मुद्दासामयिक

पबजी की प्रीत में उलझा देश का भविष्य – महेश तिवारी

 

  • महेश तिवारी

 

विज्ञान वरदान है, तो अभिशाप भी। विज्ञान की देन ही प्रौद्योगिकी है, तो उसी प्रौद्योगिकी के नवाचार का एक रूप है मोबाइल-फ़ोन। आज के समय में नित्य मोबाइल-धारकों की संख्या बढ़ने पर हम और हमारी रहनुमाई व्यवस्था इठला जरूर लें, कि इक्कीसवीं सदी में हम अंगुलियों पर सबकुछ संभव बना रहे। लेकिन शायद हम तकनीक में मशगूल होकर यह भूलते जा रहें कि इससे हम अपनी अमिट पुरातन विरासत को तो क्षीण कर ही रहें साथ में बाल-मन और युवावस्था भी पथभ्रष्ट होने के साथ अपनी जिंदगी को काल के मुँह में ढकेल रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि जो उम्र मैदानी खेल खेलने की होती। वीर, प्रतापी महापुरुषों की कहानियाँ अपने बुजुर्गों से सुनने की होती, और किताबें जिस उम्र में हाथ मे होनी चाहिए। उस उम्र में हमारे युवा जन और बच्चे पहले ब्लू व्हेल, टिकटोक और अब पबजी का शिकार होकर अपनी जिंदगी गँवा रहे। एक उदाहरण से बात को समझते हैं, बढ़ते भौतिकवाद के युग में आज अभिवावक के पास समय का अभाव है, जिसके कारण वे जिस उम्र में बच्चे के हाथ में खिलौना, उसके मुंह में माँ का दूध और  सिर पर माता-पिता का प्रेम होना चाहिए। उस अवस्था में उसे मोबाइल फ़ोन थमा दिया जाता है। जो काफ़ी दुर्भाग्यपूर्ण है। आज बच्चा पैदा भी हाथ में मोबाइल लेकर ही होता है, यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी।

ऐसे में कमी तो कहीं न कहीं सामाजिक परिवेश और पारिवारिक पृष्ठभूमि का है। यह हमारी संस्कृति पहले तो कभी नहीं थी, कि बच्चों को उनके समाज के पुरातन खेल और रीति-रिवाज़ से दूर रखा जाए, या उसे सिखाने का समय परिवार और समाज के पास न हो। आज छोटा बच्चा तनिक सा रोता नहीं, कि उसे मोबाइल-फोन हाथ मे दे दिया जाता। क्या ऐसी संस्कृति के वाहक हम रहें हैं। मानते हैं समाज को नवाचार स्वीकार करना चाहिए। वैश्विक दौर में समय की क़ीमत बढ़ी है, लेकिन अगर ये बातें सामाजिक व्यवस्था और परिवार के लिए समस्या का कारण बनने लगे तो उस पर आत्ममंथन करके कुछ न कुछ अमृत रूपी रस निकालना होगा। जिससे हमारे युवा और बाल-मन वाले किसी पबजी के चक्कर में आकर प्रीत करके मौत से गला न लगा बैठे। यहाँ एक बात स्पष्ट होनी चाहिए। अगर दुनिया मुट्ठी में सिकुड़कर आ गयी है। तो उसने ह्रास भी हमारे समाज और मानवीय जीवन का किया है।

यहाँ बात पबजी से होने वाले सामाजिक ह्रास की हो रही। तो ज़िक्र इस बात का भी होना चाहिए, कि मध्यप्रदेश विधानसभा के बजट सत्र के दौरान पबजी को बैन करने का मुद्दा उठा था। मंदसौर से भाजपा विधायक यशपाल सिंह सिसौदिया ने सदन में पबजी बैन करने का मामला उठाया था। विधानसभा के बजट सत्र की कार्यवाही के दौरान उन्होंने पबजी ऑनलाइन गेम को खतरनाक बताते हुए कहा था कि पबजी गेम से छात्रों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है। इस गेम से बच्चों का आधुनिक हथियारों से परिचय हो रहा है और उनमें नकारात्मकता का भाव उत्पन्न हो रहा है। इसके बाद गृहमन्त्री बाला बच्चन ने इस मामले पर जवाब देते हुए कहा था, कि गेम को लेकर जानकारी मंगाई गई है। इसके अलावा यह आश्वासन भी दिलाया, कि मध्यप्रदेश सरकार इसके लिए केन्द्र सरकार को पत्र भी लिखेगी। तो इन बातों का असर क्या हुआ। इसका तो पता नहीं, लेकिन अब जब टिकटोक जैसे एप्प पर बंदिशें लग रही, तो सम्पूर्ण देश में पबजी को भी बैन किया जाना राष्ट्र और समाज हित में रहेगा।

वर्तमान समय मे मोबाइल और तकनीक की देन ही है, कि आउटडोर खेल और गुड़िया-गुड्डो का खेल विलुप्त हो रहा और ऑनलाइन खेल की दुनिया काफ़ी बढ़ रही है। ब्लू व्हेल के बाद पबजी उनमें से एक है। एक आँकड़े के मुताबिक विश्व में पबजी को खेलने वालों की संख्या 40 करोड़ के आस पास है। अब बात पबजी के कारण देश में हो रही आत्महत्या की करते हैं। महाराष्ट्र में पिछले दिनों पहले ट्रैक पर पबजी खेल रहे 2 छात्र ट्रेन की चपेट में आ गए थे। वहीं हैदराबाद के मल्काजगिरी में 10वीं के छात्र ने फांसी लगाकर आत्महत्या इसलिए कर ली, क्योंकि पबजी गेम को लेकर परिजनों ने छात्र को डांटा था। इसके बाद छात्र ने अपने कमरे में जाकर फांसी लगा ली। जिस हिसाब से बच्चे मोबाइल का ज्यादा इस्तेमाल कर रहें। वह उन्हें मानसिक रूप से कुपोषित बना रहा। ऐसे में तीसरी घटना का जिक्र जब करेंगे तो पाएंगे कि ब्लू व्हेल गेम के बाद अब पब्जी गेम खेलने को लेकर रुड़की के एक छात्र ने आत्महत्या कर ली। चौथी घटना देश के दिल मध्यप्रदेश से है। जहाँ के छिंदवाड़ा जिले में एक युवक ने पबजी की दीवानगी में इतना तल्लीन हो गया, कि वह पानी की जगह एसिड पी लिया। ये तो चंद बानगी भर है, इसकी फेहरिस्त काफ़ी लम्बी है।

वहीं मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक डॉक्टरों का पबजी की बढ़ती लत को लेकर कहना है, कि बच्चों में बढ़ती मोबाइल गेम की आदत से उनमें कई तरह के मनोविकार आ रहे हैं। पैरेंट्स के ध्यान न देने से स्थिति बिगड़ रही है। जिन बच्चों के माता-पिता दोनो नौकरी-पेशें में है और बच्चे का साथी मोबाइल होता है, उन्हें अधिक दिक्कत आ रही है। पैरेंट्स को चाहिए कि वह अपने बच्चों को मोबाइल न देकर आउटडोर गेम के प्रति उनका रुझान बढ़ाएं और बच्चे को पूरा समय दें। आज के समय में खेल के मैदान वीरान में तब्दील हो गए हैं, तो उसका कारण भी मोबाइल-फोन ही है। मैदान का आकार सिकुड़ता जा रहा। जो काफ़ी दुःखद स्थिति है। बच्चें आज खो-खो, चोर-पुलिस, लुका-छिपी जैसे तमाम खेलों से अपरिचित हो चले हैं। जो कहीं न कहीं अपनी विरासत को क्षीण करना ही है।

ऐसे में गौरतलब हो कि पबजी का पूरा नाम प्लेयर अनौन्स बेटल ग्राउंड्स गेम है। जिस गेम में पैराशूट के जरिये 100 प्लेयर्स को एक आईलैंड पर उतारा जाता है। जहाँ प्लेयर्स को बंदूकें ढ़ूंढकर दुश्मनों को मारना होता है। आखिर में जो बचता है वो विनर होता है। 4 लोग इस गेम को ग्रुप बनाकर खेल सकते हैं। ऐसे में इसके दुष्परिणाम की बात होगी। तो पता चलता है, कि इस खेल के अभ्यस्त युवा और बच्चे बनते जा रहें। जिसके कारण वे दिन-रात फोन के साथ ही चिपके रहते है। गेम के टास्क को पूरा करने के लिए न तो बच्चे खाने की परवाह करते हैं और न नींद की। जिसकी वज़ह से घंटों एक ही स्थान पर बैठने व टकटकी लगाकर मोबाइल स्क्रीन को देखने से बच्चों में आंखों की कमजोरी, अपच की समस्या, अनिद्रा की दिक्कत के साथ मानसिक तनाव के शिकार तो होते हैं, साथ ही साथ चूंकि गेम में मार-काट अधिक दिखाई जाती। जिससे बालपन में ही बच्चे आपराधिक प्रवृत्ति की तरफ़ तो बढ़ ही रहें। इसके अलावा कुछ ऊँच-नीच होने पर ख़ुद की आत्महत्या तक कर रहें।

केन्द्र सरकार ने टिक टॉक एप डाउनलोड करने पर पाबंदी लगा दी है। मद्रास हाईकोर्ट के आदेशों के बाद गूगल ने इस एप को हटा लिया। उसके बाद भी सवाल यह उठता है कि रहनुमाई तंत्र बचपन को बचाने उन्हें सुरक्षित करने और मजबूत बनाने की दिशा में पिछड़ती क्यों नजर आती है? कोई भी ऑनलाइन गेम शुरू होते ही बच्चों में धड़ाधड़ वह गेम लोकप्रिय हो जाता जो कहीं न कहीं दर्शाता है कि  सरकार के पास बच्चों के मनोरंजन के लिए बेहतर नीति और नियति नहीं है! इसके अलावा आज हमारी शिक्षा ऐसी हो चली है कि बच्चों को स्कूलों में सिर्फ किताबी कीड़ा बनाकर तैयार किया जा रहा है। आज हम वैश्विक परिदृश्य पर कितनी ऊँचाई ही क्यों न छू लें, लेकिन देश में अंगुलियों पर गिने जानेवाले ऐसे स्कूल होंगे। जहाँ पर बेहतर शिक्षा के साथ मनोरंजन के लिए समुचित संसाधन उपलब्ध होंगे। बढ़ती जनसंख्या का आकार शहरों में मैदानों के आकार को नियंत्रित कर रहा है। एक आंकड़े के मुताबिक देश की जनसंख्या के 60 फ़ीसदी बच्चों को खेलने और मनोरंजन के लिए बेहतर स्रोत नसीब नहीं होते। ऐसे में घर की चारदीवारी के भीतर बैठकर बच्चों द्वारा गेम खेलना कहीं ना कहीं आधुनिकता के नाम पर बचपन और उसके साथ इंसानियत को नष्ट करना है।

ऐसे में अगर युवाओं और बच्चों को पबजी जैसे यमराज से बचाना है, तो उसे देश में प्रतिबंधित करना होगा। चीन में इस गेम को 13 वर्ष से कम उम्र के बच्चें नहीं खेल सकते, क्योंकि पबजी को प्रतिबंधित किया जा चुका है। तो जब गुजरात, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर से इसे प्रतिबंधित करने की आवाज़ उठ रही। उस तरफ़ सियासतदान को ध्यान देना होगा। इससे हटाकर जिन बच्चों के माता-पिता दोनो नौकरी-पेशे से जुड़ें हुए हैं, और उनके बच्चे का साथी मोबाइल-फोन होता है। उन्हें अपने बच्चों को भरपूर समय देना होगा। इसके साथ ही साथ हमें और हमारे समाज को किसी न किसी मोड़ पर जाकर संयुक्त परिवार की प्रणाली की तरफ़ दोबारा कूच करना होगा। जिससे कि अगर बच्चे के माता-पिता दोनों नौकरी पेशे से जुड़ें हैं, तो बच्चों की गतिविधियों पर नजर परिवार के अन्य सदस्य रख सकें। अन्य उपाय में मोबाइल बच्चों और युवाओं को निर्धारित समय के लिए अभिवावक दें। इन सभी बिंदुओं से हटकर आउटडोर खेल को प्रोत्साहित करने के साथ बच्चों को दादा-दादी की कहानियों के प्रति आकर्षित करना होगा। इसके अलावा अगर बच्चे देश का भविष्य हैं। जिनमें नेक चरित्र सद्भावना, सहयोग की भावना और समाजसेवा जैसे गुणों को पुष्पित और पल्लवित करना सरकार का काम है। ऐसे में सिर्फ़ ऑनलाइन गेम पर पाबंदी लगाकर ही पीठ थपथपाई नहीं जा सकती, अपितु उसके विकल्प के रूप में मैदानों का आकार आदि बढ़ाना होगा। चूंकि आउटडोर खेल की तरफ बच्चे कूच करेंगे तो देश के प्राचीन खेलों का अस्तित्व भी बचा रह पाएगा। इसके साथ  बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास भी अवरूद्व नहीं होगा और तभी देश का भविष्य सुरक्षित राह पर गतिमान होगा। साथ में देश का भविष्य सुरक्षित रह पाएगा।

ये भी पढ़ सकते हैं- चुनावी तपिश में गुम होता हुआ पर्यावरण का मुद्दा !

लेखक टिप्पणीकार है तथा सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर लेखन करते हैं|

सम्पर्क- +919630377825, maheshjournalist1107@gmail.com

.

Show More

सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x