सिनेमा

साम्प्रदायिक गर्म हवाओं के बीच ‘तूफ़ान’ की जद्दोजहद

 

सिनेमाघरों को मिस करने वाले हमारे निर्माता अब ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर भी शुक्रवार को फिल्म रिलीज़ कर शायद अपनी परम्परा से से जुड़े रहना चाहते हैं। क्योंकि कोरोना ने सिनेमाघरों को भी रुग्ण कर दिया, अधिकतर सिनेमा मृतप्राय हो चुके हैं। जो हैं, वहाँ दर्शक जाना नहीं चाह रहे और जिस प्रकार से ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म की लोकप्रियता बढ़ रही है, वक्त की नब्ज़ को पकड़ते हुए फिल्म इंडस्ट्री ने ओटीटी के विकल्प को स्वीकार करना आरम्भ कर दिया है।

राकेश ओमप्रकाश मेहरा निर्देशित फ़िल्म ‘तूफ़ान’ इसी कड़ी की अगली फिल्म है। जिसमें मुख्य भूमिका में फरहान अख्तर, मृणाल ठाकुर, परेश रावल, के साथ सुप्रिया पाठक, हुसैन दलाल, दर्शन कुमार रावल, और मोहन आगाशे हैं। फिल्म डोंगरी के गुंडे की, बॉक्सर बनने तक के संघर्ष की कहानी है, प्राइम वीडियो ने इसे स्पोर्ट्स जेनर्स  के अंतर्गत रखते हुए रीलिज़ किया है, लेकिन निर्माता निर्देशक का छुपा हुआ संदेश भी है जो नायिका के संवाद से आरम्भ में ही पता चल जाता है, सिस्टर सुप्रिया पाठक के कहने पर कि लेकिन सबके पास चॉइस नई होता है वो कहती है सबके पास चॉइस होता है … हालात ने मेरे को गुंडा बना दिया… क्या बनना है, क्यों बनना है सबको पता होता है’ इसी की भीतरी परत में एक और गूढ़ सन्देश छिपा है कि वसूली के लिए तोड़-फोड़ करने वाला मुस्लिम परिवेश में पला बढ़ा डोंगरी का लड़का भी राष्ट्रीय स्तर का बॉक्सर बन सकता है।

धारावी के मुस्लिम ‘गलीबॉय’ फ़िल्म की कहानी में पढ़े-लिखे और अनपढ़ मुस्लिम युवा लड़कियों और लड़कों का संघर्ष था, जो गीत संगीत की धुन में कहीं दब गया तो इस फिल्म में इनके संघर्ष को खेल का जामा पहनाकर, तथा चिर परिचित प्रेम के फ़ॉर्मूला से सजाया गया है। समस्यायें सतह पर तैरती रहतीं हैं ठोस धरातल पर नहीं आ पाती। मुंबई की बस्ती डोंगरी मूलत: अंडरवर्ल्ड के दाउद, छोटा शकील, हाजी मस्तान, जैसे सरगनाओं लिए मशहूर है, फिल्म का नायक इसी पृष्ठभूमि से आता है, एक मुस्लिम गुंडे लड़के का हिन्दू पढ़ी लिखी डॉक्टर से प्रेम कहानी के माध्यम से एक आदर्श समाज की कल्पना की गयी है। आप कह सकतें हैं ‘कहानी पूरी फ़िल्मी है’।

 

कहानी में प्रेम, सोहार्द्र, भाईचारा, सहिष्णुता, और सहोदर जैसा माहौल निर्मित करने का प्रयास-भर दिखता है क्योंकि सच्चाई दिखाना आसान नहीं रहा होगा। इसलिए कुछ संवाद विशेष रूप से तैयार किये गये प्रतीत होतें हैं, जो बताते हैं कि फिल्म वर्तमान में लव जिहाद की संकल्पना और उससे जुड़े पूर्वाग्रहों या दुराग्रहों से टकराना चाहती है। लेकिन यह टकराहट डाइवर्ट हो जाती ही या कर दी जाती है। शादीशुदा मुस्लिम लड़के और हिन्दू लड़की को लोग घर देने में हिचकते हैं, उन्हें नाम बदलने की सलाह देतें हैं जब उन्हें मकान नहीं मिलता तो पुराने ढंग से, साम्प्रदायिक सद्भावना को बनाने के अंदाज़ में ही ईसाई सिस्टर उन्हें घर देती है।

मोहन आगाशे द्वारा बोला गया ‘धरम बहुत अलग है, धर्म बहुत बड़ा शब्द है, धर्म इंसानियत का होता है’ संवाद बहुत बड़ी बात कह रहा है लेकिन आगे कहीं परिपक्व नहीं हो पाता, नाना प्रभु के संवाद कहीं-कहीं कट्टरता को दर्शाते हैं, जो सीधे सीधे एक कौम पर निशाना साधते है आज हिन्दू थोड़े जागरूक हो गये तुम्हारे को तकलीफ होने लगी…तुम्हारी वजह से हिन्दू धर्म संकट में आ गया..पहले असुर थे अब ये आतंकवादी’ लेकिन यही नाना प्रभु वास्तव में बोक्सिंग को अपना धर्म मानता है, एक पत्रकार को जवाब देते हुए कहता हैये मेरा बच्चा कहाँ से आया ये जाने दीजिये, ये कहाँ जाएगा वो देखे ’नाना अज़ीज़ के बॉक्सिंग की कद्र करता है तो नाना प्रभु की इज्जत करने के क्रम में अज़ीज़ अली यानी अज्जू भाई भी ‘जय हनुमान’ बोलते हुए हिचकता नहीं।

कहानी की शुरुआत ताकत के दुरुपयोग तोड़फोड़ से होती है। उसकी ताकत को देख जिसे नाना प्रभु अपने शिष्य से कहते हैं, ‘खाली ताकत है दिमाग नई है फुग्गा है उड़ा’ फिर बाद में अज़ीज़ से कहते हैं ‘ताकत का सदुपयोग कर’ फिल्म शायद उनकी कौम को सन्देश देना चाहती है कि अपनी शक्ति प्रतिभा आदि का सदुपयोग करो तो सम्मान मिलेगा। बॉक्सर की ट्रेनिंग तो शुरू हो जाती है अज़ीज़ कई मैच भी जीतता है लेकिन आधे सफर में नाना प्रभु को पता चलता है कि अज़ीज़ उसी की बेटी से प्यार कर रहा है, और उसकी बेटी भी यही चाहती है उसका खून खौल जाता है, और गालियाँ देकर निकाल देता है उधर बेटी को समझाता है कि इन लोगों का खून खराब है तो बेटी कहती है आपका दिमाग ख़राब है’ इसलिए लोगों को आपत्ति भी हुई कि फिल्म लव जिहाद  को बढ़ावा दे रही है वे फिल्म के बॉयकाट की मांग कर रहे हैं।

इस तरह की संभावनाएं लाजिमी थी, इसी डर से इस विषय को निर्माता निर्देशक विस्तार न दे पाए। वर्तमान में जिन साम्प्रदायिक गर्म हवाओं से देश जूझ उनके बीच रंग दे बसंती, दिल्ली 6, भाग मिल्खा भाग जैसे फ़िल्मों बनाने वाले राकेश ओमप्रकाश प्रकाश मेहरा भी ‘तूफ़ान का-सा’ असर न दे पाये, यह चिंता का विषय है। एक साथ कई नाव पर सवार होने के कारण वे किसी विषय में नयापन न दे पाए, स्पोर्ट्स जेनर की होकर भी कोई उत्साहित ऊर्जा यहाँ नहीं दिखती, उसे हम भाग मिल्खा भाग में दोनों की जोड़ी में दर्शक देख चुके थे।

कहानी प्रेरक हो सकती है प्रभावशाली नहीं। खेलों में राष्ट्रीय स्तर तक फैले भ्रष्टाचार को भी रेखांकित किया गया है। जीतने का दबाब और महत्वाकांक्षायें खेल पर हावी हो रही हैं, ओलम्पिक पदक विजेता पहलवान सुशील कुमार का केस ज्यादा पुराना नहीं, खेल की भावना ही समाप्त हो चुकी है, इसके पहले ‘मुक्काबाज़’ फिल्म में जातिगत भेदभाव दिखया गया था। शायद खिलाडी के रूप में धैर्य, लगन, परिश्रम और जज्बा-जूनून जो अज़ीज़ में है फिल्म उसे भी प्रस्तुत कर प्रेरणा देना चाहती है, कितनी सफल हुई आप देखकर जान पायेंगे।

फिल्म में सभी कलाकारों ने ईमानदारी से अपनी भूमिकाओं को गति दी है, गीत संगीत सामान्य है, रैप गीत की कुछ पंक्तियाँ सटायर हैं – पहली शांति थी, अबी क्रांति है, जो पब्लिक जानती नहीं थी, अबी मानती है, असली से नकली को छानती है’ या ‘जंगल के कानून को जंगली मांगता है, बटन दबाने को भी ऊँगली मानता है’ ख़ुशी में भी, दुःख में भी, शहनाई का बहुत सुंदर प्रयोग हुआ है, बहुत दिनों बाद हृदय को सुकून देनी वाली शहनाई सुनने को मिलेंगी, कई संवाद अच्छे बन पड़े हैं- डोंगरी का छोकरा…मोहम्मडन है …तो क्या फर्क पड़ता है अगर पोटेंशल है तो  हम जानतें हैं भारत में प्रतिभाएं जात-पांत, धर्म-सम्प्रदाय में दब जाती हैं और इसलिए क्वालिटी फल आदि की तरह प्रतिभाएं या तो पलायन कर जाती हैं या टूटकर बिखर जाती हैं या सदुपयोग नहीं कर पाती क्योंकि उनके पास चॉइस नहीं होती।

मुहब्बत का चिंगम मत फुला फटेगा तो अपने मुँह पर लाफा आएगा…। जान नही देने का उसे प्यार दे, इज्जत है न… इज्जत है न? तो मामला इज्जत से ही दफना दे पतली गली से निकल जा नहीं तो फंसेगा’ भारतीय समाज में आज भी प्रेम चिंगम की तरह, पहले मीठी फिर कड़वी, अंत में फेंकना ही पड़ता है, उस पर उसे गुब्बारे की तरह फुलाकर एंजॉय करोगे तो भी कोई फायदा नहीं। बड़े लोग समझाते हैं कि प्रेम से बड़ी इज्जत होती है ‘ओनर किलिंग’ से कौन वाकिफ नहीं आज।

बॉक्सिंग तेरा धर्म है… इट्स गोइंग डर्टी पर्सनल बन गया है ‘ आज यह हर क्षेत्र में डर्टी खेल रचा जा रहा है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा फिल्म में अज़ीज़ को, नाना को, और हम दर्शकों को मानो सोचने समझने ओर विचार करने के लिए मानो ‘चॉइस’ दे रहें हैं, जीवन का धर्म या दायित्व हिन्दू मुसलमान नहीं हैं, बॉक्सिंग जिसे मोहन आगाशे ने ‘धर्म’ कहा वहन वे धर्म को संकीर्ण परिभाषाओं से आज़ाद करने का प्रयास है। हमें एक बॉक्सर को जीतते हुए, हारते हुए फिर जीतते हुए देखना है मानव सुलभ कमजोरियां मानव की ही है, धर्म विशेष की नहीं। फिल्म देखकर यदि यह भाव वैचारिकता में परिपक्व हो तो फिल्म आपके लिए सफल है।

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रक्षा गीता

लेखिका कालिंदी महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक आचार्य हैं। सम्पर्क +919311192384, rakshageeta14@gmail.com
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