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यूपी जनादेश:हर तरफ मोदी मोदी
यूपी में लोकसभा का चुनाव परिणाम इस बार भाजपा के लिए ‘सुनामी’ लेकर आया। वोटरों ने मोदी को जमकर पसन्द किया। भाजपा की बल्ले बल्ले हो गई। आवाम ने पीएम के तौर पर नरेन्द्र मोदी और एनडीए की नीतियों को पसन्द किया। 2014 में हुए पिछले संसदीय चुनाव से ज्यादा इस मर्तबा वोट मिले। 51फीसदी का लक्ष्य बनाकर चुनाव लड़ी भाजपा को 52 फीसदी वोट हासिल हुए। सत्रहवीं लोकसभा का चुनाव इस मायने में महत्वपूर्ण माना जायेगा कि यह चुनाव एक व्यक्ति विशेष नरेन्द्र मोदी पर फोकस कर लड़ा गया। गौरतलब है कि एक तरफ प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को आगे करके उनके कार्य को आधार बनाकर वोट मांगा जा रहा था, तो दूसरी तरफ मोदी हटाओ के नारे पर विपक्षी दल एकजुट होने की कोशिश में लगे थे। पूरे चुनाव में शुरू से आखिर तक आवाम के बुनियादी मुद्दे गायब रहे, सिर्फ मोदी लाओ मोदी भगाओ का मसला अंत तक छाया रहा…और, आखिर में 23 मई को चुनाव परिणाम के रूप में जो “छप्परफाड़-जनादेश” सामने आया उसमें नरेन्द्र मोदी फिर एक बार देश के प्रधानमन्त्री।
फिर एक बार मोदी सरकार…। यही नारा, जो पूरे चुनाव में प्रमुखता से लगाया जा रहा था, वो सच्चाई के रूप में सामने है। मई 2019 में हुए सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की पूर्ण बहुमत वाली सरकार ने सत्ता संभाली। साफ है कि विपक्षी राजनैतिक दल वोटरों का मूड नही भांप सके। इसमें वे पूरी तरह चूक गए। खास बात यह है कि इस बार के चुनाव में प्रयोग भी कई हुए। सपा-बसपा और रालोद का गठबंधन, कांग्रेस का प्रियंका गाँधी वाड्रा को प्रमुखता से राजनीति में उतारना, सबके सब प्रयोग धरे रह गए। सोनिया गाँधी की बेटी प्रियंका गाँधी वाड्रा को राष्ट्रीय महासचिव बनाकर पूरे देश का जमकर दौरा कराया गया। ट्रम्प कार्ड के रूप में प्रियंका गाँधी वाड्रा को आगे करने की कांग्रेस की रणनीति, सपा-बसपा और पश्चिमी यूपी में कभी मजबूती का पर्याय रहे रालोद के एक साथ आकर महागठबंधन, शुरू में कम चुनौती नही रही। भाजपा की तरफ से चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह और नरेन्द्र मोदी ने मिलकर मोर्चा संभाला। राजनीति के जानकारों की माने तो शाह ने संगठन की ताकत को बतौर मजबूत हथियार प्रयोग करके बूथस्तर तक ‘किला’ मजबूत किया। बूथ कमेटी से लेकर पन्ना प्रमुख तक बनाए और संवाद-सम्पर्क व बैठक के जरिए मजबूत रणनीति बनाई। अमित शाह ने संगठन का मोर्चा संभाला तो सधी रणनीति के तहत नरेन्द्र मोदी को पीएम के रूप में जनता के बीच पेश किया। एक दिन में मोदी की पांच-पांच रैलियों को सफल अंजाम देकर भाजपा खुद को जनता के बीच मजबूत करने में जुटी रही।
तकरीबन 24 साल पहले बसपा सुप्रीमो मायावती पर लखनऊ के एक गेस्टहाउस में हमला हुआ। मायावती के कपड़े फाड़ दिए गए। अभद्रता भी जमकर की गई थी। यह केस काफी चर्चित रहा। इसे सपाइयों का कारनामा बताया गया। तबसे बसपा मुखिया मायावती और सपा प्रमुख रहे मुलायम सिंह यादव के बीच इस कदर कड़वाहट बढ़ी कि करीब ढाई दशक तक दोनों आमने सामने तक नही हुए। इसे लेकर सपा और बसपा के बीच कड़वाहट के रिश्ते कम होने का नाम नही ले रहे थे। इस बार संसदीय चुनाव में सपा-बसपा के नेता न सिर्फ एक मंच पर आए बल्कि उस कांड में चर्चित रहे मुलायम सिंह यादव, उनके सुपुत्र पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा प्रमुख मायावती एक दूसरे से गले मिले। कई बार मंच साझा करने के दौरान एकजुटता की प्रतिबद्धता भी दोहराई। पूरे चुनाव में बुआ -बबुआ की जोड़ी चर्चा का विषय रही और उनके साथ ने मजबूत गठबंधन तैयार कर दिया। बाद में रालोद के साथ आ जाने से सपा-बसपा और रालोद का महागठबंधन तैयार हो गया।
राहुल का उल्टा पड़ा दांव
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने पूरे देश में घूम घूम कर चौकीदार चोर का नारा लगाया तो बड़ी तादाद में चारो तरफ ‘मैं भी चौकीदार’ की तेज उठती जन-हुंकार को भी राहुल गाँधी और उनके चुनावी रणनीतिकार नही अंदाज सके। पूरे चुनाव तक राहुल गाँधी कई बार सुप्रीम कोर्ट में हाजिर होकर एक तरफ गलती मानते तो इस नारे को मंच से दोहराते भी रहे। उधर, भाजपा के रणनीतिकारों ने चौकीदार पर मजबूत कैंपेन करके इसे नया स्वरूप दे दिया। जनता के बीच तगड़ी मुहिम चलाई गई। भाजपा के नेता-प्रत्याशी एक सधी चाल के तहत चौकीदारी को सुरक्षा, सतर्कता, रखवाली और जिम्मेदारी से जोड़ते हुए लाखों-करोड़ों जनता के बीच पहुंचे। आतंकी हमले सर्जिकल स्ट्राइक, अभिनंदन की वापसी जैसे मसले भी प्रभावी रहे। राहुल गाँधी का दांव उल्टा पड़ रहा था और भाजपा की मुहिम जनता के बीच उसे मजबूत कर रही थी। तेज बनती जा रही चुनावी लहर का असर ये हुआ कि कांग्रेस की गढ़ कही जाने वाली सीट भी उसके कब्जे से निकल गई। राहुल गाँधी खुद अमेठी से चुनाव हार गए। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राजब्बर को भी हार का सामना करना पड़ा। चुनाव में खराब प्रदर्शन के बाद कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजब्बर को इस्तीफा तक देने की नौबत आ गई।
भाजपा में एक बार फिर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और नरेन्द्र मोदी हीरो नंबर वन रहे। शाह-मोदी की जोड़ी इस बार भी हिट रही। देश की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा ने रिस्क भी कम नही लिया था। लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे पार्टी के कई पुराने व दिग्गजों के टिकट काटने के बाद पार्टी के भीतर द्वन्द्व और अन्तर्विरोध बढ़ने की आशंका सामने थी पर यह नही चला। मोदी-शाह की जोड़ी सफल साबित हुई। ‘सबका साथ सबका विकास, मोदी हैतो मुम्किन है’ से लेकर आयेगा तो मोदी ही सरीखे स्लोगन को स्वीकार कर जनता ने वोट के रूप में अपनी सहमति दिखाई। गौरतलब है बायोवेद शोध संस्थान के प्रमुख डॉ. बृजेश कांत द्विवेदी की टिप्पणी – अभी तक सांसद मिलकर प्रधानमन्त्री तय करते थे, इस बार पीएम मोदी के द्वारा सांसद बने। साठ फीसदी से ज्यादा वोटरों ने सांसद प्रत्याशी नही मोदी को वोट दिया। पार्टी, प्रत्याशी और चुनाव निशान सेकेंडरी रहे।
ध्वस्त हुए जातिवादी मठ
सुखद यह रहा कि इस बार यूपी में जातीय समीकरण पूरी तरह ध्वस्त साबित हुए। इसके पहले यहाँ ज्यादातर पार्टियों की पहचान जातीय कट्टरता पर निर्भर थी। दलित जाति के वोट बसपा, पिछड़ी जाति अहीर, मुसलमान के वोट खुलकर समाजवादी पार्टी के साथ दिखा करते थे। इसबार जातिवादी मठ कारगर तरीके से टूटे। बसपा और समाजवादी पार्टी के गढ़ समझे जाने वाली कई सीट पर वोटरों ने भाजपा का साथ दिया। कांग्रेस की परम्परागत सीट रही अमेठी, रायबरेली और सुल्तानपुर में भाजपा ने बेहतर प्रदर्शन किया। कांग्रेस की गढ़ कही जाने वाली अमेठी सीट पर कांग्रेस के अध्यक्ष की हार कम चौकाने वाली नही रही। अमेठी में सपा-बसपा के गठबंधन ने अपना प्रत्याशी न उतारकर राहुल को मजबूत करने की चाल चली। भाजपा ने 51 फीसदी वोट पाने का लक्ष्य रखा। इसके लिए पार्टी की तरफ से कई रणनीति बनाई गई। पिछली बार 2014 के चुनाव में जहाँ भी भाजपा कमजोर रही। वहाँ उस सीट को चिंहित कर प्रवासी कार्यकर्ता लगाए गए। तीन साल तक वे होलटाइमर की तरह क्षेत्र में लगातार काम करते रहे। कॉलसेंटर,सम्पर्क,जनता से सीधे संवाद की रणनीति ने प्रभावी असर दिखाया। यूपी में भाजपा को 62 सीट मिली। पिछले चुनाव में शून्य पर रही बसपा को इसबार दस सीट मिली। समाजवादी पार्टी कमजोर साबित हुई। बिखरे सपा के कुनबे में मुलायम और अखिलेश यादव तो जीते पर बहू डिंपल, धर्मेंद्र यादव और अक्षय को हार का सामना करना पड़ा। सपा से अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ने वाले शिवपाल यादव किसी भी प्रत्याशी को चुनाव न जिताकर खुद भी हार गए। रालोद का भी खाता नही खुल सका। पार्टी प्रमुख अजित सिंह और उनके पुत्र जयंत चौधरी भी हार गए। हारने वालों में बसपा के प्रदेश अध्यक्ष आर एस कुशवाहा भी शामिल रहे। केन्द्रीय मन्त्री मनोज सिन्हा समेत योगी कैबिनेट के सहकारिता मन्त्री मुकुट बिहारी को भी अम्बेडकर नगर से हार का सामना करना पड़ा। खास बात यह रही कि पिछले चुनाव मे यूपी से एक भी मुसलमान सांसद नही थे इस बार 6 सांसद मुसलिम बिरादरी से चुने गए। बहरहाल, इस बार के चुनाव ने जातीय कट्टरता, वंशवाद और लफ़्फ़ाज़ी वाली राजनीति को पूरी तरह खारिज कर सार्थक राजनीति करने का मौका दिया है, जो लोकतन्त्र के लिए शुभ संकेत माना जा सकता है।
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