चन्द्रबली सिंह का व्यक्तित्व और कृतित्व हिन्दी लेखकों से छिपा नहीं है। वे हिन्दी के शिखरपुरूष रामविलास शर्मा से लेकर नामवर सिंह तक के ज्ञानगुरू रहे हैं। हिन्दी की वैज्ञानिक आलोचना के निर्माण में उनका बहुमूल्य योगदान रहा है। उनकी मेधा के सामने डॉ रामविलास शर्मा से लेकर नामवर सिंह तक नतमस्तक होते रहे हैं। हिन्दी के लेखक जब भी गंभीर संकट में फंसे हैं उनके पास गये हैं और उनके द्वारा दिशा निर्देश पाते रहे हैं। चन्द्रबली सिंह प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ में शिखर नेतृत्व का हिस्सा रहे। वे प्रगतिवादी-जनवादी आलोचना को निरंतर दिशा देते रहे।
जीवनधर्मी विवेक और जनधर्मी आलोचकीय चेतना के लिए जाने-जाने वाले चंद्रबली जी की पहली पुस्तक 1956 में ‘लोक दृष्टि और हिन्दी साहित्य’ (आलोचनात्मक निबंधों का संकलन) प्रकाशित हुई। 46 साल बाद दूसरी पुस्तक ‘आलोचना का जनपक्ष’ (2003 ) प्रकाशित हुई। नोबेल पुरस्कार विजेता चिली के विश्वविख्यात कवि पाब्लो नेरुदा (1904-1973) के जन्मशती वर्ष में उनके द्वारा किया गया अनुवाद ‘पाब्लो नेरुदा कविता संचयन’ साहित्य अकादमी से 2004 में छपकर आया। इस अनुवाद का व्यापक स्वागत हुआ। चर्चित आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने लिखा है कि “ऐसे काव्यात्मक स्तबक के लिये हिन्दी जगत अपने वरिष्ठ जनवादी समालोचक के प्रति कृतज्ञ रहेगा।”
पाब्लो नेरुदा के अलावा उन्होंने नाजिम हिकमत, वाल्ट ह्विटमैन, एमिली डिकिन्सन, ब्रेख्त, मायकोव्स्की, राबर्ट फ्रास्ट जैसे विख्यात विशिष्ट कवियों का भी अनुवाद किया है। अपने शुरुआती लेखकीय जीवन से ही वे कवियों की कृतियों एवं विविध काव्य-धाराओं पर लिखते रहे हैं। चंद्रबली सिंह की आलोचकीय दृष्टि को प्रख्यात समालोचक (स्व.) रामविलास शर्मा बखूबी महत्व देते थे। रामविलास शर्मा ने अपनी एक किताब ‘भूतपूर्व आलोचक’ चन्द्रबली सिंह को समर्पित की है। इस समर्पण में स्नेह पूर्वक शिकायत भी है कि चन्द्रबली सिंह अपनी प्रतिभा के कारण कहीं ज्यादा रच सकते थे। यह पीड़ा चन्द्रबली जी को भी है कि आलोचना की उनकी कम से कम बीस किताबें होनी चाहिए थी।
प्रमोद पांडेय के अनुसार ‘रामविलास शर्मा के निधन के बाद उनकी बरसी पर याद करने के बहाने उनके पूरे अवदान को ही संदेह के घेरे में रखे जाने के ‘आलोचना’ समय में उन्होंने कहा था कि आज रामविलास जी पर चारों ओर से हमले हो रहे हैं। एक तरफ से दिखाया जा रहा है कि उनका सारा लेखन मार्क्सवाद विरोधी रहा है। उनकी नीयत में ही संदेह प्रकट किया गया है। तमाम लोग उन पर लिख रहे हैं और लोग सोच रहे हैं कि चंद्रबली चुप क्यों हैं। मैं जवाब दूंगा। उनका मानना है कि डॉ. शर्मा की बहुत सी मान्यताओं को हम माने या न मानें लेकिन वे भारत में समाजवादी विचारों के लिए जीवन के अंतिम दिनों तक संघर्ष कर रहे थे। इसके बारे में संदेह व्यक्त नहीं किया जा सकता।
ऐसा भी नहीं कि वह डॉ. शर्मा की सभी मान्यताओं से सहमत रहे हों। उन्होंने एक बेहद कड़ा असहमतिपरक-लेख रामविलास शर्मा पर लिखा है। क्योंकि ‘विचारों से कोई समझौता करना मैंने कभी नहीं सीखा।’ इस विचलन के दौर में वे संघर्षशील वैचारिकता के साथ अडिग खड़े हैं। उनका मानना रहा है कि ‘तुलसीदास के जाके प्रिय न राम बैदेही’ की तरह मेरी वैचारिक दृढ़ता और प्रबल होती जा रही है। बाबरी विध्वंस पर उन्होंने कहा था कि स्वयं मनुष्यता ने सारी हार-जीत देखी है। वह कहते हैं कि ‘वर्तमान के यथार्थ का अगर हमने सामना करना नहीं सीखा तो हम भविष्य नहीं बना सकते।’
प्रगतिशील आलोचना के स्थापत्य में उनके अवदान का जिक्र करते हुए वरिष्ठ समीक्षक मुरली मनोहर प्रसाद ने लिखा है कि ‘एक जमाना था, जब रामविलास शर्मा के बाद उन्हीं का नाम लिया जाता था और उस जमाने के लोग आज भी यह बताते हैं कि सृजनात्मक साहित्य के मर्म को पकडऩे और कलात्मक संवेदना की व्याख्या का जैसा औजार उनके पास रहा है वैसा उनके समकालीनों में किसी के पास नहीं रहा है।’ प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नकेनवाद, नयी कविता, मुक्तिबोध, नेमीचंद जैन, गिरिजाकुमार माथुर, अज्ञेय, नागार्जुन, त्रिलोचन आदि पर उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियां, निबंध और संदर्भ इसकी पुष्टि करते हैं। उनकी राय है कि हमारा काम यह है कि कवियों में जो जनवादी तत्व देखें उसे हम विकसित करने की कोशिश करें और जो जनविरोधी हैं उनके खिलाफ आवाज उठायें।
हिन्दी के प्रखर मार्क्सवादी आलोचक चंद्रबली सिंह का जन्म 20 अप्रैल 1924 को गाजीपुर जिले के रानीपुर गांव में जो कि उनकी ननिहाल था हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी में हुई और फिर बी ए व एम ए (अंग्रेजी, 1944) इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया। उसके बाद वे बलवंत राजपूत कालेज आगरा में और बाद में वाराणसी के ही उदयप्रताप कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे, 1984 में सेवामुक्त हो कर लेखन और संगठनात्मक कार्य में सक्रिय भागीदारी करने लगे। 1982 में जनवादी लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में भैरव प्रसाद गुप्त अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे और चंद्रबली सिंह महासचिव। बाद में वे उसके अध्यक्ष हो गये थे। आलोचना की उनकी दो पुस्तकें, लोकदृष्टि और हिन्दी साहित्य और आलोचना का जनपक्ष काफी सराही गयीं।
वे वाराणसी से प्रकाशित अखबार आज के रविवारीय संस्करण में साहित्यिक कालम में दस साल तक लेखन करते रहे, इसके अलावा हंस, पारिजात, नयी चेतना, नया पथ, स्वाधीनता आदि अपने समय की साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार लेखन करते रहे। एक अनुवादक के रूप में भी उनके काम की बहुत सराहना हुई । उनके द्वारा पाब्लो नेरूदा की कविताओं के अनुवाद काएक संग्रह साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया, नाजिम हिकमत की कविताओं का अनुवाद, हाथ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।
वाल्ट व्हिटमैन और एमिली डिकिन्सन की चुनी हुई कविताओं के अनुवाद संचयन सीरीज में वाणी प्रकाशन ने छापे। इसके अलावा उन्होंने ब्रेख्त, मायकोव्स्की, आदि की हज़ारों पृष्ठों में फैली हुई कविताओं के हिन्दी रूपांतर किये थे, दुर्भाग्य से इनमें से अधिकांश अप्रकाशित हैं। इसके अलावा नागरी प्रचारिणीसभा के विश्वकोश की अंग्रेजी साहित्य से सम्बन्धित सभी प्रविष्टियां चंद्रबली सिंह ने ही लिखी थीं।
सन 2009 में साथी शिवराम के साथ बनारस में जब मैं उनके आवास पर पहुंचा और अपना परिचय दिया तो हमें देखकर वह बहुत प्रसन्न हुए। उन दिनों वे अस्वस्थ थे और बनारस में अपने घर पर ही विश्राम कर रहे थे। पर हमसे उन्होंने अनेक मुद्दों पर विस्तार से अपनी बात रखी। जो सार रूप में हमने नोट कर ली। तब उनकी मुख्य चिंता वाम सांस्कृतिक संगठनों खासकर लेखक संगठनों को लेकर थी।
इस अनौपचारिक बातचीत में चन्द्रबली सिंह ने जो कहा वह आज भी प्रासंगिक है। हिन्दी के लेखक संगठनों की उदासीनता और बेगानेपन के खिलाफ यह तल्ख़ टिप्पणी है। उन्होंने कहा ”लेखक संगठन जो काम कर रहे हैं, बहुत संतोषजनक तो नहीं है, उनका अस्तित्व औपचारिक हो गया है।” हिन्दी लेखक संगठनों के बारे में यह टिप्पणी ऐसे समय में आयी है जब हिन्दी के लेखक सबसे ज्यादा असहाय महसूस कर रहे हैं। लेखक संगठनों की निष्क्रियता, विचारधारात्मक उदासीनता और स्थानीय गुटबंदियां चरमोत्कर्ष पर हैं। अब लेखक संगठन प्रतीकात्मक रूप में काम कर रहे हैं। लेखक संगठन प्रतीक क्यों बनकर रह गये हैं? औपचारिक संगठन बनकर क्यों रह गये हैं, उनके अंदर कोई वैचारिक और सर्जनात्मक सरगर्मी नजर क्यों नहीं आती?
हिन्दी में तीन बडे लेखक संगठन हैं, प्रगतिशील लेखक संगठन, जनवादी लेखक संगठन, जनसंस्कृति मंच। इनके अलावा और अनेक स्थानीय स्तर के लेखक संगठन हैं। लेकिन तीन बडे संगठनों में किसी भी किस्म का समन्वय नहीं है। इन संगठनों की कार्यप्रणाली में इनके साथ जुडे राजनीतिक दलों की राजनीतिक संकीर्णताएं घुस आयी हैं। इस प्रसंग में चन्द्रबली सिंह ने कहा “हाँ कुछ कोऑर्डिनेशन राजनीतिक तौर पर हुआ है, पर उनकी राजनीति से जुड़े जो सांस्कृतिक संगठन हैं उनमें कोई समन्वय नहीं हुआ है। जहाँ तक साहित्यिक मतभेदों का सवाल है वह तो हर बौद्धिक संगठन में होना चाहिए।… लेखकों का संगठन राजनैतिक संगठन की तर्ज पर नहीं चल सकता।” आगे बड़ी ही प्रासंगिक दिक्कत की ओर ध्यान खींचते हुए चन्द्रबली जी ने कहा “राजनैतिक पार्टी में तो डेमोक्रेटिक सेन्ट्रलिज्म के नाम पर जो तय हो गया, वह हो गया पर लेखक संगठनों में तो यह नहीं हो सकता कि फतवा दे दें कि जो ऊपर तय हो गया तो हो गया।
यहाँ दिक्कत तो है। सम्प्रति कोई ऐसी संस्था नहीं है कि समन्वय की ओर बढ़ सके। हम तो यह महसूस करते हैं कि इन संगठनों में जो नेतृत्व है, वह नेतृत्व भी जो विचार-विमर्श करना चाहिए, वह नहीं करता है। पार्टी को इतनी फुर्सत नहीं है कि इन समस्याओं की ओर ध्यान दें। चन्द्रबली जी ने एक रहस्योद्घाटन यह किया कि लेखक संगठनों की समन्वय समिति बने, यह प्रस्ताव नामवर सिंह ने दिया था। चन्द्रबली जी भी उससे सहमत थे। लेकिन पता नहीं क्यों यह प्रस्ताव अमल में नहीं आ पाया। चन्द्रबली जी ने कहा, ” मैंने समन्वय समिति का, नामवर ने जो प्रस्ताव रखा था कि यदि एक न हों सकें तो समन्वय समिति ही बन जाए। पार्टियां जो हैं उनमें तो समन्वय समिति बनी ही है। पर लेखक संगठन व्यवहार में यह स्वीकार नहीं करते कि वे पार्टियों से जुडे हैं। समन्वय की प्रक्रिया शुरू करने के लिए जब तक दबाव नहीं बनाया जाएगा तब तक यह संभव नहीं है। बिना दबाव के यह हो नहीं पाएगा।”
पुराने जमाने और आज के जमाने के लेखक संगठनों की बहसों की तुलना करते हुए चन्द्रबली जी ने कहा ”ऐसा लगता नहीं है कि जैसी पहले मोर्चाबन्दी हुई थी एक जमाने में, वैसी अब होती हो। वैसी अब दिखाई नहीं देती। वैसा वैचारिक संघर्ष दिखाई नहीं देता। गड्ड-मड्ड की स्थिति है। खास तौर से जो पत्र- पत्रिकाएँ निकलती हैं उनमें उस तरह की स्पष्टता और मोर्चाबन्दी नजर नहीं आती। कभी -कभी ऐसा लगता है कि लेखक मंच पर भी व्यक्तियों के (व्यक्तिवाद) साथ आता है। उसके सारे गुण और दोष इन संगठनों में वह ग्रहण करता है। लीडरशिप के नाम पर लेखकों में एक सैक्टेरियन दृष्टिकोण पनपता है। पतनशील प्रवृत्तियों से कोई संघर्ष नहीं है। ये प्रवृत्तियां उनमें भी मौजूद रहती हैं।”
उन्होंने एक बडी ही मार्के की बात कही। “मैं तो यहाँ जलेस से कहता हूँ, जिसमें ज्यादातर कवि ही हैं। वे कविता सुना जाते हैं। उनसे कहता हूँ कि जनता के बीच में जाओ, उन्हें अपनी कविताएं सुनाओ। फिर देखो क्या प्रतिक्रिया होती है। जनता समझती है या नहीं। पाब्लो नेरूदा जैसा कवि जनता के बीच जाकर कविता सुनाता था। जनता को उसकी कविताएं याद थीं। जनता को जितना मूर्ख हम समझते हैं वह उतनी मूर्ख नहीं है। यदि वह तुलसी और कबीर को समझ सकती है तो तुम्हें भी तो समझ सकती है। बशर्ते उसकी भाषा में, भावों को व्यक्त किया जाए।”
चन्द्रबली जी ने आगे कहा ” कहते तो हैं अपने को प्रगतिशील और जनवादी, पर कहीं न कहीं कलावादियों का प्रभाव उन पर है। आज के शीर्षस्थ जो आलोचक हैं, नामवरसिंह, उनके जो प्रतिमान हैं, वे सारे प्रतिमान लेते हैं, विजयनारायण देव साही से।” चन्द्रबली जी ने एक अन्य बात कही ” लेखक अब डर गये हैं।” लेखकों में यह डर कहाँ से आया? प्रगतिशील लेखकों का वैचारिक जुझारूपन कहाँ गायब हो गया, आज वे अपने सपनों और विचारों के लिए तल्खी के साथ लिखते क्यों नहीं हैं ? लेखक अपने विचारों के प्रति जब तक जुझारू नहीं होगा तब तक स्थिति बदलने वाली नहीं है। लेखकों को अपना डर त्यागना होगा, अपने लेखन और व्यक्तित्व को निहित स्वार्थों के दायरे के बाहर लाकर वैचारिक संघर्ष करना होगा।
बुद्धिजीवियों को दलीय विचारधारा के फ्रेम के बाहर निकलकर मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में अपने विचारधारात्मक सवालों को नये सिरे से खोलना होगा। हिन्दी के बुद्धिजीवियों में एक ओर तो डर है तो दूसरी ओर अवसरवाद गहरी जडें जमाए बैठा है। हम अपने लेखन से किसी को नाराज नहीं करना चाहते। लेखक के नाते हमें यह याद रखना होगा, कि लेखक का काम दिल बहलाना नहीं है। लेखन की दिल बहलाने वाली भूमिका में अगर हमारा लेखन चला जाता है तो जाने-अनजाने दरबारी सभ्यता और संस्कृति का गुलाम बनकर रह जाएगा। दिल बहलाने वाले साहित्य में जीवन की गंध, दुख, दर्द और प्रतिवाद के स्वर व्यक्त नहीं होते। दिल बहलाने का काम लेखक का नहीं है। दिल बहलाने के लिए खिलौने बाजार में मिलते हैं। हम बाजार जाएं अपने लिए दिल बहलाने का सामान खरीद लाएं और घर बैठे आनंद लें। लेखक का काम आम लोगों को बेचैन करना और स्वयं भी बेचैन रहना, अपना डर निकालना साथ समाज का भी डर निकालना है। लेखक किसी एक का नहीं होता वह सबका होता है कठोरता, निर्भीकता और ममता से भरा होता है।
हिन्दी के महत्वपूर्ण मार्क्सवादी लेखक और आलोचक चन्द्रबली सिंह से शिवराम और शैलेन्द्र चौहान की बातचीत के आधार पर यह सारांश और टिप्पणी दी गयी है- यह बातचीत बनारस में सन 2009 में चंद्रबली जी के में घर पर हुई थी। चंद्रबली सिंह का वाराणसी के त्रिमूर्ति अस्पताल में 23 मई 2011 को देहावसान हुआ। दुर्योग से शिवराम भी अब इस दुनिया में नहीं हैं।
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