राजनीतिक प्रयोगशाला के रूप में बदनाम हो रहा उत्तराखण्ड
नारायण दत्त तिवारी ने उत्तराखण्ड के विकास के लिए नौकरशाही को नियंत्रित करते बहुत से कार्य किये, जैसे बेरोज़गारी हटाने के लिए उन्होंने सिडकुल स्थापित किया। इस तरह के विकास कार्य कर कोई नेता उत्तराखण्डवासियों के बीच लोकप्रिय होता तो शायद उसे दिल्ली से हटा पाना मुश्किल होता।
20 साल में 11 मुख्यमन्त्री, जी हाँ भारत में उत्तराखण्ड एकमात्र ऐसा प्रदेश है जहाँ कपड़े की तरह मुख्यमंत्रियों को बदला जाता है, भाजपा हो या काँग्रेस प्रदेश की सियासत के फरमान दिल्ली से जारी किये जाते हैं। इस बार तो हद हो गयी पूर्ण बहुमत से आई भाजपा सरकार ने प्रदेशवासियों को पाँच सालों के अंदर विकास की सौगात दी हो या नही पर तीसरे मुख्यमन्त्री की सौगात जरूर दे दी। भ्रष्टाचार के मामलों में नाम आना, कुम्भ में की गयी सख्ती और अपने ही पार्टी कार्यकर्ताओं से दूरी जैसे कारण त्रिवेंद्र सिंह रावत के मुख्यमन्त्री पद की कुर्सी से हटने की वज़ह बने।
उनके बाद आए तीरथ सिंह रावत मार्च से लेकर जुलाई तक सिर्फ़ चार महीने के मुख्यमन्त्री बने, अपने इस्तीफे में उन्होंने लिखा कि आर्टिकल 164-ए के हिसाब से उन्हें मुख्यमन्त्री बनने के बाद छह महीने में विधानसभा का सदस्य बनना था, लेकिन आर्टिकल 151 कहता है कि अगर विधानसभा चुनाव में एक वर्ष से कम का समय बचता है तो उप-चुनाव नहीं कराए जा सकते हैं।
अब सवाल यह उठता है कि संविधान कोई तीरथ के मुख्यमन्त्री बनने के बाद तो लिखा नही गया, जब यह सब पहले ही पता था तो उन्हें मुख्यमन्त्री बनाया ही क्यों गया!! खैर तीरथ जी ने त्रिवेंद्र सिंह रावत के कुम्भ में आने वाले लोगों के लिए आरटी-पीसीआर निगेटिव रिपोर्ट जरूरी वाले निर्णय और गैरसैंण को कमिश्नरी बनाने वाले निर्णय को स्थगित कर दिया। इसके साथ ही वह महिलाओं की जीन्स और अंग्रेजी शासन को लेकर दिये गये अपने बयानों को लेकर वह देशभर में चर्चित रहे।
He’s done his job. Delivered the Kumbh Mela superspreader. Exposed the BJP’s misogynistic ripped-jeans wardrobe. Made India a US colony. Now #Uttarakhand CM resigns to avert a ‘constitutional crisis’. Welcome to the BJP model of seasonal Chief Ministers! https://t.co/G1yyjCC4cJ
— Dipankar (@Dipankar_cpiml) July 3, 2021
तीरथ सिंह रावत के बाद मुख्यमन्त्री कौन सवाल पर कुछ समय अनिश्चय की स्थिति बनी रही और अंत में खटीमा के दो बार के युवा विधायक पुष्कर सिंह धामी के नाम पर मुहर लगी। कई वरिष्ठ विधायकों के होते युवा पुष्कर को चुने जाने पर पार्टी में टूट की खबरें भी आई पर अंत में नए मुख्यमन्त्री के शपथ समारोह में सभी विधायकों ने शामिल हो पार्टी में एकता का सन्देश दिया। सत्ता के इस खेल पर वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरणविद राजीव नयन बहुगुणा ने पहाड़ी भाषा में लिखा-
जेठ बिते, चौमासू ऐगे, भैर लग्यूँ बसकाळ
हरक फ़र्किगे, खंडुडी खँडेगे, खौळीगे सतपाल
बड़ा बड़ों न मथेण्ड पकड़ी, धम धम आये धामी
सबकू भड्डू धरयूँ रैगे, चपट फुकेगें दाळ।
सोशल मीडिया पर उत्तराखण्ड की राजनीति को लेकर तरह तरह के मीम्स साझा किये जा रहे हैं।
Le Uttarakhand people to Tirath Singh Rawat#UttarakhandCM pic.twitter.com/p6uLXJiXyj
— Ammar Akhtar (@FakirHu) July 3, 2021
पहाड़ी प्रदेश वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद हमेशा से अपने विकास की जगह राजनीति को लेकर देशभर में चर्चित रहा है। वर्ष 1897 में इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के समक्ष कुमाऊं को प्रान्त का दर्जा देने की मांग पहली बार रखी गयी। नए मुख्यमन्त्री के शहर खटीमा में ही दो सितम्बर 1994 को पृथक राज्य के लिए जुलूस निकाल रहे आन्दोलनकारियों पर पुलिस ने फायरिंग की, फिर आन्दोलन की यह आग पुरे उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक फैल गयी। 15 अगस्त 1996 को तत्कालीन प्रधानमन्त्री एच डी देवगौड़ा ने लाल किले से उत्तराखण्ड राज्य बनाने की ऐतिहासिक घोषणा की, जिसके बाद 9 नवम्बर 2000 को यह राज्य बना।
रबर स्टाम्प वाले मुख्यमन्त्री
कई जानकार उत्तराखण्ड में दिल्ली से बनाए जाते इन मुख्यमंत्रियों को सिर्फ रबर स्टाम्प वाला मुख्यमन्त्री मानते हैं और इसका कारण यह बताया जाता है कि छोटे राज्यों के नेताओं को कम भाव दिया जाता है और अधिकतर निर्णय दिल्ली पर निर्भर होते हैं।
गोविंद वल्लभ पन्त, हेमवती नन्दन बहुगुणा और उत्तराखण्ड के मुख्यमन्त्री के तौर पर अपना पाँच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले एकमात्र नेता नारायण दत्त तिवारी जैसे राजनीतिक दिग्गजों ने उत्तराखण्ड से निकल अपनी छाप पूरे देश में छोड़ी थी। तमिलनाडु में अम्मा कैंटीन, अम्मा फार्मेसी जैसी योजनाएं चला जयललिता जिस तरह लोकप्रिय हुई ठीक वैसे ही उत्तराखण्ड में नारायण दत्त तिवारी लोकप्रिय थे।
वरिष्ठ पत्रकार गौरव नौडियाल के अनुसार नारायण दत्त तिवारी ने उत्तराखण्ड के विकास के लिए नौकरशाही को नियंत्रित करते बहुत से कार्य किये, जैसे बेरोज़गारी हटाने के लिए उन्होंने सिडकुल स्थापित किया। इस तरह के विकास कार्य कर कोई नेता उत्तराखण्डवासियों के बीच लोकप्रिय होता तो शायद उसे दिल्ली से हटा पाना मुश्किल होता। आजकल के नेताओं की जनता के बीच लोकप्रियता की बात है तो इसे मेरा दूधवाला साबित करता है जब वह मुझे बताता है कि पुष्कर सिंह धामी गढ़वाल से आते हैं।
नेता मस्त और जनता त्रस्त
पूर्व मुख्यमंत्रियों दी जाने वाली सुविधा पर सरकार ने कितना अड़ियल रुख अपनाया हुआ है यह हमें हिंदुस्तान की एक ख़बर से पता चलता है जिसमें यह बताया गया है कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी आवास के किराए में राहत दिलाने को अब सरकार सुप्रीम कोर्ट में विशेष रिट याचिका दायर करेगी।
मामला यह है कि उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्रियों को राज्य सरकार की ओर से आवास, गाड़ी समेत कई तरह सुविधाएं मिलती थी, साल 2019 में उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को सभी सुविधाओं का किराया बाजार भाव से देना होगा। हाईकोर्ट ने सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों से छह महीने में पूरा पैसा जमा करने का आदेश दिया था।
इस फैसले के कुछ ही महीनों के बाद राज्य सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्रियों को सुविधाएं जारी रखने के लिए पूर्व मुख्यमन्त्री सुविधा अधिनियम बना डाला था। इस अधिनियम को एक संस्था ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी, जिस पर हाईकोर्ट ने उस अधिनियम को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया था। अब सोचने वाली बात यह है कि जिस प्रदेश में कपड़ों की तरह बदलते हुए मुख्यमन्त्री ‘पूर्व’ बन जा रहे हैं वहाँ जनता की खून पसीना एक कर कमाई हुई पूंजी को कैसे लुटाया जाता है।
माननीयों के ठाठ बाट यहीं ख़त्म होते दिखते तब भी ठीक था, साल 2018 में हिंदुस्तान में एक ख़बर आई कि उत्तराखण्ड के विधायक भी अब मालदार हो गये हैं।विधायकों के वेतन भत्तों में कुल 120 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी की गयी थी। विधेयक के तहत विधायकों के लिए होम लोन की सीमा 30 लाख से बढ़ाकर पचास लाख कर दी गयी।
यह वही समय था जब उत्तराखण्ड में बेरोज़गारी की दर तेज़ी से बढ़ रही थी , पिछले पाँच सालों में उत्तराखण्ड की बेरोजगारी दर छह गुना से ज्यादा बढ़ गयी है। कोरोना महामारी के दौरान इसमें सबसे तेजी से वृद्धि हुई। महामारी से पहले ही राज्य में बेरोजगारी तेजी से बढ़ चुकी थी। लॉकडाउन के बाद कामकाज ठप होने और काम के अभाव में घर लौटे प्रवासियों के चलते प्रदेश में बेरोजगारी बेकाबू होने लगी है।
शहीद राज्य आंदोलनकारियों को भावभीनी पुष्पांजलि।
हमारी सरकार उत्तराखंड को शहीद आंदोलनकारियों के सपनों का राज्य बनाने के लिए दृढ़ संकल्पित है। pic.twitter.com/J7zgYAKTip— Pushkar Singh Dhami (@pushkardhami) July 3, 2021
मुख्यमन्त्री बनते ही पुष्कर सिंह धामी ने देहरादून स्थित उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलनकारी शहीद स्मारक पर जा पुष्पांजलि अर्पित की और ट्वीट किया शहीद राज्य आन्दोलनकारियों को भावभीनी पुष्पांजलि। हमारी सरकार उत्तराखण्ड को शहीद आन्दोलनकारियों के सपनों का राज्य बनाने के लिए दृढ़ संकल्पित है। साथ ही उनका बयान आया कि मेरा ये लक्ष्य होगा कि हमारे जो हज़ारों-लाखों भाई बेरोजगार हैं, उनको रोजगार से जोड़ने का काम हो।
यह बात ठीक है कि उनके सामने बहुत सी चुनौतियां हैं और समय कम, पर यह देखने वाली बात होगी कि क्या वह अपने पूर्ववर्तियों की तरह ही जनता को भूल सिर्फ नेताओं के ऐशोआराम की व्यवस्था करेंगे।
राजनीतिक घटनाक्रमों के बीच कैसी है कोरोना के खिलाफ़ जंग
उत्तराखण्ड में अप्रैल माह में हुए कुम्भ के बाद कोरोना तेज़ी से फ़ैला, 13 अप्रैल 2021 को कोरोना से हो रही मौत दो अंकों तक पहुंची 17 मई को यह आंकड़ा एक दिन में 223 तक भी पहुंचा। कुंभ के दौरान प्रदेश में हुआ देश का सबसे बड़ा कोविड टेस्ट घोटाला भी अब सामने आ गया है जिसमें सरकार द्वारा अनुबंधित जाँच प्रयोगशालाओं ने कम से कम कोविड की एक लाख फर्जी रिपोर्ट जारी की।
देहरादून स्थित ‘सोशल डेवलपमेंट फ़ॉर कम्युनिटीज फाउंडेशन’ संस्था के अनूप नौटियाल के एक ट्वीट के अनुसार 30 जून 2021 तक प्रदेश में 1210 बैकलॉग मृत्यु दर्ज हुई हैं। मृत्यु दर में 2.15% के साथ उत्तराखण्ड देश में पंजाब के बाद दूसरे स्थान पर है। इससे पता चलता है की राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं मे सुधार की बड़ी आवश्यकता है।
यहाँ उत्तराखण्ड हाईकोर्ट में दायर नवनीश नेगी की याचिका पर भी ध्यान देना जरूरी है जहाँ उन्होंने अपनी याचिका में कोर्ट का ध्यान पौढ़ी गढ़वाल जिले की ओर खींचा और नोडल ऑफिसर द्वारा प्राप्त हुए जिले के विभिन्न अस्पतालों के आंकड़े दिये गये। इन आंकड़ों के अनुसार जिला अस्पतालों के कोविड हेल्थ सेंटरों में दस वेंटिलेटर हैं, उनमें कोई भी एक्टिव मोड में नही है। आंकड़ों से पता चलता है कि जिले के अस्पतालों में आईसीयू के केवल चार बेड हैं।
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