भारत की पीठ पर बौद्धिक बोझ
‘यदि देश में बुद्धि से काम लेने की आदत छूट गयी है तो सबसे पहले इस घातक आदत के विरुद्ध हमें लड़ाई लड़नी चाहिए और अस्थायी तौर पर अन्य काम छोड़ देने चाहिए। यही आदत हमारा मौलिक अपराध है और इसी से हमारी सारी बुराइयां पैदा हो रही हैं।’
रवींद्रनाथ टैगोर (‘सत्य का आह्वान’ 1921 नामक निबन्ध में)
वर्तमान भारत चार बड़े संकटों से जूझ रहा है। ये संकट हैं- आबादी का संकट, धार्मिक विद्वेश का संकट, रोजगार का संकट तथा पर्यावरण के संकट। भारत के बारे में कोई भी विचार या मूर्त-अमूर्त अवधारणा अगर इनकी अवहेलना कर अपना पक्ष प्रकट करती है तो वह वर्तमान भारत की स्थिति को व्यक्त नहीं कर सकती है। वास्तविकता में भारत का अध्यात्म भी अब बहुत गहरे संकट से घिरा हुआ है क्योंकि अध्यात्म पर स्वयं अंधविश्वासियों, कट्टर धार्मिकों तथा संकीर्णताओं का नए सिरे से कब्जा होने लगा है।
भारतीय आध्यात्मिकता शोकेस करने वाली सामग्री या चुनावी रणनीति में अधिक उलझा दी गयी है तथा उसकी पवित्रता व गौरव की चमक बहुत क्षीण पड़ गयी है। पर वह अलग विषय है, पहले हमें ठीक से भारत के वर्तमान संकटों को समझना होगा और उनसे निकलने वाले भारतीयता के बोध को ग्रहण करना होगा। आबादी, धार्मिक विद्वेश, रोजगार व पर्यावरण के संकटों ने वास्तव में भारत को बहुत भ्रमित कर रखा है।
देश के नौकरशाह से लेकर नेता सभी इन संकटों पर राजनीति तो करना चाह रहे हैं पर किसी ठोस राजनीतिक-सामाजिक नीतियों के अन्तर्गत इनका समाधान तलाशने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। ये संकट इतने गहरा रहे हैं कि जो विदेशी राजनीति वैज्ञानिक भारत का अध्ययन कर रहे हैं वे भारत की स्वातंत्र्योत्तर लोकतांत्रिक यात्रा की सफलता के दावों का भी उपहास उड़ा रहे हैं। स्वतन्त्र भारत के लोकतन्त्र को ब्रिटिश विचारधारा और हिन्दुत्ववादी दृष्टिकोण दोनों से चुनौती मिल रही है। जिन पुस्तकों के माध्यम से ये काम किए जाते रहे हैं, उनकी न तो पहले कोई कमी थी और न आज कोई कमी है। उदाहरण के लिए 2012 ईं में ब्रिटिश मार्क्सवादी इतिहासकार पेरी एंडरसन ने अपनी पुस्तक ‘द इंडियन आइडियालाजी’ नामक पुस्तक प्रकाशित की थी। एंडरसन अंग्रेजी की प्रतिष्ठित पत्रिका न्यू लेफ्ट रिव्यू के संपादक रहे हैं। इसमें उन्होंने भारत में लोकतन्त्र की स्थिरता, बहुसांस्कृतिक एकता-सहिष्णुता और भारतीय राज-व्यवस्था की निष्पक्ष धर्मनिरपेक्षता को ‘द आइडिया आफ इंडिया’ के केंद्रीय विचार की तरह प्रस्तुत करने के दावों की सीमाएं प्रस्तुत करने का काम करते-करते उन्हें लगभग खारिज तक कर दिया।
उन्होंने इसे ही मुख्यधारा का विमर्श यानी ‘इंडियन आइडियालाजी’ माना और इसकी सीमाएं प्रकट करने के उद्देश्य से अपनी औसत सी पुस्तक लिख दी जो अकारण चर्चित हो गयी। उन्होंने अपनी पुस्तक में भारत के बारे में पांच बड़ी स्थापनाओं को प्रस्तुत करने का दावा किया है। पहली, भारत की एकता-अखण्डता का किसी छह हजार वर्ष के कालखण्ड में फैला होना एक भ्रम है। दूसरा, गाँधी के द्वारा राष्ट्रीय आन्दोलन में धर्म का प्रयोग विनाशकारी साबित हुआ।
तीसरा, भारत के विभाजन के लिए अंग्रेज नहीं बल्कि कांग्रेसी नेतृत्व जिम्मेदार था। चौथा, स्वतन्त्रता के बाद नेहरू के प्रशंसकों के दावों के विपरीत नेहरू की विरासत बहुत संदिग्ध व अन्तर्विरोधपूर्ण है। पांचवा, जातिगत विषमताएं भारतीय लोकतन्त्र को कमजोर नहीं बल्कि सशक्त बनाती हैं। पुस्तक में गाँधी को विशेष तौर पर निशाने पर लिया गया है। उनके किसान आन्दोलन पर भी प्रश्नचिह्न लगाते हुए यह तथ्य बताया गया है कि गाँधी ने बारादोली (गुजरात) में उन इलाकों में किसानों के बीच आन्दोलन किया जो रैयतवाड़ी व्यवस्था के अधीन थे और उन्होंने जमींदारी व्यवस्था के अन्तर्गत आने वाले गांवों में आन्दोलन का इसलिए समर्थन नहीं किया ताकि कहीं कांग्रेस से जमींदारों का वर्ग नाराज न हो जाए।
इसी प्रकार उन्होंने भारतीय राष्ट्र को मूलतः हिन्दू धर्म से संचालित होता हुआ बताया है जिसमें आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर ऐक्ट (AFSPA) जैसे जनविरोधी कानून भी कश्मीर, नागालैंड, मिजोरम, पंजाब आदि प्रदेशों में लगाए जाते हैं जहां हिन्दू धर्म का वर्चस्व नहीं है। यह किताब तीन अध्यायों में विभाजित है- इंडिपेंडेंस, पार्टिशन और रिपब्लिक। पैरी एंडरसन ने भारत की उदार-धर्मनिरपेक्ष अवधारणा को केवल भारतीय सत्ताधारी वर्ग की आत्ममुग्ध सोच बताया है, जिसका यथार्थ से सबंध नहीं है। किताब ने भारत के बड़े बौद्धिक वर्ग को इस किताब की आलोचना करते हुए ही भारत की अवधारणा के बारे में अपने विचार को स्पष्ट रूप से पेश करने के लिए उकसाया है। इस किताब के जवाब में 2015 में एक और किताब परमानेंट ब्लैक नामक प्रकाशक के द्वारा प्रकाशित की गयी। उसमें तीन लोगों ने पैरी एंडरसन की स्थापनाओं की कड़ी आलोचना करते हुए लेख लिखे। ये तीन विद्वान थे- सुदीप्तो कविराज, निवेदिता मेनन और पार्थ चटर्जी। इसमें सबसे दिलचस्प व कठोर अकादमिक तरीके से निवेदिता मेनन ने पैरी एंडरसन के उठाए सवालों का जवाब दिया है। उनका मत है भारत की स्वतन्त्रता, उसकी धर्मनिरपेक्ष अवधारणा तथा उसकी नेहरूवादी विरासत पर सवाल उठाना कोई मौलिक विचार नहीं है बल्कि वह ब्रिटिश विचारधारा व सोच का ही विस्तार है। यह इतिहास लेखन के उस ‘कैंब्रिज स्कूल’ के निकट है जिसमें माना जाता है कि ब्रिटिश साम्राज्यों ने अपने उपनिवेशों के आधुनिकीकरण में सहायता प्रदान की थी।
भारतीयों के राजनीतिक चिंतन के मुकाबले ‘श्वेत साम्राज्य’ को विश्व के लिए हितकर माना जाता था। इसी प्रकार भारत की आजादी को भारतीयों के संघर्ष का परिणाम नहीं माना जाता है। यह कहा जाता है कि भारत में अंग्रेजों ने ही विभिन्न किस्म की राजनीतिक संस्थाओं का विकास किया और फिर अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों के कारण उन्हें भारत को स्वतन्त्र करना पड़ा। इस प्रकार भारत की स्वतन्त्रता दो कारणों पर निर्भर थी और वे दोनों भारतीयों के त्यागमय संघर्ष से निरपेक्ष थे।
एक था अंग्रेजों के द्वारा प्रतिनिधि राजनीतिक संस्थाओं (representative institutions) का विकास और दूसरा था अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर साम्राज्यवादी देशों द्वारा अंग्रेजों की सत्ता को चुनौती। आजादी के बाद के भारतीय इतिहास के प्रति भी ऐसा ही नकारवादी रवैया मौजूद है। भारत की धर्मनिरपेक्षता व भौतिक विकास की उपलब्धियों को नकारने के लिए इसे मूल रूप से एक ‘हिन्दू स्टेट’ के रूप में चित्रित किया जाता है और 2014 में भाजपा की पूर्ण बहुमत से सरकार बनने के बाद इस धारणा को और बल मिलने लगा है।
पैरी एंडरसन ने भारतीय राज्य को ‘कनफेशनल स्टेट’ का नाम दिया है। यानी ऐसा राज्य जिसमें केवल एक संप्रदाय का महत्त्व होता है और यह कैथोलिक धर्म के प्रभाव वाले यूरोपीय देशों से निकला हुआ शब्द है। निवेदिता मेनन लिखती है- ‘भारत में अधिकांश हिंदुओं के वोट गैरहिन्दूवादी पार्टियों में विभाजित होते रहे हैं। मोदी को भी हिंदुत्व के बजाय विकास के मुद्दों पर बार-बार लौटना पड़ता है। यह कहना भी गलत है कि जो भाजपा को अपना मत देते हैं, वे सभी हिंदुत्व के पक्षधर हैं। इसलिए भारत को मूल रूप से हिन्दू स्टेट कह देना समझदारी का काम नहीं है।’ भारत के विभाजन के अपराध को भी केवल कांग्रेस के ऊपर थोपने वाले यह नहीं जानते हैं कि साइप्रस, फिलस्तीन और आयरलैंड में भी विभाजन की घटना को अंजाम दिया गया है और वहां न तो नेहरू मौजूद थे, न कांग्रेस।
इस प्रकार की पुस्तकों से जिस ब्रिटिश विचारधारा का प्रचार-प्रसार आज भी होता है, वह हिन्दुत्ववादी वैचारिकी के साथ मिलकर भारत की धर्मनिरपेक्ष, स्वतन्त्र देश के रूप में अवधारणा का खण्डन करती है। हिंदुत्व की विचारधारा भी भारतीय धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता व स्वतन्त्रता आन्दोलन की सामूहिक उपलब्धियों के प्रति गहरी वितृष्णा से भरी हुई है। वे मानते हैं कि संघ-भाजपा ही पिछले साठ वर्ष की ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने का काम बेहतर विजन के साथ कर सकती है।
दूसरी ओर ब्रिटिश-प्राच्यवादी वैचारिकी भी हर निश्चित अन्तराल पर सामने आती है जिसमें भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के नायकों, स्वातंत्र्योत्तर भारत की स्वतन्त्र राजनीतिक यात्रा तथा उसके संस्थानिक विकास की आलोचना के नाम पर उसे केवल धर्म-संप्रदाय से जुडी चेतना का विस्तार माना है। यूरोप की तरह की धर्मनिरपेक्षता, उदार लोकतन्त्र व नागरिक चेतना का विस्तार न दिखने पर भारत के लोकतन्त्र पर ही प्रश्न लगाने का प्रयास किया जाता है।
भारत में हिन्दू व मुस्लिम अस्मिताओं को गहरे सभ्यतागत मतभेद का परिणाम बताकर उन्हें किसी साझे राष्ट्रवाद के प्रतिकूल बताया जाता है जबकि सच यह है कि सांप्रदायिकता पूरी तरह से आधुनिक समस्या है और इसके जन्म के निर्णायक कारण आधुनिक किस्म के राष्ट्र-राज्य के उदय की परिस्थितियों में निहित हैं। आशीष नंदी और विपिन चंद्रा ने विस्तारपूर्वक पहले ही इस बारे में लेखन किया है।
सारांश में कह सकते हैं कि बहुत सारे वर्चस्ववादी बौद्धिक ढांचे के बीच भारतीयता के बारे में सही विचारों का अकाल बढ़ता जा रहा है। लेख के आरंभ में ही टैगोर को इसीलिए उद्धृत किया गया है। देश की अन्तरात्मा की विशेषताओं की सही उदार व्याख्या करने के मामले में बुद्धि का उपयोग करने की आदत छोड़ते जा रहे हैं। इस घातक आदत के विरुद्ध ही हमें लड़ाई छेड़नी है। तभी हमें भारत, भारतीयता, भारतीय चिंतन व भारत-गौरव को ठीक से समझने का मार्ग मिलेगा।