छह दशकों के अध्ययन का निचोड़ भी कहा जा सकता है। इस अकादमिक संस्करण को पढ़ने से स्वामी सहजानन्द की आत्मकथा में निहित कई नये आयाम उद्घाटित होते हैं। इस कार्य में वाल्टर हाउजर की मदद की उनके अनन्य सहयोगी कैलाश चंद्र झा ने।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (प्रथम राष्ट्पति) और डॉ. श्रीकृष्ण सिंह (प्रथम मुख्यमन्त्री) से मुलाकात
50 व 60 के दशक के महत्वपूर्ण शक्सियतों जैसे भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद, बिहार के प्रथम मुख्यमन्त्री श्रीकृष्ण सिंह, जयप्रकाश नारायण, बिहार के मुख्यमन्त्री कृष्णबल्लभ सहाय, बिहार के मुख्यमन्त्री कर्पूरी ठाकुर, चर्चित किसान नेता यदुनंदन शर्मा, का साक्षात्कार भी लिया था। भारत के प्रथम राष्ट्रपति से स्वामी सहजानन्द सरस्वती सम्बन्धी बातचीत को वाल्ट हाउजर ने कुछ यूँ व्यक्त किया है ‘‘मैं फुलब्राइट फेलो था। भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद का साक्षात्कार करना आवश्यक था। मेरे शोध के लिए वह अत्यन्त महत्वपूर्ण थे। इस संदर्भ में मैंने उनको चिट्ठी लिखी। उत्तर नकारात्मक आया कि राष्ट्रपति इंटरव्यू नहीं देते।
कांग्रेस, स्वतंत्रता आन्दोलन, किसान सभा और स्वामी सहजानन्द के संदर्भ में राजेन्द्र प्रसाद की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका थी। मैंने कुछ दिनों बाद पत्र लिखा कि ‘फुलब्राइट स्कॉलर’ होने के नाते मैं राष्ट्रपति महोदय से मिलकर अपना सम्मान प्रकट करना चाहता हूँ। राष्ट्रपति भवन से पत्र आया अमुक दिन आ जाएँ और दस मिनट की मुलाकात का समय दिया गया।’’
वाल्टर हाउजर आगे बताते हैं ‘‘ मैं पहुँचा, कलम-कागज कुछ भी ले जाना वर्जित था। राष्ट्रपति आए, मैंने अपना परिचय दिया और जैसे ही स्वामी सहजानन्द सरस्व्ती पर बात होने लगी, उन्होंने अपना चप्पल हटाया, टोपी सोफा पर उतार कर रख दिया और पांव सोफा पर रखकर पालथी मारने की स्थिति में बैठ गये और उन दिनों की बातों में खो से गये। स्वामी जी के प्रति अत्यन्त ही आदर की भावना से सब कुछ बताते रहे। दस मिनट की जगह एक घंटा पंद्रह मिनट राजेन्द्र बाबू ने समय दिया। उनके सचिव बार-बार आकर समय का ध्यान कराते पर वे हाथ के इशारा से उन्हें हटने को कह देते। मैं व्याकुल था क्योंकि कुछ भी नोट नहीं कर सका था। जल्द वापस अपने निवास पर लौटा और नोट्स लिए। ’’
ऐसे ही, वाल्टर हाउजर, ने बिहार के प्रथम मुख्यमन्त्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह से भेंट के सम्बन्ध में बताया ‘‘मुख्यमन्त्री श्रीकृष्ण सिंह से जब मिला तो वे पूर्णरूप से साक्षात्कार के लिए तैयार थे। किसान सभा से जुड़े अधिकांश फाइलों को स्टेट सेंट्रल रिकार्ड्स आफिस से मंगाकर पढ़ चुके थे। स्वामी सहजानन्द सरस्वती के प्रति उनके अन्दर भी बेहद सम्मान का भाव था। बाद में यह कन्फर्म भी हुआ कि किसान सभा से सम्बन्धित चार बक्से फाइलें सेंट्रल रिकार्ड्स आफिस से उनके पास गये थे। श्री बाबू काफी पढ़ते थे।’’
क्या आप सी.आई.ए के एजेंट हैं?
वाल्टर हाउजर कम्युनिस्ट नेता गंगाधर अधिकार से स्वामी सहजानन्द सरस्वती के बारे में बात करने गये। वाल्टर बताते हैं ‘‘मैं चर्चित कम्युनिस्ट नेता गंगाधर अधिकारी के साथ साक्षात्कार के लिए दिल्ली के सप्रू हाउस गया। पहला प्रश्न उन्होंने किया ‘प्रो. हाउजर मैं कैसे जानूंगा की कि आप सी.आई.ए के एजेंट नहीं हैं?’ वाल्टर का जवाब था ‘‘आप कभी नहीं जान पायेंगे। आपको मेरी बातों पर यकीन करना होगा।’’ उसके बाद वाल्टर हाउजर की गंगाधर अधिकारी की घंटों बात हुई।
एक बार भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के वयोवृद्ध नेता गणेश शंकर विद्यार्थी से मैंने पूछा कि वाल्टर हाउजर की बिहार के लगभग सभी प्रमुख कम्युनिस्ट नेताओं से भेंट हुई। आप तो स्वामी सहजानन्द सरस्वती के साथ काम कर चुके थे आपसे उनका इतना गहरा लगाव भी था। क्या आपकी उनसे मुलाकात हुई ? गणेश शंकर विद्यार्थी ने बताया ‘‘उनसे मिलने से कतराता था। उनसे डर भी लगता था। उनको लेकर बहुत अफवाह था कि वे सी.आई.ए के लिए काम करते हैं।’’
गणेश शंकर विद्यार्थी आगे बताते हैं ‘‘ शीत युद्ध के दौर में ऐसा पार्टी क भीतर के कुछ कॉमरेडों के साथ भी हुआ था। पटना के ही एक पार्टी के कॉमरेड थे अपनी कमिटी में की बात को लेकर मतभेद था। उनको सी.आई.ए एजेंट घोषित कर पार्टी से निष्काषित कर दिया गया। बात आई-गई हो गयी। कुछ सालों बाद जब मैं बंगाल गया तो वहाँ पार्टी दफ्तर में उस कॉमरेड की तस्वीर शहीदों की कतार में टंगी थी। बहुत अफसोस हुआ। कुछ ऐसी गलतियाँ पार्टी के अन्दर भी हुई हैं।’’
बिहार की चुनावी राजनीति पर भी वाल्टर हाउज़र ने काम किया। स्वामी सहजानन्द के प्रभाव को अस्सी और नब्बे के दशक के चुनावों पर आकलन करने का प्रयास किया। आचार्य हरि वल्लभ शास्त्री जिन्होंने ‘हुंकार’ में स्वामी जी के साथ काम किया था, ने लिखा है ‘‘अमेरिका के वालटर हाउजर ने कुछ-कुछ उनको पहचानने का प्रयास किया है।’’
दस्तावेज अमेरिका क्यों ले जाए गये ?
पिछले वर्ष सीताराम आश्रम, बिहटा की दस्तावेजी महत्व की दुर्लभ सामग्रियों को, अमेरिका से वापस सुरक्षित लौटा लाया गया। इन सामग्रियों को लेकर अकादमिक जगत में काफी बहस-मुबाहिसा हुआ था कि वाल्टर हाउजर स्वामी सहजानन्द और किसान सभा से जुड़े दस्तावेजों को अमेरिका लेकर कैसे चले गये? वाल्टर हाउजर के खिलाफ अभियान चला, उन्हें सी.आई.ए का एजेंट तक की उपाधि दी गयी। यहाँ तक की संसद भवन में एल.पी.शाही ने सवाल उठाया। आखिर वाल्टर हाउजर इन दस्तावेजों को क्यों ले गये? इस सम्बन्ध में बकौल वालटर हाउजर ‘‘जब भी मैं बिहटा आश्रम जाता था तो वहाँ दस्तावेजों के रख-रखाव में बदइंतजामी देखी।
हर यात्रा में, दस्तावेज कम होते जाते। अखबारों को बेचा जाने लगा था। न तो आश्रम के लोगों में और न ही संस्थागत स्तर पर, उस वक्त, उन महत्वपूर्ण सामग्रियों के रखरखाव की व्यवस्था थी। मैंने कई लोगों से इस बाबत बातें भी की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। लोगों को लगता था कि स्वामी जी तो एकदम हाल की चीज हैं उनका इतिहास क्या लिखा जाएगा?’’
अपने शुरूआती वर्षों में वालटर हाउजर ने खुद को पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में कांग्रेसी के.के.दत्त व वामपंथी रामशरण शर्मा के बीच की लड़ाई से दूर रखा। किसी के पक्ष में भी जाने पर दूसरा समूह उन्हें संदेह की निगाह से देखने लगता था।
अपने छात्रों को बिहार पर काम करने को प्रेरित किया
हाउज़र ने वर्जीनिया विश्वविद्यालय के दक्षिण एशिया सम्बन्धी अध्ययन विभाग को सशक्त बनाकर उसे विस्तृत किया। इसी सिलसिले में उन्होंने अपने कई विद्यार्थियों को बिहार पर शोध करने के लिए प्रेरित किया। जिनमें प्रो आनंद याँग, स्वर्गीय जिम हेगन, फिलिप मैकलडॉ.नी, रूथ गैब्रियल, प्रो विलियम आर पिंच, प्रो क्रिस्टोफर हिल एवं प्रो वेन्डी सिंगर प्रमुख हैं। क्रिस्टोफर हिल का बिहार के कोशी नदी पर बेहद महत्वपूर्ण काम है।
वहीं जिम हेगन और आनंद याँग ने दुर्लभ ‘ विलेज नोट्स’ की खोज की। विलियम ने साधुओं , विशेषकर नागा साधुओं पर उल्लेखनीय काम किया। किसान संघर्षों की मौखिक परम्परा पर काम करने वाली वेंडी सिंगर आन्दोलन से इस कदर प्रभावित थी कि उसने एक साक्षात्कार में कहा कि मैंने अपने बच्चे को किसान आन्दोलन के गीतों को सुनाते हुए पाला-पोसा है।
ब्रिटिश सरकार ने ‘विलेज नोट्स’ तैयार कराया था जिसमें प्रत्येक गाँव के बारे में एक मोटा-मोटी जानकारी उपलब्ध रहा करती थी। जेम्स हेगन ने कुमार सुरेश सिंह के साथ मिलकर सीताराम आश्रम, बिहटा की सामग्रियों का, 1974 में नेहरू म्युजियम लाइब्रेरी ले जाकर उसका माइक्रोफिल्मिंग कराया और कर दस्तावेजीकरण करने में सहयोग किया।
अमेरिका में भारत का पक्ष मजबूती से रखा
अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी वाल्टर हाउज़र ने हमेशा भारत के पक्ष को मजबूती के साथ रखा। 1971 में बंग्लादेश युद्ध के दौरान भारत के पक्ष में अमेरिकन कांग्रेस में लॉबिंग तक की और अमेरिकन रेडियो में भारत के दृष्टिकोण से बात रखते रहे। इसके अलावा वर्जीनिया विश्वविद्यालय में भारत के नामचीन विद्वानों इरफान हबीब, रोमिला थापर, अतहर अली, पॉल ब्रास, आशीष नंदी के व्याख्यान कराए।
वाल्टर हाउजर और कैलाश चंद्र झा
बिहार में मधुबनी जिले के रहने वाले कैलाश चंद्र झा वाल्टर हाउजर के शोध कार्यों में अनन्य सहयोगी रहे। वाल्टर हाउजर के साथ के साथ लगभग साढ़े चार दशकों तक काम कर चुके कैलाश झा बताते हैं ‘‘हमलोग किसान आन्दोलन के कागजातों की खोज में साथ-साथ हम खूब घूमे। बड़हिया स्टेशन पर अखबार बिछाकर सोना, मुंगेर डाकबंग्ला की छत पर दरी पर सोना। कपिलदेव सिंह से मुलाकात, पंचानन शर्मा (बड़हिया टाल आन्दोलन में किसान सभा के नेता) के यहाँ नियमित जाना, बड़हिया के जमींदारों से मुलाकात और उनका पक्ष भी जानना।’’
कैलाशचंद्र झा उन यात्राओं के सम्बन्ध में आगे बताते हैं ‘‘पहली सवारी हमारी हाथी पर यहीं हुई। टाल में पानी था और हाथी से ही वहाँ जाया जा सकता था। हमलोग एकबार पंचानन शर्मा के साथ टाल के गांवों में पैदल गये। करीब इक्कीस किलोमीटर पैदल चले। यह सब मेरे लिए शिक्षा थी कि काम के प्रति कैसा कमिटमेंट रखना चाहिए। लक्खीसराय स्टेशन के बाहर नींबू की चाय उन्हें बहुत पसन्द था। चार से पाँच गिलास एक बार में पीते थे। हमलोग एक बार लक्खीसराय के इंस्पेक्शन बंगला में रूके थे। चितरंजन आश्रम में जिस ताबूत में कार्यानन्द शर्मा का शव मास्को से आया था वह आश्रम में ही रखा हुआ था।
भोगेन्द्र झा, त्रिवेणी शर्मा ‘सुधाकर’ जैसे लोगों से पटना के अजय भवन में मिलना, एक यादगार की तरह है। वाल्टर हमेशा टेप और नोट बुक रखते थे। टेप चलाने से पहले साक्षात्कार करने वाले से पूछ लिया करते थे कि ‘‘टेप करूं या नहीं’’? कैलाषचंद्र झा आगे यह भी जोड़ते हैं ‘‘1985 में मैं जब पहली बार अमेरिका गया तो वाल्टर हाउजर के आलीशान मकान, रहन-सहन के ऐश्वर्य से भरे स्तर को देखकर दंग रह गया। इतनी सुविधा से रहने वाला व्यक्ति अखबार पर सोने से लेकर, लक्खीसराय के ‘पंजाबी होटल’ में सिर्फ चने की सब्जी के साथ रोटी खाकर रह सकता है। ये उनका कमिटमेंट था। ’’
हिन्दुस्तान में रहने के दौरान वाल्टर हाउजर एक अनजान सी बीमारी के शिकार हो गये। उन्हें आनन-फानन में अमेरिका ले जाया गया। कई सालों के लम्बे इलाज के बाद ही वे स्वस्थ हो पाए। कैलाश चंद्र झा बताते हैं ‘‘ये वालटर के शोध व अकादमिक कैरियर सबसे बहुमूल्य वर्ष थे । बीमारी से उबरने में उन्हें कई साल लग गया। तीन-चार वर्षों के बाद ही वे दुबारा काम करने के लायक हो सके।’’
ये कैलाश चंद्र झा ही थे जिन्होंने वाल्टर हाउजर को इस बात के लिए तैयार किया कि स्वामी सहजानन्द सरस्वती से जुड़े दस्तावेजों को ‘सीताराम आश्रम, बिहटा’ को लौटा दिया जाए। इसी दरम्यान सीताराम आश्रम ट्रस्ट के सचिव डॉ. सत्यजीत सिंह बन चुके थे। इससे एक अनुकूल माहौल भी बन चुका था। इस संयोग के परिणामस्वरूप सारे दस्तावेज अब अमेरिका से भारत आ चुके हैं।
उत्पीड़ितों के प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धता थी उनमें
वाल्टर हाउजर को श्रद्धांजलि स्वरूप लिखी अपनी टिप्पणी में उनकी छात्र रहीं वेंडी सिंगर बताती हैं ‘‘वाल्टर हाउजर ने किसानों को इतिहास के विश्लेषण का आधार इसलिए नहीं बनाया कि उसका सैद्धांतिक प्रचलन था बल्कि ऐसा उन्होंने शोषण- उत्पीड़न झेल रहे किसानों के प्रति अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण किया। उन्हें लगता था कि प्रताड़ना झेल रहे लोगों को अपनी नियति का नियंता बनने वाला कारक खुद बनना चाहिए। स्वामी सहजानन्द सरस्वती, कार्यानन्द शर्मा, यदुनंदन शर्मा, पंचानन शर्मा सरीखे योद्धा जिन्होने अपनी भूमि, अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया। वे दुनिया के प्रति, इस बात से आशान्वित थे, सामाजिक न्याय तभी कारगर होता है जब वो नीचे से उभर कर आता है।’’
वेंडी सिंगर साथ में यह भी कहती हैं ‘‘वाल्टर हाउजर ने ये देखा कि कैसे किसान दैनिंदिन जीवन की परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए एक बेहतर भविष्य का सपना देखते हैं।’’
कैसी विडम्बना है जो आदमी अपने देश में वाम रूझानों वाला माना जाता है वो भारत में सी.आई.ए का आदमी घोषित कर दिया जाता है। अमेरिका व सोवियत संघ के शीतयुद्ध के जमाने में हर अमेरिकी संदेह की निगाह से देखा जाता था।
दरअसल कांग्रेस शासन में इतिहासकारों ने स्वामी सहजानन्द पर ध्यान देना नहीं समझा। वैसे भी कांग्रेसी नेतृत्व के लिए स्वामी जी अछूत की तरह थे। इतिहासकारों ने भी इस मामले में चुप रहना ही बेहतर समझा। साठ के अन्तिम व सत्तर के प्रारम्भिक वर्षो में किसानों के इतिहास लेखन के केन्द्र में आने बाद स्वामी जी से सम्बन्धित दस्तावेजों की खोज शुरू हुई। इसी वक्त वाल्टर हाउजर पर आरोप लगाकर अपनी जिम्मेवारियों से इतिहासकारों ने मुँह मोड़ लिया। स्वामी सहजानन्द सरस्वती जैसे बड़ी शक्सियत के प्रति सचेत उदासीनता और अपनी नाकामी छिपाने के लिए वाल्टर हाउजर बलि का बकरा बनाया। उन दिनों शीत युद्ध का समय था और किसी अमेरिकन को सी.आई.ए का एजेंट बता देना सबसे आसान उपाय।
पश्चिम की परम्परा के विपरीत उन्हें दफनाया नहीं गया बल्कि उनकी अंत्येष्टि की गयी। वाल्टर हाउजर की की इच्छा थी कि उनकी अस्थियों को पटना लाकर गंगा में प्रवाहित किया जाए। वाल्टर हाउजर पटना पहली बार आये जब उनकी पत्नी रोजमेरी हाउजर गर्भवती थी। यहीं उनकी पहली संतान, पुत्री, का जन्म हुआ जिसका नाम उन्होंने रखा ‘शीला हाउजर’। रोजमेरी हाउजर भी वाल्टर के शोध कार्य में सहभागी की तरह थीं। उनका कई वर्ष पूर्व ही निधन हो गया था।
कैसी विडम्बना है कि इतिहास के जिस प्रोफेसर को सी.आई.ए कहकर बदनाम करने का प्रयास किया गया उसकी अन्तिम इच्छा थी कि उसकी अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित हों।
लेखक संस्कृतिकर्मी व स्वतन्त्र पत्रकार हैं।
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