“गुलाब ख्व़ाब दवा ज़हर जाम क्या क्या है,
मैं आ गया हूँ बता इंतजाम क्या क्या है”
किसे पता था कि इंदौर की सड़कों पर स्कूल के दिनों में साइन बोर्ड लिखते- लिखते ‘राहत कुरैशी’ एक दिन मशहूर शायर ‘राहत इंदौरी’ बन जायेंगे। वैसे भी इंदौर की मिट्टी साहित्य, कला, संगीत और पत्रकारिता की दृष्टि से बहुत उपजाऊ रही है। कभी कपड़ा मिलों और ट्रेड यूनियनों का गढ़ रहा इंदौर एमएफ हुसैन और विष्णु चिंचालकर के कारण भी जाना जाता है। राहत ने तो ‘इन्दौरी’ शब्द के द्वारा उसे अपने नाम के साथ ही जोड़ लिया था।
11 अगस्त मंगलवार की वो सुबह कुछ अलग थी। ट्विटर पर राहत इन्दौरी ने ट्वीट कर अपने चाहने वालों को ख़बर दी कि “कोरोना से संक्रमित हूँ। हाल लेने के लिए फ़ोन मत कीजियेगा। मैं हाल खुद सोशल मीडिया पर देता रहूँगा। लेकिन शाम को उसी ट्विटर से खबर आई कि राहत नहीं रहे।”
उनके जाने से मानो उर्दू ज़ुबान पर ख़ामोशी छा गयी। राहत एक ऐसी आवाज़ थे जिसे सुनना खुद को राहत देने जैसा था। मीडिया के सामाजिक मंच उनकी लोकप्रियता का गवाह बने। शायद ही कोई संजीदा व्यक्ति ऐसा रहा होगा जिसे उनके जाने का मलाल ना हो। उसे मलाल नहीं लगाव भी कह सकते हैं।
राहत साहब कहते थे कि गजल को पढ़ने, पढ़ाने, समझने और लिखने के लिए आदमी को थोड़ा दीवाना और आशिक मिजाज़ होना जरूरी है। इसलिए राहत खुद भी मंच पर झूम कर शायरी पढ़ा करते थे। लोगों को उनके अंदाज़ में व्यंग्य के साथ तल्खी नज़र आती थी। उनके शेर में बहुत विविधता रही है। उन्होंने देश, समाज, राजनीति, धर्म आदि अनेक ऐसे मुद्दों पर शायरी की जिनपर कोई सोचता तो है लेकिन क़लम नहीं चलाना चाहता। क़लम की ताक़त से नहीं, धारदार लेखनी से उन्होंने दुनिया में अपने प्रशंसक जुटाए थे।
उनकी स्मृति के बारे में एक किस्सा प्रचलित है। जब उनकी मुलाकात मशहूर शायर “जां निसार अख्तर” से हुई तो उन्होंने उनके आगे अपने शायर बनने की इच्छा को ज़ाहिर किया। अख्तर साहब ने उन्हें कहा कि जाओ 5 हजार शेर ज़ुबानी याद करके आओ। उन्होंने कहा ‘ये तो मुझे पहले से ही याद है।’ अख्तर साहब ने कहा ‘बस फिर क्या है! मंच सम्भालो। उस दिन से राहत ने अपनी आवाज़ और अंदाज़ के जलवे बिखेरने शुरू कर दिए थे।
उनकी शायरी और खुला अंदाज़ बहुत से हिन्दुवादियों के दिलों पर चोट कर देती थी। इसलिए लोग उन्हें जिहादी तक कहने लगे थे। उन्हीं के नाम उन्होंने लिखा था ” मैं मर जाऊं तो मेरी एक पहचान लिख देना, लहू से मेरी पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना” जैसे शब्द बोलकर वह ललकारते भी थे।
राहत साहब की शायरी सत्ता के प्रेमियों को अन्दर तक झकझोर कर रख देती हैं। सीएए के समय उनकी एक शायरी
‘लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में, यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है’‘
सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में, किसी के बाप का हिन्दुस्तान थोड़ी है.’
खूब लोकप्रिय रही थी।
वे दरअसल याद दिलाते हैं कि हिन्दुस्तान नाम का यह मुल्क किसी एक का मकान नहीं है। आप इसे अपने एक के हिसाब से नहीं चला सकते। यहाँ सबका लहू शामिल है। यानी आप एक घर में आग नहीं लगा रहे, पूरे हिन्दुस्तान को लपटों के हवाले कर रहे हैं।
एक दी हुई विधा की बंदिश का सम्मान करते हुए, उसमें अपना रंग जोड़ते हुए जो शायर अपनी बात कहता है, वह बड़ा होता है।यह गुण राहत इन्दौरी में खूब था। इसलिए उन्होंने लिखा भी है-
“शाखों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम
आँधी से कोई कह दे के औकात में रहे”
राहत इंदौरी के शेर हर लफ्ज़ के साथ मोहब्बत की नई शुरुआत करते हैं, यही नहीं वो अपनी ग़ज़लों के ज़रिए हस्तक्षेप भी करते हैं। व्यवस्था को आइना भी दिखाते हैं।
“तूफानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करों
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो,तैर कर दरिया पार करो”
साइनबोर्ड लिखने से शुरुआत करने के साथ- साथ वे उर्दू के प्रोफेसर भी रहे। केवल शायरी ही नहीं बॉलीवुड में भी राहत ने अपना लोहा मनवाया। ‘बंदूक की गोली’ जैसे घर करने वाली शायरियाँ लिखने वाले राहत ने “तुमसा कोई प्यारा, कोई मासूम नहीं है” जैसे रोमांचित कर देने वाले कई गाने लिखे हैं। उनके लिखे गीत युवाओं में काफी चर्चित रहे। लेकिन यह भी एक करिश्मा है कि निदा फ़ाज़ली या कैफ़ी आज़मी की तरह उनकी पहली पहचान फ़िल्मी गीतकार की नहीं रही। राहत इंदौरी का नाम लेते ही सबको एक शायर का ही ख़याल आता है।
मज़े की बात यह कि राहत ने इंदौर की हल्की-फुल्की समस्याओं पर भी शायरी की। लेकिन यह इंदौर उनको अपने मुल्क से जोड़ता था, सारी दुनिया से जोड़ता था और वे सबकुछ भूल जाते, अपनी हिन्दुस्तानी पहचान नहीं भूलते थे। वह हमेशा यही कहते थे-
“ए वतन इक रोज़ तेरी ख़ाक में खो जायेंगे,
सो जायेंगे मरके भी रिश्ता नहीं टूटेगा हिन्दुस्तान से, ईमान से”
आने वाली पीढियाँ कैन वर्षों तक उनकी इस लेखनी की मुरीद बनी रहेगी।
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