(भाग 2)
एक श्रेणी के बतौर ‘भूमिहारवाद’ या भूमिहार विरोध बिहार में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से ही प्रचलन में रहा है। जब आजादी के बाद श्रीकृष्ण सिंह बिहार के पहले मुख्यमन्त्री बने, उनके कार्यकाल को भी ‘‘भूमिहार राज’’ कह कर आरोपित किया गया। ये आरोप और किसी ने नहीं बल्कि जयप्रकाश नारायण सरीखे बड़े नेता ने लगाया था। बिहार के तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्रीकृष्ण सिंह को लिखी अपनी चिट्ठी में जयप्रकाश नारायण ने कहा ‘‘ आपकी सरकार ‘ भूमिहार राज’ के नाम से विख्यात है और अनुग्रह बाबू राजपूतों के नेता माने जाते हैं। जब भी आपलोग आम जनता की तरफ बोलते हैं आप जातिवाद की घोर निंदा करते हैं परन्तु आपलोग इस बुराई की जड़ की तरफ ध्यान नहीं देते हैं।’’ जयप्रकाश नारायण आगे कहते हैं ‘‘यह अत्यन्त ही स्पष्ट है कि यदि आप जातिवाद को समूल समाप्त करना चाहते हैं तो आपको यह निर्णय लेना होगा कि आपकी ही जाति का कोई व्यक्ति आपके बाद मुख्यमन्त्री न बनें। ऐसा नहीं है कि बिहार में महेश बाबू (महेश नारायण सिन्हा) के अतिरिक्त कोई योग्य व्यक्ति है ही नहीं। वास्तव में आज योग्यता से अधिक एकता की आवश्यकता है।’’
जयप्रकाश नारायण के इन आरोपों का श्रीकृष्ण सिंह ने बिन्दुवार उत्तर दिया। श्रीकृष्ण सिंह ने जे.पी की चिट्ठी के प्रत्युत्तर में कहा ‘‘आजकल यह प्रचलन बन चुका है कि जो व्यक्ति जातिवाद से जितना अधिक ग्रसित होता है उतना ही अधिक वह इसके लिए दूसरों की निंदा करता है। ‘भूमिहार राज’ का नारा भी इन्हीं लोगों द्वारा दिया गया है जो जातिवाद में पूर्ण रूप में डूबे हुए हैं।’’ इसे स्पष्ट करते हुए श्रीकृष्ण सिंह ने कहा ‘‘ मेरे बाद कौन मुख्यमन्त्री पद को ग्रहण करेगा यह निर्णय लेने का अधिकार केवल उनलोगों को है जो इससे संबंधित हैं। मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा कि महेश (महेश नारायण सिन्हा) को मुख्यमन्त्री बनाया जाए। ऐसा प्रतीत होता है कि जिस रोग से हमारे कुछ कांग्रेसी ग्रसित हैं उसका प्रभाव आप पर भी हो गया है। मैं नहीं जानता हूँ कि यह किसकी विचारधारा है कि मैं महेश बाबू को मुख्यमन्त्री बनाना चाहता हूँ। मैं यह दावा कर सकता हूँ कि मैंने खुले रूप से या गुप्त रूप से ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिससे यह प्रदर्शित हो कि मैं महेश बाबू को मुख्यमन्त्री के रूप में स्थापित करना चाहता हॅं। मुझे किसी भी व्यक्ति विशेष ने मुझे मुख्यमन्त्री नहीं बनाया है। राजेंद्र बाबू की आत्मकथा में इसका उल्लेख है कि 1937 में किसने बहुमत को नेतृत्व किया इसके बावजूद मुख्यमन्त्री पद के लिए मुझे चुने जाने हेतु आप अनेकानेक कारण खोजना चाहते हैं। यहां तक कि भविष्य में भी उसी व्यक्ति का चुनाव इस पद के लिए होगा जिसके पास पूर्ण बहुमत होगा। आपने प्रजातन्त्र के सिद्धांतों का उल्लेख किया। 1937 में किसने बहुमत का नेतृत्व किया? इसी प्रजातन्त्र की यह मांग है कि लोगों को बहुमत के निर्णय को स्वीकार करते हुए अल्पमत के प्रचलन का भी अभ्यस्त होना चाहिए। यदि भविष्य में किसी निश्चित व्यक्ति के लिए इस प्रकार का निर्णय लिया जाता है कि इस व्यक्ति विशेष को मुख्यमन्त्री का पद नहीं दिया जाना चाहिए तो हम या आप यह कौन हैं कि मेरे बाद किसी जाति विशेष को मुख्यमन्त्री नहीं बनना चाहिए? तो इसमें राज्य का कल्याण निहित नहीं है। यदि ऐसा होता है तो यह अन्याय होगा। मुख्यमन्त्री के औचित्य-अनौचित्य पर विचार विमर्ष करते हुए, हमें उस जाति विशेष को नजरअंदाज करना पड़ेगा जिससे उनका सम्बन्ध है, दूसरी तरफ हमें यह भी देखना होगा कि एक मुख्यमन्त्री को जनता के निर्णय पर भी खरा और सत्य सिद्ध होना चाहिए। मेरा यह विश्वास है कि आपके परामर्श का अनुसरण करने के घातक परिणाम होंगे। ’’
श्रीकृष्ण सिंह ने इस तथ्य पर विशेष बल दिया कि भूमिहारों को कोई भी विशेष समर्थन नहीं दिया गया है और न ही उनके पक्ष में कोई फैसला दिया गया है। उन्होंने कांग्रेस द्वारा कराए गए एक जांच कमीशन का उल्लेख किया जिसने जांच के बाद सभी आरोपों को निराधार पाया। श्रीकृष्ण सिंह ने जयप्रकाश नारायण पर यह भी आरोप लगाया कि आपने जमींदार महेश प्रसाद सिन्हा जैसे भूपति को नहीं बल्कि मुझे हराने में अपना पूरा जोर लगाया।
जब जयप्रकाश नारायण ये बातें कह रहे थे तब तक क्रांतिकारी किसान नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती की 1950 में मौत हो चुकी थी। जयप्रकाश नारायण स्वामी सहजानन्द के किसान आन्दोलन के प्रमुख सहयोगियों में थे। लेकिन 1952 के चुनाव में बुरी तरह पराजय झेलने के पश्चात जे.पी. सक्रिय राजनीति छोड़ भूदान आन्दोलन में शामिल हो चुके थे। जमींदारविरोधी आन्दोलन की इंक्लाबी धार को बिनोबा भावे, भूदान आन्दोलन प्रारम्भ कर, दूसरी दिशा में ले जा रहे थे। जमींदारों से भूमि अब छीनने की नहीं बल्कि उनसे दान लेने की अहिंसक भाषा में बात हो रही थी। गांधी के सिद्धांतों का, भूमिसबंधों को बदलने की दिशा में, यह सबसे बड़ा अहिंसक प्रयोग था। पूरे देश में भूदान में सर्वाधिक जमीन बिहार में लगभग 6 लाख एकड़ मिली। भूदान की सफलता से उत्साहित हो जे.पी ने बेहद काव्यमय भाषा में कहा ‘‘ कानून व कत्ल से जितनी भूमि नहीं बांटी गयी उससे अधिक करूणा से बांटी गयी।’’ लंकिन 1950 के पूर्व जमींदारों के प्रति आमलोगों के गुस्से की जो धार थी वो मंद पड़ने लगी। जमींदार कांग्रेस में शामिल भी होने लगे। बाद में जब बिहार के मुख्यमन्त्री के.बी. सहाय के विरूद्ध आन्दोलन होने तो जयप्रकाश नारायण पर सिर्फ इस कारण चुप्पी साध लने का आरोप लगाया कि श्री सहाय उनकी ही जाति के थे। जातिवाद का जहर बिहार में घुलने लगा था। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान थोड़ी मंद पड़ी जातीय पहचानों सह उठाने लगे थे।
जतिवाद फैलने या कहें भूमिहारवाद और कांग्रेस में पुराने जमींदारों के प्रवेश के मध्य सीधा सम्बन्ध था। 1952 के लोकसभा चुनाव में जमींदारों के सबसे बड़े नेता को दरभंगा महाराज के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा। पं. नेहरू ने इनका नाम लेकर चुनाव में हराने के लिए जनता से अपील की थी। बाद में कांग्रेस द्वारा हिन्दू सम्प्रदायवादी और मुस्लिम सम्प्रदायवादी नेताओं को अपने में मिलाने का प्रयास किया। दरभंगा महाराज के साथ समझौता हुआ और उन्हें राज्यसभा में जगह दी गयी। कुमार गंगानन्द सिंह और बाबू जगत नारायण लाल को मन्त्री बनाया गया एवं सी.पी.एन सिन्हा, श्यामनन्दन सहाय और अन्य दूसरे जमींदारों के प्रतिनिधियों को सरकार में महत्वपूर्ण पद दिए गये। महेश प्रसाद सिन्हा भी बड़े भूपति थे। मुस्लिम लीग के बिहार के पूर्व अध्यक्ष जफर इमाम को कैबिनेट मन्त्री बनाया गया। जमींदारी उन्मूलन के कारण जमींदारों की आर्थिक शक्ति तथा राजनीतिक व सामाजिक महत्व में आयी कमी के मद्देनजर और इतना स्वंय यह महसूस किए जाने के कारण उन्हें अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का रास्ता कांग्रेस में नजर आया।
जब जमींदारों का प्रवेश होना शुरू हुआ तो जाहिर है उनके पास कोई सामाजिक आधार न था। फलतः अपनी सामंती पहचान छुपाने के लिए उन्होंने अपनी जातीय पहचान को उभारना शुरू किया। जमींदारविरोधी किसान आन्दोलन के आवेग व ताप से बचाने के लिए जमींदारों की ये प्रतिक्रियास्वरूप उपजी रणनीति थी, जातीय पहचान। 1950 में बिहार जमींदारी उन्मूलन करने वाला पहला राज्य था। जब भी किसी जमींदार की जमीन को गरीबों में वितरित किया जाता वे चिल्ला उठते कि ये ‘भूमिहारों’ पर हमला है। इससे उन्हें एक सामाजिक आधार भी प्राप्त हो रहा था जिससे उन्हें अपने हितों के लिए बार्गेन करने में सहुलियत होती। बाद में यही रणनीति दूसरी जातियों ने भी अपनायी। जाति का नेता हमेशा कोई ताकतवर या धनाढ़्य व्यक्ति ही हुआ करता है। जाति के फ्रेमवर्क में गरीबों के नेतृत्व का कोई प्रश्न ही नहीं उठता ऐतिहासिक अनुभव भी यही बताता है। आज तक कोई गरीब किसी जाति का नुमाइंदा नहीं बन पाया है। भूमिहार जमींदारों द्वारा अपनायी गयी इस रणनीति को बाद के वर्षों में दूसरी जाति के धनाढ़्य तबकों ने भी अपनाया।
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