विधुत संशोधन विधेयक, निजी कम्पनियों को छूट और जनता की लूट
मौजूदा केन्द्र सरकार विधुत अधिनियम 2003 में व्यापक संशोधन करने जा रही है, जिससे निजी क्षेत्र की कम्पनियों को सिर्फ मुनाफे से मतलब रहेगा पर उसका कोई दायित्व नहीं होगा और सारे जोखिम और नुकसान जनता पर लाद देगा। इस नये विधेयक को 17 अप्रैल 2020 को प्रस्तावित किया गया, जब पुरा देश लाक डाउन में फंसा हुआ था। इसके साथ ही लोगों को इस पर टिप्पणी करने के लिये महज 21 दिन दिये गये, जब खासकर जब लोगों के अभिव्यक्ति के साधन को निलम्बित कर दिया गया था। भारी विरोध के कारण इसकी अवधि को 5 जून तक बढ़ाया गया। अब इसे आने वाला संसद के मानसून सत्र में रखा जाएगा।
बिजली का क्षेत्र एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है। एक ओर इससे करोड़ों लोगों को रोशनी मिलती है दूसरी ओर खेती, धन्धे, उद्योग आदि काफी हद तक बिजली पर निर्भर है। आजादी के बाद इंडियन इलेक्ट्रिसिटी एक्ट 1948 बनाया गया। बिजली वयवस्था हेतु विधुत मण्डलों का गठन किया गया। सन् 2002 तक इन मण्डलों ने ही बिजली उत्पादन, प्रेषण एवं वितरण की जिम्मेदारी संभालते हुए जनता को बिजली उपलब्ध कराई। परन्तु विश्व बैंक, आईएमएफ, एशियाई विकास बैंक तथा अन्य बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दबाव में तथाकथित “उर्जा सुधारों” के नाम पर केन्द्र सरकार द्वारा विधुत अधिनियम 2003 लाया गया। जिसमें विधुत नियामक आयोग के गठन के अलावा तीन प्रमुख उद्देश्य थे। जिसमें
(1) विधुत मण्डलों का विखण्डन कर उत्पादन, प्रेषण एवं वितरण कम्पनियों का निजीकरण,
(2)विधुत दरों में लगातार वृद्धि और
(3)निजी और विदेशी निवेश को प्रोत्साहन।
जहाँ 1948 का इलेक्ट्रिसिटी एक्ट उद्देश्य था कि बिजली को सेवा क्षेत्र में रखकर सभी को उचित दर बिजली उपलब्ध कराना वहीं विधुत अधिनियम 2003 का उद्देश्य बिजली को “लाभ(लूट) का धन्धा” बना कर रोशनी सिर्फ अमीरों के लिये रखना। यह कैसा सुधार है कि सन् 2000 में मध्यप्रदेश विधुत मण्डल का घाटा 2100 करोड़ रूपये था और 4892 करोड़ रूपये दीर्घकालीन ॠण था, जो पिछले 15 सालों में बिजली कम्पनियों का घाटा और कर्ज 47 हजार करोड़ रुपए तक बढ गया है।
2014 से 2018 तक पिछले चार वित्तीय वर्षा में 24 हजार 888 करोड़ रुपए का घाटा हो चुका है। निजीकम्पनियों से विधुत खरीदी अनुबन्ध के कारण 2010 से 2019 अर्थात पिछले नौ सालों में बिना बिजली खरीदे 6500 करोड़ रुपए का भुगतान किया गया है। मध्यप्रदेश में उर्जा सुधार के 18 साल बाद भी 65 लाख ग्राग्रामीण उपभोक्ताओं में से 6 लाख परिवारों के पास बिजली नहीं है और सभी गाँव में बिजली पहुँचाने के सरकारी दावों के विपरीत मध्यप्रदेश के 54903 गाँवों में से अभी भी 3286 गाँवों में बिजली नहीं पहुँचा है।
विधुत संशोधन विधेयक 2020 के माध्यम से सरकार उन सुधारों को फिर से लाना चाहती है जो सरकार 2014 और 2018 में विभिन्न हिस्सों में विरोध के चलते पारित कराने में असफल रही थी। आल इंडिया पावर इंजीनियर फेडरेशन के प्रमुख शैलेन्द्र दुबे ने बताया कि विधुत उत्पादन क्षेत्र, खासकर विधुत वितरण कम्पनियाँ (डिस्काम) कई सालों से बढते एनपीए (नान-परफॉरर्मींग एसेट) के जोखिम का सामना कर रहा है। लेकिन इसे दूर करने के लिए सरकार ने कुछ नहीं किया है। 2003 के अन्तर्गत शुरू किए गये निजीकरण उपायों के अनुक्रम इस नये संशोधन के जरिये और तीव्र करने की कोशिश है। इससे ना पिछड़े समुदाय के लिए बिजली इस्तेमाल करना और मुश्किल हो जाएगा बल्कि यह एक लक्जरी वस्तु में बदल जाएगा।
यह विधेयक नियामक आयोगों को गैर जरूरी बना सकता है, क्योंकि यह प्रस्ताव रखा गया है कि ज्यादातर अधिकार केंद्रीय विधुत प्राधिकरण में निहित होंगे। अगर ऐसा सम्भव हो जाता है तो आबादी का बड़ा हिस्सा शिकायत निवारण के पहुँच से बाहर हो जाएगा। यह विधेयक आक्रामक रूप से विधुत क्षेत्र को निजीकरण को बढावा देता है बल्कि शहरी एवं ग्रामीण और उच्च आय एवं निम्न आय के बीच बिजली पहुँच की मौजूदाअसमानता को और बढावा देगा। इसमें साफ तौर पर रूप रेखा तैयार किया गया है कि विभिन्न तरीके की सब्सिडियों को खत्म किया जा सके जो गरीब लोगों तक बिजली पहुँचाने के लिए जरुरी है। यह व्यापक तौर पर ज्ञात है कि मौजूदा कानून के अन्तर्गत अधिकतर बिजली खरीदी समझौता जनहित को आगे बढाने में अक्षम रहा है। फिर भी ये लाइंसेसधारी बिना अनुबंधात्मक दायित्व पर खरे उतरे इसका फायदा उठा रहे हैं, चाहे वो उत्पादन या वितरण का क्षेत्र हो।
यह मौजूदा प्रस्ताव विफल होने वाले फ्रेंचाइजीज के लिए (विशेष विक्रय अधिकार) समझौता को बढावा देता है। ग्रामीण क्षेत्रों में निजी फ्रेंचाइजीज यह दावा पेश करते हुए निवेश नहीं करेगी की वैसे इलाके उनके लिये कोई लाभदायक उद्यम नहीं है और इसके चलते एक बङे स्तर की विषमता पैदा होगा, जहाँ एक तरफ जगमगाते शहर रहेंगे और दूसरी तरफ अन्धकार में डूबे गाँव होंगे। विधेयक में प्रस्ताव है कि उत्पादन टैरिफ का भुगतान नहीं होने की स्थिति में इसका नुकसान विधुत विधुत कम्पनियाँ (डिस्काम) पर डाल दिया जाएगा, जो बाद में उपभोक्ताओं से वसूला जाएगा। बिजली उत्पादन कम्पनियाँ इससे पूर्ण रूप से सुरक्षित रहेंगे।
राज्य विद्युत नियामक आयोग के नियम बनाने के अधिकार को हटाने और अधिभार एवं उससे जुड़े साधन तय करने की भूमिका को वापस लेने का प्रस्ताव है। इसके कारण राज्यों का वित्तीय घाटा होने का खतरा है क्योंकि ना वो टैरिफ का मोल भाव कर पायेगा और ना इससे जुड़े कोई नियम बना पायेगें। जहाँ तक राज्यों और बिजली कम्पनियों के बीच बिजली खरीदी समझौता की बात है, इस प्रकिया में केंद्रीय दखलंदाजी राज्यों के लिये नुकसानदायक रहेगा और यह शासन के संघीय ढाँचे के खिलाफ जाएगा। संक्षेप में यह है कि बिजली उत्पादन, प्रेषण एवं वितरण के प्रबन्धन का अधिकार राज्यों से छिन जाएगा।
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