हमारे देश में बुजुर्गों की दयनीय स्थिति किसी से छुपी नहीं है। आए दिन उन पर हो रहे अत्याचारों की ख़बरें, अखबारों की कतरनों में रंगी-छपी नज़र आती है। सरकारें चाहें जितनी भी कोशिशें कर लें लेकिन जब तक उन बुजुर्गों को अपने घरों में ही अपमानित होते रहना पड़ेगा हालात नहीं बदले जा सकते। शॉर्ट फिल्म ‘रेडुआ’ भी उसी राग को गाती-गुनगुनाती नज़र आती है।
हरियाणवी भाषा में बनी इस फिल्म का पहला सीन जहां एक नए रेडियो से शुरु होता है वहीं कुछ पल बाद उस पुराने हो चुके रेडियो के टूट जाने के बाद भी उसमें से रागनियां बजनी बंद नहीं होती। ये दोनों सीन हरियाणा की संस्कृति से भी आपका परिचय करवाते हैं।
गांव, खेत, खलिहान में जाते हुए या कहीं भी घूमते हुए आज भी बूढ़े लोग रेडियो के साथ आपको नज़र आ जाएंगे। उनके लिए ये मात्र रेडियो नहीं उनकी भावनाएं हैं, उनके संगी साथी हैं, उनकी लोक संस्कृति है जिसे कुछ लोग आज भी बचाए हुए हैं।
फिल्म एक बूढ़े किरदार के उसकी मर चुक बीवी के लाए हुए रेडियो तथा अपनी पेंशन के सहारे गुजर-बसर करने की कहानी कहती है। उस रेडियो से उसकी जुड़ी यादों और बाकी किरदारों के साथ उसका व्यवहार किस तरह आपको जकड़ता है यह फिल्म देखकर आप महसूस कर पाएंगे उसकी जकड़न में खुद को जब पाएंगे। लाचार-बेबस बुजुर्ग के हालात और नाकारा औलाद के साथ-साथ दिन भर घर में खटती रहने वाली बहु को जब उनके अपने ही बच्चे देख रहे हों तो संस्कारों का बीजारोपण हो रहा होता है। घरों में हमारा कर्तव्य होता है कि हम अच्छे संस्कार देकर अच्छे नागरिक पैदा करें लेकिन लोभ, लालच, तृष्णा, हैवानियत, नकारापन में घिरते जा रहे हमारे समाज को इसका भान नहीं है कि हम किस ओर चल पड़े हैं।
रेडियो के माध्यम से दुख भरी रागनियां सुनाना मात्र और कहानी दिखाना मात्र इस फिल्म का उद्देश्य नहीं है। सिनेमा की शुरूआत के समय के पहले से चले आ रहे रेडियो ने भले ही टेलीविजन के दौर तक आते-आते दम तोड़ दिया हो लेकिन उसका जमाना आज भी याद किया जाता है। बस उसी रेडियो के बहाने से फिल्म आपको जो दे जाती है उसे देखते समय आपके भीतर भी गुस्से का लावा कब का जन्म ले चुका होता आपको महसूस नहीं होता।
ऐसी फ़िल्में देखकर भले ही आप तुरंत किसी क्रांति को करने के लिए झंडे ना उठाएं लेकिन आपके भीतर जो यह फिल्म बदलती है वो किसी क्रांति से कम नहीं लगता। यही इस फिल्म की सार्थकता है कि इसे देखते हुए आपके माथे पर बल पड़ें, इसे देखते हुए आपकी भींचती जा मुठ्ठियों में गीलापन उतर आए। आप क्षोभ में भर उठें और आपका दिल करने लगे की अभी जाकर इस दुनिया समाज में जितने भी बुजुर्ग हैं उनके लिए मरने से पहले आप कुछ कर जाएं।
हरियाणवी भाषा में ‘विपन मालावत’ के निर्देशन में बनी यह फिल्म ‘धर्मशाला इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल’ , ‘हरियाणा इंटरनैशनल कल्ट फिल्म फेस्टिवल’ , ‘बायोस्कॉप सिने फेस्टिवल’ , ‘देहरादून इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल’ आदि कई जगह दिखाई जा चुकने के बाद कई सारे अवॉर्ड भी अपने नाम दर्ज कर चुकी है। बेस्ट फिल्म, बेस्ट डायरेक्टर, बेस्ट एक्टर, बेस्ट एक्ट्रेस, बेस्ट स्टोरी जैसे लगभग हर कैटेगरी में अवॉर्ड अपने नाम करना तो बनता ही है इस फिल्म का।
ऐसी फ़िल्में जितनी ज्यादा देखी, दिखाई जाएं, जितने सम्मान से इनकी झोलियां भरी जाएं कम हैं। ऐसी फ़िल्में किसी कमाई के उद्देश्य से बनाई गई कम और समाज को बेहतर बनाने, उसे सार्थकता की ओर मोड़ने के उद्देश्य से बनाई गई ज्यादा प्रतीत होती हैं।
‘विपन मालावत’ का निर्देशन तो काबिले गौर है ही साथ ही ऐसी फिल्मों के निर्माता ‘पंकज राठी’ भी पीठ थपथपाये जाने योग्य हैं। फिल्म की सिनेमैटोग्राफी, कैमरा, एक-एक लोकेशन और उसे शूट करने के तरीके से भी यह फिल्मकारों, सिनेमा से सीखने वालों के लिए सही चुनाव करके फिल्म देखने वालों के लिए एक पाठ है।
‘हेमंत इंदौरा’ , ‘पंकज राठी’ , ‘विपन मालावत’ के सह पटकथा सहयोग से लिखी गई, ‘तान्या नागपाल’ के मेकअप से सजी, ‘ प्रणव मिंगला’ के सुन्दर फॉली साउंड से तैयार हुई ‘ पंकज राठी’, ‘राखी ढुल’ , ‘हरिश्चंद्र कौशिश’ , ‘दीपांशु’ के उम्दा अभिनय के साथ आधा दर्जन छोटी-छोटी रागनियों से कर्णप्रिय बन पड़ी इस फिल्म को जब जहां देखने का मौका मिले देख डालिए या इन्तजार कीजिए किसी ना किसी ओटीटी की शान यह फिल्म जरुर बढ़ाएगी। दुख भरे राग सुनाते रेडुआ की आवाज़ को सुनकर आपके अंतस में अवश्य कुछ गीलापन उतर आएगा जिसे आप ही महसूस कर सकेंगे।
अपनी रेटिंग – 4.5 स्टार
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