वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन की जमीनी हकीकत
वन अधिकार कानून 2006 के प्रस्तावना में उल्लेख है कि “औपनिवेशिक काल के दौरान तथा स्वतन्त्र भारत में राज्य वनों को समेकित करते समय उनकी पैतृक भूमि पर वन अधिकारों और उनके निवास को पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं दी गयी थी, जिसके परिणाम स्वरूप वन में निवास करने वाली उन अनुसूचित जनजातियों और अन्य परम्परागत वन निवासियों के प्रति ऐतिहासिक अन्याय हुआ है, जो वन पारिस्थितिकी प्रणाली बचाने और बनाए रखने के लिए अभिन्न अंग है। परन्तु 31 जनवरी 2020 के अनुसार मध्यप्रदेश में वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन के आंकड़े अन्याय को जारी रहने की ओर इशारा करते हैं। कुल 5 लाख 85 हजार 239 वयक्तिगत दावों में से मात्र 2 लाख 29 हजार 27 लोगों को अधिकार पत्र मिला है अर्थात 60 प्रतिशत दावे अमान्य किया गया है। 42 हजार 182 सामुदायिक निस्तार दावे लगे थे जिसमें से 27 हजार 970 सामुदायिक निस्तार हक्क प्राप्त हुआ है।
फरवरी 2019 में उच्चतम न्यायालय के आदेश से अमान्य दावेदारों को बेदखली ने आदिवासी अंचलों असंतोष बढ़ा दिया है, क्योंकि मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा 3 लाख 60 हजार 877 दावे अमान्य हुए थे। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 2019 में उच्चतम न्यायालय में हलफ़नामा दाख़िल करते हुए स्वीकार किया कि वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन में विसंगति है, इसे व्यवस्थित करने के लिये एक साल का समय दिया जाए। तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने पारदर्शी एवं त्वरित गति से वन अधिकार कानून के अन्तर्गत वयक्तिगत अधिकार पत्र के क्रियान्वयन हेतु वन मित्र एप योजना लेकर आई। जटिलताओं के बावजूद दावेदारों ने इस एप के माध्यम से वयक्तिगत दावे लगाए। 6 जुलाई 2020 के आदिवासी क्षेत्र विकास नियोजन विभाग, मध्यप्रदेश के आंकड़े अनुसार वन मित्र एप में 3 लाख 79 हज़ार 132 दावे लगाए गये हैं जिसमें से 2 लाख 85 हजार 625 दावे पूर्व में अमान्य दावेदारों ने लगाए हैं।
अर्थात 93 हजार 507 नये दावे लगे हैं जो यह दर्शाता है कि इस कानून का प्रचार प्रसार गाँव – गाँव तक नहीं किया गया है। उपरोक्त दावों में से मात्र 716 दावों की स्वीकृति जिला स्तरीय समिति से मिला है। इन आंकड़ों से अनुमान लगाया जा सकता है कि अधिकारियों द्वारा घोर लापरवाही किया जा रहा है। इस अमान्य दावों का आधार बना कर वन विभाग उमरिया, हरदा,मंडला, खंडवा, बुराहनपुर आदि जिलों में बेदखली कार्यवाही शुरू कर दिया है। उमरिया जिला में तो आदिम जनजाति समूह के बैगाओं को उनके पीढियों से काबिज वन भूमि से बेदखल कर दिया है। जबकि वन अधिकार कानून की धारा 4(5) के अनुसार किसी सदस्य को उसके अधिभोगाधिन वनभूमि से तबतक बेदखल नहीं किया जाएगा या हटाया नहीं जाएगा। जबतक कि मान्यता और सत्यापन की प्रकिया पूरी नहीं हो जाती है।
12 जुलाई 2012 को आदिवासी कल्याण मंत्रालय, दिल्ली ने अपने दिशा निर्देशों में उल्लेख किया है कि किसी भी दावे को अमान्य करने का कारण दर्ज कर आदेश की एक प्रति दावेदार को उपलब्ध करानी होगी। जिसके आधार पर दावेदार अमान्य दावे के खिलाफ अपील में जा सके। परन्तु मध्यप्रदेश में किसी भी बेदखल किये गये लोगों को लिखित में सूचना नहीं दिया गया है। पिछले माह जुलाई में समाचार आया था कि 16 जिलों में वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन की खास प्रगति नहीं होने से मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री नाराज हैं। इसी नाराजगी को देखते हुए प्रमुख सचिव और अपर मुख्य वन संरक्षक प्रत्येक जिलों में दो तीन दिन रूक कर आवेदनों का निराकरण करवायेंगे परन्तु इससे भी कोई खास प्रगति देखने को नहीं आई है।
इस कानून के क्रियान्वयन की का दायित्व जन जातीय कार्य मंत्रालय को सौंपा गया है। मध्यप्रदेश के 52 हजार 739 गाँवों में से 22 हजार 600 गाँव या तो जंगल में है या जंगल की सीमा पर बसे हुए हैं। इस कानून में 13 दिसम्बर 2005 के पूर्व वनभूमि पर काबिजों को व्यक्तिगत तथा गाँव से लगे वनों पर सामुदायिक अधिकार देने का प्रावधान है। कानून की धारा 3(1)झ में स्पष्ट किया गया है कि समुदाय को ऐसे किसी सामुदायिक संसाधन का संरक्षण, पुनर्जीवित या संरक्षित या प्रबन्ध करने का अधिकार है, जिसकी वे सतत् उपयोग के लिए परम्परागत रूप से संरक्षा और संरक्षण कर रहे हैं।
अधिनियम की धारा 4(2) के अन्तर्गत राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभयारण्यों के वन निवासियों को भी वन अधिकार दावे की पात्रता है परन्तु कान्हा नेशनल पार्क के क्षेत्रों में वन अधिकारों की प्रकिया चलाया ही नहीं गया। मध्यप्रदेश में कुल 925 वन ग्रामों को इस कानून से राजस्व ग्रामों में परिवर्तित करने का प्रावधान है परन्तु राज्य सरकार 5 जुन 2017 को वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को पत्र लिखकर कर दिशा निर्देश ही मांग रही थी। सामुदायिक संसाधनों पर समुदाय के अधिकार को लेकर प्रपत्र (ग) की कोई भी दावा या तो लगा नहीं है या लगा है तो अधिकार पत्र दिया नहीं गया है।
.