उद्दाम आदिवासी आकांक्षाओं के कुचलन का नाम है ‘धुमकुड़िया’
स्थानीय रंगत लेकर भी कोई कलाकृति कैसे एक व्यापक व वैश्विक फलक पर अपना प्रभाव डाल सकती है इस बात को फिल्म ‘धुमकुड़िया’ अच्छी तरह अभिव्यक्त करती है। झारखण्ड के रहने वाले नंदलाल नायक के निर्देशन में बनी नागपुरी फिल्म ‘धुमकुड़िया’ झारखण्ड में बनने वाली आधुनिक फिल्म कही जा सकती है। ‘धुमकुड़िया’ विषयवस्तु से लेकर नायिका के प्रतिमान बदलने वाली ट्रेंडसेटर फिल्म भी साबित हो सकती है। यह फिल्म आदिवासी समाज के अन्दर से उभर रहे ‘दिक्कू’ तबके की पहचान कराने वाली सियासी आयामों को भी पकड़ने का प्रयास करती है। फिल्म में एक ताजगी है और कुछ नया, कुछ भिन्न रचने का संजीदा प्रयास करती नजर आती है।
फिल्म निर्देशक नंदलाल नायक झारखण्ड के प्रसिद्ध लोक कलाकार मुकंद नायक के पुत्र हैं। इस कारण बचपन से आदिवासी लोकगीत, धुनों, संगीत आदि से भलीभांति
परिचित रहे है। फोर्ड स्कॉलर रहे नंदलाल नायक कई सालों तक झारखण्ड की कला, संस्कृति आदि के ब्रांड एंबेसडर भी रहे हैं। अमेरिका, जापान, जर्मनी, इटली सहित कई देशों के फिल्मकारों के साथ उन्होंने काम किया। नंदलाल नायक ने नागपुरी व अॅंग्रेजी भाषा की कई फिल्मों में संगीत प्रदान किया है। आखिर क्या चीज नंदलाल नायक को अपने प्रदेश ले आयी? वे बताते हैं ‘‘मैं जब विदेशों में रह कर यहाँ की खबरें सुनता था। तो दिल को बहुत तकलीफ होती थी। मैंने एक ऐसी ही एक लड़की का नेपाल में दुःखद अन्त होते देखा। तभी लगा कि बाहर रहकर ऐष्वर्य भरी दुनिया का कोई मतलब नहीं है यदि हमारा समाज धीरे-धीरे मर रहा हो और उसकी इस दुर्गति में आदिवासी समाज के अपने खुद लोग ही शामिल हों। इसी चिन्ता ने मुझे फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया।’’ इस लिहाज से ‘धुमकुड़िया’ एक एक्टीविस्ट मिजाज से बनायी गयी फिल्म भी नजर आती है। ‘धुमकुड़िया’, नंदलाल नायक की पहली निर्देशकीय फिल्म है।
फिल्म के निर्माता हैं प्लास्टिक व जूट उत्पादों वाले उद्योगपति परिवार के युवा उद्यमी सुमित अग्रवाल। सुमित अग्रवाल ने खुद दो पुस्तकें भी लिखी हैं।
घुमकुड़िया क्या है?
‘धुमकुड़िया’ झारखण्ड की ऐसी स्थानीय सामाजिक संस्था है जहाँ के आदिवासी युवा प्रतिदिन इकटठे होकर के अपनी पहचान, संस्कृति, नैतिकता, जीवन संदेश के बारे में आपसी संवाद करते हुए उसे अक्षुण्ण रखते हैं। साथ ही साथ आदिवासियों के आपसी अंर्तविरोधों को भी सुलझाने का भी नाम रहा है ‘धुमकुड़िया’। संभवतः इन्हीं वजहों से जेल, न्यायालय, पुलिस आदि आधुनिक संस्थान पुरानी झारखण्डी आदिवासी संस्कृति के लिए थोड़ी अनजानी संस्थायें हैं। उनकी अपनी संस्था है ‘धुमकुड़िया’। निर्देशक नंदलाल नायक की चिन्ता पिछले तीन-चार दशकों में अपनी पहचान व प्रासंगिकता खो रहे इस ‘घुमकुड़िया’ को बचाने की भी है।
फिल्म की कहानी
‘धुमकुड़िया’ एक ऐसी आदिवासी लड़की की कहानी है, जिसके हॉकी खिलाड़ी बनने को सपना उसे एक घातक दुश्चक्र में उलझा देता है और उससे वो ताजिन्दगी उबर नहीं पाती। इस दुश्चक्र में उसके आस-पास के लोग शामिल होकर उसकी आकांक्षा को एक भयायह त्रासदी में तब्दील कर डालते हैं।
फिल्म की नायिका आदिवासी लड़की रिशु को हॉकी में काफी दिलचस्पी है। पेड़-पौधों और प्रकृति के बीच हंसने-खेलने, मस्त रहने वाली रिशु उद्दाम आदिवासी सौंदर्य की भी प्रतीक है। लेकिन रिशु की ग्रामीण माँ को उसका हॉकी खेलना कतई पसन्द नहीं है। वो खेल के बीच से उसे पकड़कर, कान उमेठती घर लाती है। अपने गाँव की होने वाले ‘धुमकुड़िया’ प्रतियागिता में, उसका खेल सबों का ध्यान आकृष्ट करता है। उस गाँव की गरीबी का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पूरी हॉकी प्रतियागिता मात्र दो खस्सी के लिए आयोजित की जाती है। इस ‘धुमकुड़िया’ उत्सव में आदिवासी समाज के भीतर से दिक्कूओं के विरूद्ध संघर्षो की बदौलत निकला युवा बुधवा मुख्य अतिथि है। बुधवा की सतर्क व शिकारी निगाह चपलता से हॉकी खेल रही रिशु की प्रतिभा को भांप लेता है। बुधवा, पाण्डेय नामक नेता, जो दरअसल एक दिक्कू (बाहरी शोषक), का दाहिना हाथ भी है। ये दानों झारखण्ड में रहने वाली गरीब महिलाओं को बड़े शहरों में लाकर बहुत सस्ते दामों पर नौकरानी जैसे कामों में लगा देने की बड़ी शृंखला निर्मित कर चुके हैं।
रिशु का जीजा, बुधवा के आदमी के तौर पर जाना जाता है। पाण्डेय की दिल्ली में रहने वाली गर्भवती बेटी को एक नौकरानी की सख्त आवश्यकता है।
यहाँ बुधवा रिशु के बहनोई से रिशु को हॉकी का प्रशिक्षण दिलाने के नाम पर दिल्ली भेज देता है। यहाँ रिशु पाण्डेय की गर्भवती बेटी की नौकरानी का काम करने लगती है। उसे लगता है कि घर का काम करते हुए वो हॉकी खेलने के लिए वक्त निकाल लेगी। लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था। पाण्डेय की संवेदनहीन बेटी उसे खेलने जाने तो नहीं ही देती है। उसका कामुक व व्यभिचारी पति रिशु के साथ दुराचार करता है। और ये सिलसिला कई रातों तक चलता रहता है फलतः रिशु को गर्भ ठहर जाता है।
इस बात से काफी हंगामा होता है। पाण्डेय के लिए रिशु के साथ बलात्कार होना बेहद मामूली बात लगती है बुधवा का यहाँ पाण्डेय से थोड़ा तनाव भी होता है। लेकिन अन्ततः बुधवा खुद उस रैकेट का हिस्सा है अतः ये अंर्तविरोध किसी निर्णायक बिन्दू तक नहीं पहुँचते। अन्ततः उसे पाण्डेय से समझौता करने पर मजबूर करते हैं।
रिशु को अब दिल्ली में पाण्डेय की बेटी के घर से हटाकर मेरठ के एक मिर्च फैक्ट्री में काम मिलता है। लेकिन अब वो थकी-थकी रहा करती है। गर्भवती रहने के कारण काम भी अधिक नहीं कर पाती। मिर्च गोदाम की देखरेख करने वाला भी उसके साथ जर्बदस्ती यौनाचार करता है।
रिशु लाचार और परिस्थितियों के आगे विवश है। यहीं कुछ दिनों के बाद बेहद विपरीत परिस्थितयों में उसे बच्चा पैदा होता है। उसके साथ काम करने वाली, उसी की तरह अभागी स्त्रियों की सहायता से वह मिर्च फैक्ट्री से भाग निकलती है और अपने गाँव लौटना चाहती है। उधर गाँव में उसकी माँ बेहद परेशान है वो अपने दामाद बेटी को ढ़ूंढ़ने के लिए दबाव बनाती है। उसका दामाद यानी रिशु का जीजा बुधवा से कहता है, वो गरीब खुद इस कुचक्र को समझने में असफल है।
रिशु अपने गाँव आने के लिए ट्रेन पर अपने बच्चे के साथ सवार हो जाती है। इधर पाण्डेय, बुधवा सबों के लिए आवश्यक है कि रिशु लौट न पाये अन्यथा घरेलू नौकरानी बनाने के नाम पर चल रहे गोरखधंधे का पूरा रैकेट उजागर हो जाएगा। अन्त में रिशु राँची लौटती तो है पर जीवितावस्था में नहीं, उसकी मृत देह ट्रेन से उतारी जाती है। अपनी मृतक माँ के बगल में लेटे बच्चे के माध्यम पूरे झारखण्ड की एक ऐसी त्रासद तस्वीर प्रस्तुत की जाती है जो बेहद विचलन पैदा करती है।
अन्त में फिल्म बताती है कि झारखण्ड की आदिवासी लड़कियाँ दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और पंजाब के फॅार्म के आलीशान बंगलों में घरेलू नौकरानी का काम करने के लिए मजबूर हैं। ये आंकड़े दिए जाते हैं कि संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले दस सालों में 48 हजार आदिवासी लड़कियों को अपने घरों से उजाड़ कर शहरों के घरों में काम करने वाली में तब्दील कर दिया गया है।
फिल्म का अन्त एक बड़े फलक की फिल्म को एक खास विषय मानव तस्करी में बांधने का प्रयास करती है। फिल्म के प्रचार-प्रसार में भी इसे महज मानव तस्करी पर आधारित बनाकर एक मानवीय त्रासदी को एक विषय के अन्दर समाहित करने का, कंपार्टमेटलाइज कर देता है। मेरे ख्यास से इसके व्यापक महत्व को थोड़ा रिडयूस कर देता है। दरअसल फिल्मकार की मंशा रिशु की त्रासदी के बहाने इस विषय के प्रति लोगों को जागरूक बनाना रहा हो।
निर्देशक नंदलाल नायक द्वारा भले ही यह पहली निर्देशित फिल्म हो पर दूसरी फिल्मों के काम का अनुभव निस्संदेह उनके काम आया है। निर्देशक ने बंबईया मसाला फिल्मों के लटके-झटकों से खुद को सचेत रूप से दूर रखा है।
फिल्म का छायाँकन सधा हुआ है। आदिवासी इलाकों के प्राकृतिक छटा, उसका सौंदर्य, हरियाली, सहजता और साथ ही उसकी जीवटता को कमरे की निगाह बखूबी पकड़ती है। खासकर पहाड़ी इलाकों में टॉप शॉट आदिवासी जीवन को उसकी पूरी प्रकृति के साथ समझने में सहायता करता है। एक दृष्य को कई कोणों से पकड़ने की कोशिश की गई है। कैमरामैन रूपेष कुमार ने बढ़िया काम किया है।
फिल्म की कहानी में राँची जैसे कस्बाई शहर तथा दिल्ली के बीच अन्तर को बस एक शॉट से दर्शाता देता है। कैमरा जब भी राँची शहर की ओर आता है तो इस कस्बाई शहर की बेतरतीबी, ट्रै्फिक की भरमार एक तरह का केओस दिखता है और दिल्ली को उस शिकारी बंग्ले के माघ्यम से सामने लाया जाता है जहाँ रिशु की अस्मत लगातार लूटी जाती है और खिलाड़ी बनने का उसका सपना चकनाचूर होता है।
फिल्म में अभिनेताओं का चयन भी बेहद सतर्कता से किया गया हैं। नंदलाल नायक और उनकी टीम ने एक झारखण्ड की लड़की रिंकल कक्चप को रिशु की भूमिका दी है। यह अपने आप में एक साहसी कदम माना जा सकता है। अच्छी फिल्में बनाने वाले निर्देशकों में भी नायिका का चुनाव वॉलीवुड से करने की प्रवृत्ति रही है। वॉलीवुड की ब्रांड अभिनेत्रियों को लेने के प्रलोभन में पड़ जाते हैं भले ही उन्हें अभिनय का ककहरा तक न आता हो। लेकिन निर्देशक व निर्माता की ये प्रतिबद्धता मानी जाएगी कि उन्होंने झारखण्ड की एक स्थानीय अभिनेत्री को ये मौका प्रदान किया। और निस्संदेह रिंकल कक्चप ने इस चुनौतीपूर्ण भूमिका के साथ न्याय किया है।
रिंकल कक्चप ने अपनी भूमिका का निर्वहन एक कुषल व पेशेवर अभिनेत्री की तरह किया है। अपनी उद्दाम आकांक्षा वाली उत्साही लड़की के इच्छाओं को मटियामेट होने की तकलीफ व त्रासदी को मौन रहकर जिस भावप्रवण ढ़ंग से अभिव्यक्त करती है वो उसे दर्शकों की निजी जिन्दगियों तक में पसरती मालूम पड़ती है। अपनी इच्छाओं के ध्वस्त होने से वो इस कदर मर्माहत है कि एक तकलीफदेह चुप्पी उसके चेहरे पर छायी रहती है। रिंकल कक्चप का अन्त दर्शकों को स्तब्ध सा कर देता है। और दर्शकों में एक गहरी निराशा सी उभरती है।
बुधवा की भूमिका में एन.एस.डी से प्रशिक्षित अभिनेता प्रद्युम्न नायक ने निभायी है। प्रद्युम्न की भूमिका थोड़ी जटिल भी थी। एक तो वह आदिवासी समाज से आता है लेकिन जिन दिक्कूओं के विरूद्ध संघर्ष की पृष्ठिभूमि में वह सामने आता है अन्ततः उन्हीं तत्वों के साथ समझौता करता प्रतीत होता हैं। निर्देशक ने बुधवा के माध्यम से झारखण्ड की इसी कांप्लेक्सिटी को पकड़ने की कोशिश की है। यानी एक ओर बुधवा, रिशु के उसके गाँव से महानगर दिल्ली तक उसके गुलाम दासी सरीखी जिन्दगी व्यतीत करने के पूरे विशाल रैकेट का हिस्सा भी है लेकिन खुद पाण्डेय से उसके हल्के ही सही पर अंर्तविरोध भी है। निर्देशक द्वारा इस दुरूह पहलू को पकड़ने की उसकी इच्छा के कारण बुधवा का चरित्र हल्का ‘ग्रे’ एरिया में खिसकता प्रतीत होता है। फिल्में हमारे सामने जिस तरह से ब्लैंक एंड व्हाइट में चीजों व घटनाओं को सामने परोसते हैं यथार्थ में वैसे नही होता। लेकिन नंदलाल नायक को या तो अपने संपादन या फिर बुधवा को अपने अभिनय से इस द्वैध को और स्पष्ट करने की कोशिश करनी चाहिए।
पाण्डेय की भूमिका में राजेष जैन ने अपनी भूमिका का प्रभावी निर्वहन किया है।
रिशु के साथ रेप के दो-दो दृष्यों के फिल्मांकन में निर्देशक ने काफी कलात्मक कौशल से काम लिया है। वॉलीवुड की तरह ये जुगुप्सा नहीं बल्कि रिपल्सन का अहसास कराते हैं। मिर्च फैक्ट्री में रिशु के साथ हुआ बलात्कार के बाद अस्त-पस्त, अर्द्धनग्न अवस्था में रिशु का दूर से लिया गया शॉट मन में तकलीफदेह धृणा को जन्म देता है।
फिल्म का संगीत खुद नंदलाल नायक ने दिया है। नंदलाल नायक के पिता मुकंद नायक पद्मश्री प्राप्त लोककलाकार हैं। नंदलाल नायक बचपन से ही लोकगीतों, धुनों आदि के प्रभाव में रहे हैं। आदिवासी माहौल के अनुकूल ही संगीत व धुनों को रखा है इस कारण गाने व संगीत फिल्म के अविभाज्य हिस्सा प्रतीत होते हैं। आदिवासी ध्वनियाँ, आवाजें, लोकधुन, आदि के साथ ‘धुमकुड़िया’ उपस्थित होती है, जो इसे काफी विश्वसनीय बनाती है।
फिल्म दर्शकों को लगतार बाँधे रखती है। दर्शकों में अन्त तक ये कौतुहल बना रहता है कि रिशु के साथ क्या होगा? अब आगे क्या? दर्षक क्या का उत्तर खोजते-खोजते दर्षक इस सवाल पर सोचने पर मजबूर होता है कि आखिर रिशु के साथ ये ट्रेजडी क्यों हुई?
अपनी पहली ही फिल्म से नंदलाल नायक ने अपना निर्देशकीय प्रभाव छोड़ा है। उन्होंने फिल्म के विषयवस्तु से लेकर कलाकारों के चयन तक में एक दृष्टि नजर आती है। नंदलाल नायक आदिवासियों के एक हिस्से के खुद दिक्कू में तब्दील होती चली जाने की प्रक्रिया को पकड़ने का प्रयास किया है ‘धमुकुड़िया’ में।
हालांकि कई विषयों मसलन धर्मांतरण, ‘सरना’ सरीखे विषय कहानी में थोड़े और ठीक से नजर आने चाहिए अन्यथा थोड़े पैबंद की मानिंद नजर आते हैं।
अपनी भाषा, अपने लोग और उसके सरोकारों और उसकी संस्कृति सबों के प्रति, नंदलाल नायक के प्यार का भी नाम है ‘घुमकुड़िया’।
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