मातृभाषा ही उन्नति मार्ग
पिछले कुछ समय से मातृभाषा को लेकर विमर्श चरम पर है। यह विमर्श और भी तीव्र इसलिए होता जा रहा है क्योंकि 34 साल बाद आयी नई शिक्षा नीति में मातृभाषा पर विशेष जोर दिया गया है। इसका मुख्य कारण है कि इस भाषा में शिक्षा प्राप्त करना ज्यादा आसानी से ग्राहृय समझा जाता है। मातृभाषा के महत्व को देखते हुए ही 2021 के लिए अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का विषय है ‘समावेशी शिक्षा और समाज के लिए बहुभाषिता को प्रोत्साहन’। महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र की पंक्तियों से हम अपनी मातृभाषा के महत्व को समझ सकते हैं, जिसमें उन्होंने कहा है कि-
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटय न हिय को शूल।।”
यदि हम कहें कि सामाजिक चेतना का विकास मातृभाषा के माध्यम से ही होता है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मातृभाषा ही हमे समाज की बुनियाद से जोड़ती है। व्यक्तित्व के विकास में मातृभाषा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसके बिना किसी भी क्षेत्र में विकास करना मुश्किल है। दरअसल जन्म लेने के बाद मनुष्य जो पहली भाषा सीखता है, उसे ही उसकी मातृभाषा कहते हैं। मातृभाषा किसी भी व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषाई पहचान होती है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का मानना था कि भारत में 90 प्रतिशत व्यक्ति 14 वर्ष की आयु तक ही शिक्षा ग्रहण कर पाते हैं। अतः मातृभाषा में अधिक-से-अधिक ज्ञान दिया जाना चाहिए। उनका मानना था कि मातृभाषा का स्थान कोई दूसरी भाषा नहीं ले सकती।
मातृभाषा बहुत पुराना शब्द नहीं है। मगर इसकी व्याख्या करते हुए लोग अक्सर इसे बहुत प्राचीन मान लेते हैं। हिंदी का मातृभाषा शब्द दरअसल अंग्रेजी के मदरटंग का शाब्दिक अनुवाद है। हर काल में शासक वर्ग की भाषा ही शिक्षा और राजकाज का माध्यम रही है। मुस्लिम दौर में अरबी-फारसी शिक्षा का माध्यम थी। यह अलग बात है कि अरबी-फारसी में शिक्षा ग्रहण करना आम भारतीय के लिए राजकाज और प्रशासनिक परिवेश को समझने में कारगर तो था, मगर इन दोनों भाषाओं में ज्ञानार्जन से आम हिंदुस्तानी के वैश्विक दृष्टिकोण के संकुचित भाव में कोई बदलाव नहीं आया क्योंकि अरबी-फारसी का दायरा सीमित था। अरबी-फारसी के जरिए पढ़े-लिखे हिंदुस्तानी प्राचीन भारत और अरब आदि की ज्ञान परंपरा से तो जुड़ रहे थे।
मगर सुदूर पश्चिम में जो वैचारिक क्रांति हो रही थी, उसे हिंदुस्तान में लाने में अरबी-फारसी भाषा सहायक नहीं हो रही थी। भारतीयों को अंग्रेजी भाषा भी सीखनी चाहिए, यह सोच महत्वपूर्ण थी। इसी संदर्भ में यह बात भी सामने आई कि विशिष्ट ज्ञान के लिए तो अंग्रेजी माध्यम बने मगर आम हिंदुस्तानी को आधुनिक शिक्षा उनकी जबान में मिले। उसी वक्त ‘मदरटंग’ जैसे शब्द का अनुवाद मातृभाषा के रूप में सामने आया। यह बांग्ला शब्द है और इसका अभिप्राय भी बांग्ला से ही था। तत्कालीन समाज सुधारक चाहते थे कि आम आदमी के लिए मातृभाषा (बांग्ला भाषा) में आधुनिक शिक्षा दी जाए। आधुनिक मदरसों की शुरुआत भी बंगाल से ही मानी जाती है।
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मातृभाषा दिवस को मनाने का उद्देश्य भाषाओं और भाषाई विविधता को बढ़ावा देना है। यूनेस्को ने सन् 1999 में प्रतिवर्ष 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस मनाने की घोषणा की। भाषाई और सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषावाद को बढ़ावा देते हुए इस दिशा में जागरूकता लाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2008 को अंतरराष्ट्रीय भाषा वर्ष घोषित किया था। इसके पहले 17 नवंबर 1999 को यूनेस्को ने प्रतिवर्ष 21 फरवरी को अंतररार्ष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने की स्वीकृति दी थी। यूनेस्को द्वारा अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा की घोषणा से बांग्लादेश के भाषा आंदोलन दिवस को अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति मिली, जो बांग्लादेश में सन् 1952 से मनाया जाता रहा है। बांग्लादेश में इस दिन राष्ट्रीय अवकाश रहता है।
वर्ष 1952 में इसी दिन यानी 21 फरवरी को बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) के ढाका विश्वविद्यालय, जगन्नाथ विश्वविद्यालय और चिकित्सा महाविद्यालय के छात्रों द्वारा बांग्ला को राष्ट्रभाषा घोषित किए जाने हेतु आंदोलन किया गया था, जिसमें अनेक छात्रों ने पुलिस की गोलियों का शिकार होकर अपनी मातृभाषा के लिए प्राण न्योछावर कर दिया। मातृभाषा के लिए दिए गए इसी बलिदान की स्मृति में यूनेस्को ने वर्ष 1999 में इस दिन को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत की, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने 2008 में स्वीकृति दी। यूनेस्को के अनुसार भाषा केवल संपर्क, शिक्षा या विकास का माध्यम न होकर व्यक्ति की विशिष्ट पहचान है, उसकी संस्कृति, परंपरा एवं इतिहास का कोष है। भाषा के इसी महत्व को दर्शाने के लिए यूनेस्को ने 2019 को ‘स्वदेशी भाषाओं का वर्ष’ के रूप में मनाया।
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मातृभाषा हमारी विरासत है। हमारी संस्कृति और अस्मिता से जुड़ी हुई है। मातृभाषा से कट जाने का अर्थ है समाज से कट जाना। यदि किसी समाज की भाषा का विनाश कर दिया जाए, तो वह समाज स्वत: खत्म हो जाएगा। भाषा हमेशा से ही हमारी अस्मिता का विषय रही है।
भारतीय वैज्ञानिक सीवी श्रीनाथ शास्त्री के अनुसार अंग्रेजी माध्यम से इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करने वाले की तुलना में भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़े छात्र कहीं अधिक उत्तम वैज्ञानिक अनुसंधान करते हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था, ‘विदेशी माध्यम ने बच्चों की तंत्रिकाओं पर भार डाला है, उन्हें रट्टू बनाया है, वे सृजन के लायक नहीं रहे…विदेशी भाषा ने देसी भाषाओं के विकास को बाधित किया है।’ इसी संदर्भ में भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं महान वैज्ञानिक डॉ. अब्दुल कलाम ने कहा था, ‘मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बन पाया, क्योंकि मैंने गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की।’ माइक्रोसॉफ्ट के सेवानिवृत्त वरिष्ठ वैज्ञानिक संक्रांत सानू ने अपनी पुस्तक में दिए गए तथ्यों में यह कहा है कि दुनिया में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के लिहाज से शीर्ष 20 देश अपना मुख्य काम मातृभाषा में ही कर रहे हैं। इनमें चार देश अंग्रेजी भाषी हैं, क्योंकि उनकी मातृभाषा अंग्रेजी है।
विश्व कवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने भी मातृभाषा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि:- ‘‘यदि विज्ञान को जन-सुलभ बनाना है तो मातृभाषा के माध्यम से विज्ञान की शिक्षा दी जानी चाहिए।’’ शिक्षाविदों का मानना है कि जो बच्चे अपनी शुरुआती शिक्षा मातृभाषा में ग्रहण करते हैं, उन बच्चों का मानसिक विकास सबसे बेहतर होता है। यही वजह है कि मातृभाषा में शिक्षा को मूलभूत अधिकार घोषित करने की मांग जोर पकड़ रही है। छत्तीसगढ़ जैसे नवोदित राज्य में भी मातृभाषा में शिक्षा को बढ़ावा दिया जा रहा है। यहां की सरकार ने मातृभाषा के महत्व को स्वीकार करते हुए छत्तीसगढ़ी में प्राथमिक शिक्षा दिए जाने के लिए पहल की है।
यहां के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पिछले साल यह घोषणा की थी कि छत्तीसगढ़ में अब मातृभाषा में शिक्षा देने की कोशिश की जाएगी। उन्होंने आदिवासी भाषाओं, बोलियों के संवर्धन पर भी जोर दिया है ताकि आदिवासी क्षेत्र के बच्चे अपनी भाषा में पढ़ाई कर सकें। प्रदेश के सबसे प्राचीन पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर में छत्तीसगढ़ी में एमए की पढ़ाई हो रही है। वहीं बिलासपुर स्थित पंडित सुंदरलाल शर्मा मुक्त विश्वविद्यालय में पिछले करीब 10 वर्षो से छत्तीसगढ़ी भाषा में प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम चलाया जा रहा है। मुख्यमंत्री स्वयं छत्तीसगढ़ी में भाषण देकर यह संदेश देने का प्रयास करते हैं कि अपनी भाषा-बोली से ही अपनी सभ्यता-संस्कृति अक्षुण्ण रखी जा सकती है। यहां की राज्यसभा सांसद फूलो देवी नेताम ने राज्यसभा में दूरदर्शन द्वारा छत्तीसगढ़ी भाषा का पृथक चैनल प्रारंभ किए जाने का मामला उठाया है ताकि छत्तीसगढ़ी का प्रचार-प्रसार हो सके।
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भारतीय भाषाओं के संरक्षण-संवर्धन के लिए संघर्षरत शिक्षाविद् अतुल कोठारी के अनुसार मातृभाषा सीखने, समझने एवं ज्ञान की प्राप्ति में सरल है। अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पढ़ाई करने में अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है। मेडिकल या इंजीनियरिंग जैसी पढ़ाई हेतु पहले अंग्रेजी सीखनी पड़ती है, तब कहीं शिक्षा को पूर्ण किया जाता है। श्री कोठारी बताते हैं कि विश्व के आर्थिक एवं बौद्धिक दृष्टि से सम्पन्न जैसे अमरीका, रशिया, चीन, जापान, कोरिया, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, इजरायल आदि देशों में जन, समाज, शिक्षा एवं शासन-प्रशासन की भाषा वहां की अपनी भाषा है। इजरायल के 16 विद्वानों ने नोबल पुरस्कार प्राप्त किए है। सभी ने अपनी मातृभाषा हिब्रू में ही कार्य किया है।
पंडित मदन मोहन मालवीय अंग्रेजी के ज्ञाता थे। उनकी अंग्रेजी सुनने के लिए अंग्रेज विद्वान भी आते थे। लेकिन उन्होंने कहा था कि ‘‘मैं 60 वर्ष से अंग्रेजी का प्रयोग करता आ रहा हूँ, परन्तु बोलने में हिन्दी जितनी सहजता अंग्रेजी में नहीं आ पाती”। मातृभाषा में जो अभिव्यक्ति की जा सकती है, वह किसी अन्य भाषाओं में कतई संभव नहीं है। इस भाषा में अपनत्व का भाव होता है, जो अनायास ही लोगों को आपस में जोड़ने की कड़ी बन जाता है। अत: यह कहा जा सकता है कि जब तक भारत में शिक्षा, प्रतियोगी परीक्षाएं एवं न्यायालयों सहित शासन-प्रशासन के कार्यों को अपनी भाषा में संचालित नहीं किया जायेगा, तब तक विकास में बाधायें बनी रहेगी और देश का आगे बढ़ना मुश्किल होगा।