उत्तराखंड

कथित आधुनिक विकास बनाम प्रलय

 

उत्तराखण्ड के चमोली जिले में 7 फरवरी 2021 को कुदरत ने 10.30 से 11 बजे के बीच सिर्फ आधे घंटे में ही आधुनिक विज्ञान युग के वैज्ञानिक उपकरणों से लैस कथित आधुनिक मानव के कथित शक्ति के दम्भ को अपने एक अत्यन्त छोटे से ताँडव से जिस प्रकार धूलधूसरित किया और उसके अपनी कथित अपराजेय मिथ्या शक्ति के दर्प का बाजा बजा दिया, उससे आधुनिक विज्ञान युग के कथित आधुनिक मानव को अपनी असली औकात का पता चल गया होगा! जिसमें एक बड़े ग्लेशियर के टूटने की बात कही जा रही है।

वैसे अभी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि इतनी बड़ी तबाही ग्लेशियर के टूटने से ही हुई, क्योंकि दुर्घटना से पूर्व न तो कोई बादल फटा, न भयंकरतम् बारिश हुई तो फिर यह कैसे मान लिया जाय कि इतनी बड़ी तबाही होने का कारण ग्लेशियर टूटने से हुई? इस दुःखद घटना के लिए इसमें अभी गंभीर भूवैज्ञानिक शोध की जरूरत है, जो आनेवाले वर्षों में उद्घाटित होंगे, लेकिन कुछ न कुछ तो हुआ, जिससे कुदरत क्रुद्ध होकर मानव निर्मित कथित अजेय डैम, पुल, बिल्डिंग्स, सड़क आदि को पलक झपकते ही माचिस या तास के पत्तों की भाँति रौंदकर रख दिया!

इस अचानक प्रलय और विध्वंस से 2013 में केदारनाथ में हुई प्रलय की भयावह मंजर आँखों के सामने तैर गयी! पर्यावरण और भूवैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय सदृश्य बहुत ऊँचे पहाड़ों में बहुत ऊँचाई वाले स्थानों पर साल दर साल गिरने वाली बर्फ से परत दर परत बर्फ की ठोस सतह जमा होकर बहुत बड़ी-बड़ी बर्फ की चट्टानें बन जातीं हैं, उन्हें ही ग्लेशियर कहते हैं, वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार पूरे हिमालय परिक्षेत्र में कुल 9975 इस तरह के ग्लेशियर हैं, जिनमें से 900 ग्लेशियर उत्तराखण्ड में अवस्थित हैं, इन्हीं ग्लेशियरों से उत्तर भारत की लगभग सभी नदियाँ निकलतीं हैं, इन्हीं नदियों से पर उत्तर भारत के लगभग 50 करोड़ लोगों की प्यास बुझती है, कृषि की सिचाई होती है और उनकी आजीविका की संसाधन उपलब्ध करातीं हैं।

ये ग्लेशियर एक तरह के प्राकृतिक बाँध भी हैं, ये प्राकृतिक बाँध हिमालय के बहुत ऊँचाई वाले स्थान पर बनते रहते हैं, वैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय में बहुत ऊँचाई वाले स्थानों पर इस तरह के सैकड़ों बाँध बने हुए हैं, जिनमें लाखों क्यूसेक पानी जमा है, परन्तु ये ग्लेशियर अत्यधिक मानवीय हलचलों या प्राकृतिक या भूगर्भीय हलचलों से टूट या दरक जाते हैं, जिसकी वजह से इन प्राकृतिक बाँधों के पीछे लाखों क्यूसेक पानी लगभग सीधी ढलानों पर अति उर्जा के साथ अपने साथ मिट्टी, बालू और छोटे-बड़े पत्थरों के साथ अविश्वनीय और विध्वंसकारी तेज गति से चल पड़ता है, चमोली वाली घटना में यही कुछ हुआ।

चमोली में प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार पानी का बहाव इतना ताकतवर व तीव्र था कि 13 मेगावाट का एक हाइड्रो प्रोजेक्ट, एनटीपीसी का तपोवन स्थित 1900 मीटर की सुरंग, जिसमें सैकड़ों मजदूर, टेक्नीशियन और इंजिनियर कार्यरत थे, मिनटों में, पलक झपकते लाखों टन कीचड़ और मलवे में जिंदा दफन हो गये, कई पुल बह गये, भारत-चीन सीमा को जोड़ने वाला एक 60 मीटर का पुल, जिससे हमारी भारतीय सेना चीनी बॉर्डर पर पहुँचती थी, वह भयंकरतम् जलप्रवाह से माचिस की भाँति तुरन्त बह गया, सही-सही कितनी तबाही हुई है, इसका आकलन अभी किया ही नहीं जा सकता है, लेकिन जो तबाही हुई है, वह रोंगटे खड़े कर देने वाली है!

    कितनी दुःखद व हतप्रभ कर देनेवाली बात है कि दिसम्बर 2014 में केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा सुप्रीम कोर्ट के प्रस्तावित बाँधों पर आए निर्णय के बाद गंगा के हिमालयी क्षेत्र में बिगाड़ रहे पर्यावरण पर हलफनामा दाखिल किया गया था, परन्तु इसके बावजूद आज के समय में भी हिमालय जैसे नाजुक पर्यावरणीय स्थल पर सौ से ज्यादा हाइड्रो प्रोजेक्ट्स पर धड़ल्ले से काम चल रहा है, जबकि 2018 में इस देश की जीवन रेखा कही जाने वाली इसी गंगा मैया जैसी नदी की जल की धारा की अविरलता की अक्ष्क्षुणता के लिए आधुनिक गंगापुत्र डॉक्टर जी डी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानन्द जी 115 दिन उपवास करके शहीद हो चुके हैं।

लेकिन आधुनिक सत्ता के मूर्ख और धन और पैसे के लोभी सत्ता के कर्णधार, ठेकेदार और बड़े-बड़े ब्यरोक्रेट्स की तिकड़ी बड़े-बड़े बाँधों के बनाने के अपने हठयोग पर अड़े हुए हैं! हिमालयी आपदा में आग में घी डालने का काम इस देश के कर्णधार वोट के लालच और अपनी सत्ता की अक्ष्क्षुणता के लिए इस देश के 99 प्रतिशत धर्मभीरु जनता का मानसिक शोषण के लिए और लुभाने के लिए लगभग 900 किलोमीटर चार धाम सड़क चौड़ीकरण योजना के तहत हिमालय की अत्यन्त नाजुक पर्वत श्रृंखला के लाखों पुराने पेड़ों को अतिनिर्दयता से काटकर, सुरंग बनाने हेतु डायनामाइट विस्फोट से उड़ाकर, हिमालय की ढलानों को जर्जर व कमजोर किया गया है।


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हिमालय स्थित धार्मिक स्थलों की पवित्रता व शांतिपूर्ण वातावरण को तहस-नहसकर उसे मात्र टूरिस्ट स्पॉट बनाने का मूर्खतापूर्ण व सनकभरा निर्णय लिया जा रहा है! जंगलों में मानवकृत हलचल से जगह-जगह आग लगाकर उससे उत्पन्न धुँए व कार्बन डाई आक्साइड से ग्लेशियरों की स्थिरता को अपूरणीय क्षति पहुँचाई गयी है, उक्तवर्णित मानव जनित कुकृत्यों से हिमालय की अत्यन्त नाजुक पर्यावरण को गंभीर क्षति पहुँचाई गयी है, जिससे सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र का औसत तापमान 0.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है, हजारों-लाखों सालों से जमें लगभग स्थिर ग्लेशियर अब टूटकर, दरककर, पिघलकर अचानक गिरकर मानव प्रजाति के कथित घमंड, दर्प और ताकतवर होने की भावना को रौंद रहा है।

विडम्बना यह भी है कि इस घटना को मात्र और केवल प्राकृतिक घटना सिद्ध करने के लिए और सत्ता के कर्णधारों के कुकृत्यों और पापों को ढंकने के लिए सत्ता के चमचे पत्रकार, सम्पादक पुरजोर प्रयास कर रहे हैं, जबकि चमोली की उक्त भयावह घटना के लिए हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी की पॉवर प्रोजेक्ट्स के बहाने भ्रष्ट नेताओं, ठेकेदारों व कमीशनखोर बड़े-बड़े ब्यरोक्रेट्स की तिकड़ी सबसे अधिक जिम्मेदार है, यह भी कटु यथार्थ और कटु सच्चाई है कि अविश्वसनीयरूप से विराट बलशाली प्रकृति, दंभी और क्षुद्र इंसान के कुकृत्यों और उसके अनर्गल हस्तक्षेप से नाराज होकर बार-बार फुँफकार रही है और चेतावनी दे रही है, यह भी सत्य है कि प्रकृति के सामने मानव की शक्ति पानी के एक बुलबुले से भी ज्यादा नहीं है!

   अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के एक संगठन इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट, जिसमें वैज्ञानिक तौर पर उन्नत शील 22 देशों के 210 वैज्ञानिकों और 350 शोधकर्ता हैं तथा देहरादून स्थित हिमालयन ग्लैशियरों के अध्ययन हेतु बनाए गये भारतीय वैज्ञानिक शोध संस्थान वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों ने हिन्दूकुश हिमालय एसेसमेंट नामक अध्ययन के तहत हिमालय के तेजी से पिघलते ग्लेशियरों का पिछले पाँच वर्षों तक गहन अध्ययन किया।

उनके अध्ययन के अनुसार अगर मानव द्वारा प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन की गति यही बनी रही तो भी दुनिया के तापमान के 1.5 डिग्री सेल्सियस ही बढ़ती रहने से भी सन् 2100 तक इन ग्लेशियरों के एक तिहाई गलेशियर पिघल जाएंगे और अगर यह तापमान बढ़कर 2 डिग्री सेल्सियस हो गया तब इनका दो तिहाई हिस्सा सदा के लिए पिघल जायेगा। इन वैज्ञानिकों के अनुसार गंगा के उद्गम श्रोत के मुख्य गलेशियर का एक प्रमुख सहायक ग्लेशियर जिसे चतुरंगी ग्लेशियर कहते हैं, वह पिछले 27 साल में भारतीय महाद्वीप में भयंकर प्रदूषण, हिमालयी क्षेत्र में अंधाधुंध वनों के विनाश, नदियों व वायु प्रदूषण के चलते 1127 मीटर से भी अधिक पिघल चुका है जिससे इसके बर्फ में 0.139 घन किलोमीटर की चिंताजनक कमी हुई है।

पेरिस जलवायु सम्मेलन से अमेरिका जैसे देश के हट जाने से दुनिया पर ग्लोबल वार्मिंग का खतरा और बढ़ गया है! कितने दुख, ग्लानि, विक्षोभ और विडम्बना है कि जिन नदियों के किनारे जिनकी बदौलत मानव सभ्यता फली-फूली और विकसित हुई जिन नदियों के उपजाऊ मैदानों में जिनके पानी से सिंचिंत खेत से मानव जीवन की सबसे बड़ी जीवन की आवश्यकता भूख की समस्या को अपने प्रचुर मात्रा में अन्न उपजा कर देने वाली अपने अक्ष्क्षुण और निरन्तर जल प्रवाह से प्राचीन काल से ही मानव के व्यापार में अपना अमूल्य योगदान देने वाली अपने अमृततुल्य मीठे जल से मानव सहित समस्त जीवजगत की प्यास बुझाने वाली और इस प्रकृति की सबसे अद्भुत रचना रंगबिरंगी मछलियों सहित लाखों जलचरों की आश्रय स्थल रहीं हमारी मातृतुल्य नदियों को अब दम घोंटने और प्राण लेने के लिए वही मानव अब आमादा है जिनको लाखों वर्षों से जिन नदियों ने अपनी गोदी में खिलाया, पिलाया और पुत्रवत् पाला।


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भारत के सिरमौर कहे जाने वाले हिमालय से निकलने वाली समस्त नदियों पर जिनमें वे नदियाँ जो सीधे भारत की भूमि पर दक्षिण दिशा में आ जाती हैं, जैसे गंगा, सिंधु, यमुना, घाघरा आदि और वे भी जो हिमालय से उत्तर तरफ से उतर कर पूरब से होते हुए पुनः भारत भूमि में प्रवेश कर जातीं हैं जैसे याँगत्सी, मीकांग और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों के उद्गम श्रोत हिमालय के शिखरों पर लाखों-करोड़ों साल से बर्फिले ग्लेशियरों पर मानव द्वारा उत्पन्न प्रदूषण और अन्य विषाक्त गैसों के भयंकर उत्सर्जन से वैश्विक तौर पर इस समूची पृथ्वी के तापक्रम के उत्तरोत्तर बढ़ने से इन बर्फीले गलेशियरों के अस्तित्व पर भयंकर संकट मंडरा रहा है।

गंगा सहित और हिमालय से निकलने वाली सभी नदियों के उद्गम श्रोत सूख जाने के बाद वाली उस भयावह स्थिति की कल्पना मात्र से ही मन मस्तिष्क सिहर उठता है, इन सभी नदियों के सूखने पर पूरे उत्तर भारत में भयंकर सूखे से अन्न उत्पादन लगभग बिल्कुल शून्य हो जायेगा, क्योंकि भूगर्भीय जल की मुख्य श्रोत भी उत्तर भारत में फैली इन छोटी-बड़ी नदी नालों के निरन्तर जल प्रवाह से ही रिचार्ज होता रहता है। हैंडपम्प, कुँए, ट्यूबवेल आदि सभी फेल हो जाएंगे। पेड़-पौधों, बाग-बगीचों, जंगलों के सूखने से लाखों तरह के पशुपक्षी भी अकाल कलवित हो जायेंगे, सबसे बड़ी बात मानव के पेय जल की होगी।

इस देश में केरल के बाद सबसे घनी आबादी वाले उत्तर भारत के करोड़ों लोगों के सामने पानी के अभाव में अकाल और दुर्भिक्ष की विकट समस्या उत्पन्न हो सकती है। कथित विकास और सड़क चौड़ीकरण के नाम पर नाजुक हिमालयी पारिस्थितिकी को छेड़ने से, हिमालयी जंगलों के अत्यधिक छेड़छाड़ से अगर हमारी माँ तुल्य गंगा सूख गयी, तो इसके बेसिन में रहने वाले भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश आदि देशों के एक अरब पैसठ करोड़ मतलब 1650000000 लोगों के साथ पर्वतीय देश नेपाल के भी पच्चीस करोड़ लोग भूख की तो बात ही छोड़िए, पानी के अभाव में प्यासे ही मर जाएंगे! पेरिस जलवायु सम्मेलन से अमेरिका जैसे देशों के हट जाने से दुनिया पर ग्लोबल वार्मिंग का खतरा और बढ़ गया है!

इसलिए हम भारत के लोगों की यह सबसे बड़ी जिम्मेदारी बनती है कि हम अपनी इन जीवन दायिनी समस्त नदियों के उद्गम श्रोत मतलब लाखों सालों से बर्फ से जमें ग्लेशियरों को हर हालत में बचाना ही चाहिए। पृथ्वी को और अधिक गर्म होने से बचाने के लिए वह हर प्रयत्न करना चाहिए, जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है।

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निर्मल कुमार शर्मा

लेखक गौरैया एवम पर्यावरण संरक्षण से सम्बद्ध हैं तथा पत्र-पत्रिकाओं में सशक्त व निष्पृह लेखन करते हैं। सम्पर्क +919910629632, nirmalkumarsharma3@gmail.com
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