मुद्दा

क्रीमी लेयर आरक्षण का लाभ नीचे नहीं जाने दे रहा – सुप्रीम कोर्ट

 

  • प्रेमपाल शर्मा

 

 पहले सुप्रीम कोर्ट के निर्णय (22 अप्रैल, 2020 ) की मुख्य बातें:

  1. आरक्षण की पात्रता सूची एससी, एसटी, ओबीसी की समीक्षा होनी चाहिए ताकि नीचे तक इसका लाभ पहुँच सके।
  2. इन सभी वर्गों की सत्ता में भागीदारी और इनके साथ हुए भेदभाव को दूर करने के लिए आरक्षण का प्रावधान शुरुआत में 10 वर्ष के लिए किया गया था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। समय-समय पर संशोधन तो हुए लेकिन वर्गों की सूचियों की समीक्षा कभी नहीं हुई जिससे लगातार लाभ उठा रहे लोग इन इन सुविधाओं को अपने ही वर्ग में नीचे तक नहीं पहुँचने दे रहे।
  3. ऐसा लगता है निर्वाचित सरकारों में आरक्षण की मौजूदा स्वरूप से उपजी चुनौतियाँ, विकृतियों से निपटने की इच्छा शक्ति ही नहीं है।

   सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय पर विचार करने से पहले भारतीय न्यायपालिका के बारे में जीन ड्रेज़ और अमर्त्य सेन की किताब (An uncertain glory:india and it’s contradiction- भारत और उसके विरोधाभास) का एक अंश “भारतीय न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका के विपरीत ज्यादा स्वतन्त्र है। यहाँ न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बीच कोई द्वंद नहीं है। भारत में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता ने अदालतों खासकर उच्चतम न्यायालय को अपने फैसलों में क्षमता तथा न्याय के केन्द्रीय मुद्दों पर स्वतन्त्र एवं शक्तिशाली निर्णय करने में मदद की है। जैसे मौलिक अधिकारों की सुरक्षा, नीति निर्दशक सिद्धान्तों में दिए गये आर्थिक तथा सामाजिक अधिकार आदि।….. चुनावी राजनीति में हार जीत के प्रश्न और निहित स्वार्थ विधायिका, कार्यपालिका को ज्यादातर सही मुद्दों से भटका कर लोकतन्त्र का नुकसान ही करते हैं।..”

आरक्षण के प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट

 आरक्षण के प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी सख्त टिप्पणी पहली बार नहीं की है। भारत सरकार के प्रशासन में जितनी मुकदमे बाजी आरक्षण के प्रश्न पर हुई है और शायद संविधान में जितने संशोधन इस मुद्दे पर हुए हैं दुनिया में भी शायद उसका कोई उदाहरण नहीं होगा। और विद्वान लेखक ज्या द्रेज, अमर्त्य सेन के निष्कर्ष इस बात को ही सिद्ध करता है कि देश के दूरगामी हितों को देखने की बजाय राजनीतिक सताए सही निर्णय लेने में कितनी कमजोर हैं। इसी निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने जोड़ा है कि जो भी आरक्षण है, संसद द्वारा स्वीकृत, वह वैसा ही बना रहेगा लेकिन उसके सही हकदारों तक यह लाभ, यह सुविधाएँ पहुँचने चाहिये।

सुप्रीम कोर्ट भी इसी देश इसी समाज का हिस्सा है। याद कीजिए 2016 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश जोसेफ कुरियन ने कहा था कि “जब क्रीमी लेयर का सिद्धान्त ओबीसी पर लागू है, तो वह एससी-एसटी पर क्यों नहीं है? उन्होंने व्यक्तिगत अपना उदाहरण पेश करते हुए कहा था कि मेरे बेटे को मिलने वाली सुविधाएँ और मेरे ड्राइवर को मिलने वाली सुविधाओं में बहुत अन्तर है। एक जाति का होने के बावजूद भी मुझे या मेरे जैसे अमीरों को वह सुविधाएँ क्यों मिलनी चाहिए? दूसरे शब्दों में जब तक सिर्फ जाति के इस इकहरी पैमाने से आरक्षण मिलता रहेगा तो वह नीचे तक कभी नहीं पहुँचेगा।

वर्ष 2006 में नागराज के मामले में सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्य पीठ ने प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए भी कुछ ऐसी शर्तें कही थी। जैसे की यदि उस श्रेणी में उनका प्रतिनिधित्व पूरा नहीं होता हो और उससे आगे उनके पिछड़ेपन का कोई मानदंड भी बनाया जाए। वर्ष 2018 में जरनैल सिंह के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर के सिद्धान्त को sc-st पर भी लागू करने की बात दोहराई थी। फिर क्या हुआ? क्यों नहीं हुआ? सुप्रीम कोर्ट को इसीलिए यह दोहराना पड़ा है कि सरकारों में आरक्षण की चुनौतियों से निपटने की इच्छाशक्ति ही नहीं है।

फूट डालो और राज करो

 ज्यादातर अंग्रेजी शासकों और शासन की बुराई करते हुए (मुगल वंश और मुस्लिम शासकों को बचाते हुए) हमारे इतिहासकार बार-बार “फूट डालो और राज करो” के जुमले को दोहराते रहते हैं। लेकिन उससे 100 गुना ज्यादा इस जुमले को आजादी के बाद भारतीय राजनीति में दुरुपयोग किया गया है। शासन की कमजोर इच्छा शक्ति हर क्षेत्र में झलकती है। वह शिक्षा हो, समानता की बातें हो, गरीबी हटाओ या लोकतन्त्र के सभी स्तम्भ। मुद्दे को फिर से जाति व्यवस्था की तरफ लाते हैं। बाबा साहब आम्बेडकर और महात्मा गाँधी दोनों की ही भूमिका ऐतिहासिक है।

सामाजिक बराबरी

बाबा साहब का कहना सही है कि जब तक सामाजिक बराबरी नहीं होती, राजनीतिक आजादी का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन गाँधीजी को यकीन था कि राजनीतिक आजादी से ही सामाजिक बराबरी और दूसरे निर्णय भारतीय बेहतर ले सकते हैं। और इसीलिए जिन वर्गों को जातियों को सैकड़ों सालों तक वंचित रखा गया उन पर तरह-तरह के अत्याचार किए गये उनके लिए आरक्षण की सुविधा संविधान में दी गयी और विधायिका में भी। पूना पैक्ट से ही सवर्णों में आरक्षण शब्द से चिढ़ लगातार रही है क्योंकि उनके संस्कारों ,वर्ण व्यवस्था में समानता बहुत दूर की चिड़िया रही है। केवल नारों तक सीमित। व्यवहार से कोसों दूर।

 लेकिन कुछ शिक्षा के प्रसार ,विकास की योजनाएँ, शहरीकरण, ग्लोबलाइजेशन, वैज्ञानिक दृष्टिकोण इन बातों के चलते सवर्णों को यह एहसास होने लगा कि मनुष्य मनुष्य के बीच जाति-गोत्र का भेदभाव वाकई कलंक है। सख्त कानून भी बनाए गये ऐसे भेदभाव के खिलाफ और परिवर्तन की बयार शुरू भी हो गयी। निश्चित रूप से अभी इसे गाँव, देहात तक जाने में अभी और समय लगेगा इसीलिए 10 वर्ष की अवधि को बार-बार बढ़ाने की जरूरत भी पड़ी है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सवर्णों दबंगों को यह समझने की जरूरत है कि जब तक वे अपने को ऊँची जाति, श्रेष्ठ या जाति में यकीन करते रहेंगे तब तक इस देश में आरक्षण भी रहेगा। इसलिए जाति के खिलाफ लड़ने की पहली जिम्मेदारी सवर्ण समाज की है।

 जैसे वक्त के साथ नदी मैली होती जाती है और इसीलिए उसे साफ करने की जरूरत पड़ती है, वैसे ही बहुत सारे नियमों परम्पराओं व्यवस्थाओं में होता है। संविधान में संशोधन भी तो इसी चेतना से होते हैं और इसीलिए आरक्षण की सूची  उनके नियमों में पुनर्विचार की तुरन्त जरूरत है। पहले केवल सीधी भर्ती मैं आरक्षण था, फिर पदोन्नति में भी हुआ। फिर शिक्षा संस्थानों में भी। अगले पड़ाव में ओबीसी के लिए हुआ और पिछले दिनों 50% की सीमा को लांघते हुए 10% आर्थिक पिछड़ेपन के लिए भी। कुछ राज्यों में जिनमें तमिलनाडु कर्नाटक आदि शामिल हैं आरक्षण 70% को भी पार कर चुका है।reservation

 लेकिन इस बहस को शुरू होते ही दोनों पक्ष तलवार लेकर खड़े हो जाते हैं। न किसी को पहले प्रधानमन्त्री नेहरू जी याद आते जिनका बार-बार कहना था कि कार्यकुशलता और दक्षता की कीमत पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता। और ना बाबा साहब जो इसी केवल 10 वर्ष तक रखना चाहते थे और उनकी सदिच्छा थी कि तब तक समाज बराबरी के स्तर पर पहुँचने की उम्मीद है। आरक्षण के मुद्दे पर मंडल कमीशन के दौर में भी देशव्यापी बहस लगातार चली हैं। और उसी वक्त कुछ लोग अमेरिका, जापान आदि देशों में एफर्मेटिव एक्शन की बातें करते हैं। गलत तथ्य और आंकड़े देते हुए। शायद ही दुनिया का कोई देश हो जो शासन-पशासन से लेकर शिक्षा संस्थानों में जाति, उपजाति, जनजाति, अगड़े, पिछड़े, अति पिछड़े जैसे खानों में बटा हो।

धर्म और क्षेत्र के खानों को भी मिला दिया जाए तो वाकई एक भानुमति का पिटारा। निश्चित रूप से यह खाने समाज के हर हिस्से में और मजबूत हुए हैं । कुछ बुद्धिजीवी इन्हें आईडेंटिटी की तलाश के नाम पर महिमामंडित करते हैं और उसी तर्क से राजनीतिज्ञ यथा स्थितियों को बनाए रखने में ही सामाजिक न्याय की चादर ओढ़े रहते हैं। अंजाम धीरे धीरे शासन पशासन और भी पतन की तरफ बढ़ रहे हैं। 50 के दशक में जो शिक्षा सभी के लिए बराबर थी अब वह गरीबों की पहुँच से और दूर हो गयी है। वैसा ही स्वास्थ्य सुविधाएँ। कुछ लोगों का कहना है कि निजीकरण की तरफ इसी आक्रोश में देश और उसकी संस्थाएँ और बढ़ रही हैं।

आरक्षण की बहस का एक नया रूप

 पिछले 20 वर्षों से आरक्षण की बहस का एक नया रूप सामने आया है। जैसे पहले सवर्ण लोग जाति व्यवस्था को बनाए रखने के पक्ष में तर्क देते थे (कुछ अभी भी देते हैं) वैसे ही आरक्षण से लाभ पाएँ व्यक्ति भी (इसे क्रीमी लेयर भी कह सकते हैं) यानी जिसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नौकरियों में, पदों पर आने के बाद ठीक हो गयी है। इससे उनकी सामाजिक हैसियत भी बढ़ी है। अब वे इन सुविधाओं को वैसे ही बरकरार रखना चाहते हैं जैसे किसी वक्त सवर्ण जिन्हें अक्सर ब्राह्मणवाद कहकर पुकारा जाता है। अपनी हैसियत को बनाए रखना चाहते थे। इसलिए आरक्षण के प्रश्न पर किसी भी कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जैसे ही कोई निर्णय आता है, वे हाय-हाय करते हुए सड़कों पर उतर आते हैं। यह बार-बार हो रहा है। लोकतन्त्र और सारी संस्थाओं की धज्जियाँ उड़ाते हुए।

Banaras Hindu University PTI
Banaras Hindu University PTI

ताजा उदाहरण बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के मेडिकल कॉलेज में नियुक्तियों के रोस्टर का था। हम सभी जानते हैं कि मेडिकल कॉलेज में प्रवेश करने और फिर उस में प्राध्यापक बनने के लिए एक न्यूनतम योग्यता की जरूरत होती है। मौजूदा नियमों के अन्तर्गत वहाँ के रेडियोलॉज या दूसरी उच्च तकनीकी शाखा में आरक्षण का अनुपात बदल गया यानी कि किसी शाखा में शत-प्रतिशत सवर्ण यानी पांडे गुप्ता ठाकुर और किसी में अनुपात से ज्यादा एसटी-एससी-ओबीसी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए अपने निर्णय में कहा कि सभी विभागों में भारत सरकार द्वारा निर्धारित आरक्षण की प्रतिशतता होनी चाहिए।

ऐसे मामले रेलवे और दूसरे विभागों में भी इससे पहले आते रहे हैं और इसीलिए 14 प्वाइंट रोस्टर की बजाए पोस्ट बेस्ड रोस्टर सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के द्वारा पूरे देश में लागू किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने भी बहुत लम्बी बहस के बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय को सही माना। यानी एससी एसटी ओबीसी का प्रतिशत तो वही रहेगा लेकिन उसकी गणना विभाग वार की जाए। पूरे यूनिवर्सिटी की एक साथ नहीं। लेकिन प्रशासनिक दक्षता शैक्षणिक योग्यता इन सारी चीजों को ठोकर लगाते हुए तर्क इसी बात पर चलते रहे की एक दो पोस्टें इधर जाएँगी या उधर कमी हो जाएगी।sen-and-dreze

जैसा अमर्त्य सेन और जीन ड्रेज़  कहते हैं राजनीतिज्ञों ने अपने वोट बैंक की खातिर इसमें हस्तक्षेप किया और पहले अध्यादेश निकालकर यथास्थिति लौट आई। और फिर संसद से सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को उलटवा दिया। यह उस सरकार ने किया जो शाहबनो के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को संसद द्वारा बदलवाने के खिलाफ दशकों तक रोना रोती रही। एसटी-एससी-ओबीसी एक्ट के मामले में भी जीन ड्रेज़ और अमर्त्य सेन की बात सही निकली और सुप्रीम कोर्ट की स्वतन्त्रता को वैसा ही संसद ने झटका दिया। हम कैसे धीरे-धीरे संस्थाओं की आजादी और उनके अन्त की तरफ बढ़ रहे हैं यह अफसोस और शर्मनाक है।

सुप्रीम कोर्ट के सामने ऐसे सैकड़ों मामले पूरे विवरणों के साथ लाए गये हैं जिसमें आरक्षण का लाभ चंद जातियाँ और चंद व्यक्ति ही लगातार उठाते जा रहे हैं। कुछ मोटे मोटे ताजा उदाहरणों को ही सामने रख कर बात करते हैं। 3 वर्ष पहले टीना डाबी ने सिविल सेवा परीक्षा में टॉप किया था। बहुत खुशी की बात और एक महिला के नाते और ज्यादा खुशी की बात। लेकिन सबसे पहले टिप्पणी एक तत्कालीन सांसद की आई “कि एससी लड़की ने टॉप किया है। शर्मनाक जहाँ व्यक्ति को जाति के ऐसे खाने से नापतोल जाए। लेकिन इसके क्रीमी लेयर पक्ष की तरफ विचार करने की जरूरत है। टीना डाबी के माता-पिता दोनों क्लास वन सर्विस में इंजीनियर थे।tina dabi

आरक्षण के कोटे के तहत। न चाहते हुए भी टीना डाबी को उसका फायदा मिलेगा। और यदि वे चाहें तो उनकी अगली संतानों को भी। सन 50 के बाद सैकड़ों आरक्षित वर्ग के मेधावी लोक सेवाओं में आए हैं  उनकी क्षमताओं पर  यहाँ बात करने का अवकाश नहीं है। इनमें से कई कलेक्टर डायरेक्टर एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर जनरल मैनेजर प्रोफेसर वाइस चांसलर संसद सदस्य हैं। कई पिछले 40-50 वर्ष से चाणक्यपुरी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय या लुटियन दिल्ली के बंगलों में रह रहे हैं। जैसा जोसेफ कुरियन ने कहा कि यदि आरक्षण का लाभ इन्हीं के बच्चों को मिलता रहा तो वह कभी भी सबसे नीचे के पायदान पर नहीं पहुँच सकता।

व्यवहार में देखा जाए तो मेरे गाँव के अनुसूचित जाति के छीतर मल, ननुआ, छोटू की हालत अभी भी वैसी ही बनी हुई है। वहाँ न वे सवर्णों के जातियों की क्रूरता से पूरी तरह मुक्त हो पाए और ना उन तक इन शहरी क्रीमी लेयर ने आरक्षण का कोई लाभ पहुँचने दिया। मैं कोई नई बात नहीं कह रहा इंदिरा साहनी वाले मामले में ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर का सिद्धान्त इसीलिए लागू किया गया था जिससे कि वाकई जरूरतमंद और जिनको लाभ मिलना चाहिए उन तक लाभ पहुँचे। लेकिन वहाँ भी क्रीमी लेयर को एक लाख से बढ़ाकर आठ लाख कर दिया गया है। और इसे और भी आगे करने की तैयारी चल रही है। यह फिर भारतीय लोकतन्त्र के लिए दुखद होगा।

जब कोरोना वायरस में लाखों मजदूर सड़कों पर भूखे मर रहे हो, न उन्हें स्कूल जाने की सुविधा, न सर पर झोपड़ी। और इन्हीं गरीबों की दुहाई देते हुए उस क्रीमी लेयर को कुछ जातियाँ तो लागू ही नहीं होने दे रही और कुछ उसकी सीमाओं को और ऊपर उठाती जाने के लिए लगातार लामबन्द रहती हैं। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि मुक्तिबोध के शब्दों में “रात के अंधेरे में इन सभी जातियों, सवर्ण समेत, की क्रीमी लेयर के उस्ताद मिल बैठकर लोकतन्त्र को चूस रहे हैं।“ और जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सरकारों में आरक्षण की चुनौतियों बीमारियों से निपटने की इच्छाशक्ति ही नहीं बची।supreme court

जो नौकरशाह न्यायपालिका की बुराइयों की तरफ उंगली उठाते हैं, सुप्रीम कोर्ट का इशारा उनकी तरफ भी है कि वह प्रशासन के सही निर्णय लेने में सबसे ज्यादा डरपोक और नाकारा साबित हुए हैं। सरकार को सही सलाह देना उनकी नैतिक जिम्मेदारी है। हर बार फुटबॉल को सुप्रीम कोर्ट में डाल देने से समस्याएँ हल नहीं होने वाली। सुप्रीम कोर्ट इस बात को भी दर्जनों बाद कह चुका है। संविधान की मूल संरचना, धर्म की व्याख्या, सूचना का अधिकार, हर धर्म की औरत के हक और अधिकार के लिए सुप्रीम कोर्ट ने हर बार आगे बढ़कर संविधान और लोकतन्त्र की रक्षा की है। क्रीमी लेयर खुद आगे आकर सुझाव दे तो सोने पे सुहागा होगा। सवर्णों की सी कट्टरता से बचें! अपने ही भाइयो की खातिर!

 हमारी माँग! सरकार तुरन्त 3 कदम उठाए:

  1. सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुसार एसटी-एससी में आरक्षण के लिए पात्रता सूची की समीक्षा हो और पैमाने यानी क्रीमी लेयर उन्हीं के वर्गों की खातिर तुरन्त लागू हो।
  2. ओबीसी की क्रीमी लेयर जो फिलहाल 8 लाख प्रतिवर्ष है उसे घटाकर चार लाख किया जाए।

3.पूरे समाज में जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए शर्मा, पांडे, मिश्रा, ठाकुर, गुप्ता, चौधरी जैसे प्रचलित जातिवादी नाम, सर नाम पर तुरन्त प्रतिबन्ध लगाए। जाति सूचक शब्द लगाना अपराध माना जाए।  

  सुप्रीम कोर्ट को एक बार फिर बधाई! निष्पक्षता! साफगोई! और साहस के लिए!

 

लेखक पूर्व संयुक्त सचिव, रेल मंत्रालय और जाने माने शिक्षाविद हैं|

सम्पर्क-   +919971399046 , ppsharmarly@gmail.com

 

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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