राजनीतिव्यंग्य

शिक्षकों को “कागभुशुण्डि” नहीं “जटायु” होना चाहिए – दीपक भास्कर

 

  • दीपक भास्कर 

 

रामायण, भारत के हिन्दू-धर्म से ज्यादा, भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण है। राम-मंदिर विवाद ने भारत के आम नागरिकों के मुद्दे को लील लिया है। पिछले कई दशकों से, भारत की चुनावी-राजनीति बस इसी पर टिकी हुई है। बहरहाल, यहां रामायण की चर्चा संदर्भ के लिए है। रामायण की कथा में दो पक्षी-पात्र बहुत महत्वपूर्ण हैं पहला “कागभुशुण्डि” और दूसरा “जटायु”। कथानुसार, कागभुशुण्डि को कालजयी होने का आशीर्वाद प्राप्त था, वो समय-काल में हो रही घटनाओं के चश्मदीद गवाह थे। माना जाता है कि, रामायण की कथा उन्हीं के द्वारा दिये हुए ब्यौरे पर आधारित है। इस हिसाब से, कागभुशुण्डि एक इतिहासकार हैं जो समय-काल में हो रही घटनाओं का ब्यौरा बता रहे हैं हालांकि इतिहास अब महज घटनाओं के ब्यौरे से काफी अलग विषय-वस्तु हो चुका है। कागभुशुण्डि, ऐसे पात्र हैं जिनके सामने सब कुछ हो रहा है। रावण द्वारा सीता के साथ अन्याय, राम द्वारा सीता के अभिमान पर सवाल से लेकर, राम द्वारा दलित शम्बूक की हत्या, तक जैसी घटनाओं को कागभुशुण्डि बस देख रहे हैं। खैर, कागभुशुण्डि की अपनी अहमियत है लेकिन इस विश्लेषण में अहम नहीं है।
कथानुसार, दूसरे, पक्षी-पात्र हैं “जटायु”। रावण, सीता-हरण कर आकाशमार्ग से ले जा रहे हैं, सीता मदद के लिए पुकार रही है और ठीक उसी वक्त “जटायु” की नजर, रावण पर पड़ती है। जटायु, रावण को इस अन्याय को नहीं करने से रोकता है, रावण के नहीं मानने पर, जटायु इस अधर्म(अन्याय) के खिलाफ आवाज बुलंद करते हुए रावण से लड़ता है। जटायु एक बूढ़ा, कमजोर पक्षी पात्र है दूसरी तरफ, रावण जैसा सामर्थ्यवान महायोद्धा। इस युद्ध कि नियति जटायु की मृत्यु के रूप में तय है। जटायु, इस संघर्ष में मारे जाते हैं। जटायु को एक राजनीतिक पात्र माना जा सकता है। राजनीतिक होना क्या होता है? दार्शनिक अरस्तू के अनुसार, हर व्यक्ति प्राकृतिक रूप से राजनीतिक होता है। राजनीतिक होने से मतलब, किसी भी रूप में हो रहे अधर्म (अन्याय) के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करना तथा संघर्ष करने से है। जटायु को इस युद्ध अथवा संघर्ष की नियति पता है, जटायु के पास कागभुशुण्डि वाला रास्ता भी है फिर भी जटायु संघर्ष का रास्ता चुनता है। जटायु के लिए रावण से युद्ध का परिणाम महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि अधर्म (अन्याय) के खिलाफ संघर्ष आवश्यक है। जटायु, थुसिडाईड्स की किताब “पेलोपेनेसियन वॉर” के सैन्यरूप से कमजोर राज्य ‘मेलोन’ की तरह हैं। एथेंस, जैसे बड़े साम्राज्य की सेना के सामने, मेलोन औपनिवेशिकता  अथवा दासता को अस्वीकार कर देता है और कहता है कि “युद्ध” मेलोन के लिए अस्मिता का संघर्ष है, अधर्म(अन्याय) के खिलाफ लड़ाई है, धर्म(न्याय)युद्ध है। मेलोन, संघर्ष चुनता है, लड़ता है, हारता है और सैनिक उम्र के सारे पुरुष नागरिक कत्ल कर दिए जाते है, औरतों को गुलाम बना लिया जाता है। मेलोन, जटायु की तरह लड़ता हैं। असल में, मेलोन ग्रीक सभ्यता का सबसे राजनीतिक राष्ट्र है, वो राजनीति का मतलब समझता है। राजनीति, अधर्म(अन्याय) के खिलाफ संघर्ष का नाम है। राजीनीति का मतलब, अधर्म(अन्याय) के खिलाफ “जटायु” होना है, “मेलोन” होना है।
ऐसे में, जब भारत में सत्ता इतनी मजबूत हो गई है कि वो सबके सामने एथेंस की तरह गुलाम हो जाने का खुला ऑफर दे रहा है, रावण की तरह डरा रहा है तब इस देश के नागरिकों को जटायु की तरह, मेलोन की तरह लड़ना चाहिए, संघर्ष करना चाहिए। बात ‘खत्म’ हो जाने की नहीं है बात ‘डर’ जाने की है। ‘खत्म’ हो जाने कहीं ज्यादा खरतनाक, सत्ता से ‘डर’ जाना है। ‘मेलोन’ दुनिया के राष्ट्र के इतिहास में खत्म होकर भी जीत जाता है, डर से जीत जाना ही सबसे बड़ी जीत है। जटायु खत्म होकर भी, इतिहास में है क्योंकि वो डर से जीत जाता है। डर से निकल जाना ही किसी व्यक्ति अथवा समाज के राजनीतिक होने का प्रमाण है, वो किसी से नहीं डरता, ईश्वर से भी नहीं।
जब कभी भी सत्ताएं इतनी मजबूत एवम क्रूर हो जाये कि वो लोगों को गुलाम बन जाने का ऑफर देने लगे तो सबसे पहले, शिक्षकों एवं विद्वानों को कागभुशुण्डि के रोल निकलकर, जटायु हो जाना चाहिए। अगर चाणक्य सत्य है कि शिक्षक के गोद में प्रलय और निर्माण दोनों ही खेलती हैं तो जब भी सत्ता, समाज को असहिष्णु बनाने पर आमादा हो जाये, डराने लगे तो ऐसी सत्ता का समूल-नाश, जड़-उन्मूलन के लिए शिक्षकों, विद्वानों को खड़ा हो जाना चाहिए। ऐसे में, इस देश के शिक्षक और विद्वानों को “कागभुशुण्डि” के रोल से निकलकर “जटायु” बनना चाहिए, “मेलोन” बन जाना चाहिए।
#सत्यमेवजयते


डॉ दीपक भास्कर, दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति पढ़ाते हैं।

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लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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