सिनेमा

सपनों की चादर में जिंदगी का ‘अखाड़ा’

 

हरियाणा पहलवानों और अखाड़े की धरती, देश के लिए सबसे ज्यादा मैडल लेकर आने वाले प्रांत की धरती। वहीं क्षेत्रीय सिनेमा के मामले में तेजी से ओटीटी पर आगे बढ़ रही स्टेज एप्प की धरती पर रिलीज हुई अखाड़ा कैसी है जानना चाहेंगे? तो चलिए शुरू करते हैं।

सबसे पहली बात रिव्यू शुरू करने से पहले ये कि स्टेज एप्प को अब तक कई बार मैंने अपने रिव्यू से चेताया, आगाह किया कि वे यदि सचमुच में क्षेत्रीय सिनेमा के नाम पर हरियाणा का भला करना चाहते हैं, वहां के कलाकारों, लेखकों आदि के साथ मिलकर वास्तव में कुछ बड़ा करना चाहते हैं तो उन्हें सब्क्रिप्शन के मुगालते से बाहर आकर एक बार अच्छे और सार्थक सिनेमा के बारे में सोचना चाहिए। लगता है कोई और अपने रिव्यू को गम्भीरता से ले या न ले लेकिन स्टेज एप्प वालों पर सचमुच इसका असर दिखाई दिया है इस बार ‘अखाड़ा’ वेब सीरीज के माध्यम से।

महाभारत हो या चाहे इबारत (कहानी) हो कर्ण के लिए सब जगह धोखा ही हुआ है। अखाड़े की कहानी भले सिनेमा की दुनियां में नई न हो लेकिन इसका ट्रीटमेंट और इसका प्लॉट विद स्क्रिप्ट राईटिंग कमाल का है। अखाड़ा हो या कोई और खेल का मैदान उस पर भारतीय सिनेमा में एक से बढ़कर एक अच्छी तो एक से बढ़ कर एक कचरा फिल्में भी बनती रहीं हैं।

पहलवानी के दांव पेंच सीख रहे गरीब कर्ण को पुलिस और एक गैंगस्टर तलाश कर रहे हैं। वहीं एक अन्य किरदार डाडम उसे मरवाना चाहता है। आखरी क्यों? ऐसा क्या कर डाला कर्ण ने? यहां से कहानी पलटी खाकर फ्लैश बैक में चलती है जहां आप देखते हैं गरीब कर्ण अपने बाप का सपना पूरा करने के लिए कुश्ती लड़ता है, दंगल के दांव पेंच सीखता है। मेहनत मजूरी करके जैसे तैसे दो जून की रोटी इनके बन पाती है।

काले दिनों में चांदनी रात का जिंदगी का अखाड़ा खेलते-खेलते कर्ण एक दिन अपने पिता और भाई को खो बैठता है। फिर होता है शुरू दंगल।

इसलिए कि गरीबी सिर्फ पैसों से नहीं दुःख पड़े तो आदमी खुलकर रो भी न पाए तो वह भी गरीबी ही है।जिंदगी के अपने इन्हीं हर दुःख को झेलते हुए कर्ण किस तरह उनसे निपटता है? यह जानने के लिए आपको सीरीज देखनी होगी। साथ ही यह देखने के लिए की अखाड़ा सपनों की चादर है जिसमें जंग लड़ी जाती हैं असलियत और सपनों की। तो किस तरह यह जंग लड़कर इस ओटीटी की अब तक की यह सबसे उम्दा सीरीज बन पाई है इसके लिए भी इसे देखा जाना चाहिए।

साथ ही इसलिए भी देखिए कि फ्लैश बैक की कहानी में जो आता है वो ये कि एक लड़की पूनम के प्यार में पागल कोच का भतीजा मोंटी पहलवान परिवार का इकलौता वारिस है तो पहलवान ही लेकिन साथ ही नशे का शिकार भी है। जो किस तरह जिंदगी के अखाड़े के दांव पेंच आपको सीखा जाता है उसके लिए भी इसे देखिए। वहीं दूसरी ओर पहलवान बनने के सपने को लिए जी रहे कर्ण की जिंदगी में आता है एक ट्विस्ट ओर सीरीज आपको यहीं अपने दूसरे सीजन के इंतजार में छोड़ जाती है। इसलिए भी इसे देखिए ताकि दूसरे सीजन का इंतजार आप बेसब्री से कर सकें।

जिंदगी एक अखाड़ा है एक बार जो दांव हम अपनी जीत के लिए लगाते हैं बहुत बार वही उल्टे मुंह पटखनी दे देते हैं। हरियाणवी स्टेज एप्प पर आज रिलीज हुई वेब सीरीज ‘अखाड़ा’ के ये संवाद आपके हमारे जीवन की असल तासीर को गर्म करते हैं। वहीं स्टेज एप्प पर उपलब्ध अब के तमाम कंटेंट में भी यह सीरीज अपने ओटीटी के सब्क्राइबर की तासीर अवश्य ही गर्म करने आई है।

जिसमें कर्ण बने संदीप गोयत, पूनम बनी मेघा शर्मा, इंदर के रूप में जितेंद्र हूडा, मोंटी बने अरमान अहलावत, कर्ण और इंदर की मां के रूप में सुमन सेन, कोच बने ब्रिज भारद्वाज आदि खूब रंग जमाते हैं। साथ ही सीरीज को लगातार दर्शनीय बनाये रखने के लिए स्पोर्टिंग कास्ट के रूप में सोनू सैनी , हनीफ भाटी, अनिल छिकारा, अमित अंतिल , सुजाता रोहिल्ला , सीरीज के लेखक व क्रियेटर संजय सैनी बराबर आपको पकड़े रखते हैं, अपने लेखन की गर्म तासीर में वो भी इस तरह की आप एक बार में ही इस अखाड़े की सिनेमाई दंगल को देखकर पूरा दम भरें।

सीरीज के लेखक संजय सैनी ने उम्दा लेखन कला का परिचय दिया है, जिसमें संवाद भी बराबर मात्रा में आपका मनोरंजन करते हैं। वहीं इसके डायरेक्टर आशु छाबड़ा का निर्देशन इसे और बेहतर बनाता है। बम्बू बीट का म्यूजिक, बबलू मंडल का दिया गया साउंड बीच-बीच में आपकी आंखों को नम करता है तो कभी जोश, जूनून में इस कदर डूबो देता है कि आपकी भुजाएं फड़क उठें। राहुल आर बाला की सिनेमैटोग्राफी में अवश्य सुधार किया जा सकता था।

एडिटर शिवा बयप्पा के सधे हाथों से एडिट होकर यह सीरीज भले ही अपने तय वादे के मुताबिक कुछ देरी से आई लेकिन मुकम्मल तौर पर आई इस सीरीज को अवश्य देखा जाना चाहिए। यह सीरीज इतना विश्वास तो दिलाती ही है कि ऐसे ही यह ओटीटी अपना काम लेकर आता रहे तो वह दिन दूर नहीं जब नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम को यह टक्कर देने लगेगा।

लेकिन… लेकिन… लेकिन जाते-जाते यह भी कह देना उचित होगा कि अभी भी स्टेज एप्प को बहुत ज्यादा सुधार की जरूरत है। मसलन इस सीरीज में भी कुछ जगहों पर सीरीज की क्वालिटी इस कदर कमजोर लगती है कि वह कुछ देर के लिए मजा किरकिरा सा करती है। स्टेज एप्प जब तक कायदे से इस समस्या का समाधान नहीं पा लेगा तब तक इसकी आलोचना होती ही रहेगी। इसके अलावा भी कई मुद्दे ऐसे हैं जिन पर इन्हें खुलकर विचार करने की आवश्यकता है। साउंड, सिनेमैटोग्राफी, कैमरामैन, एडिटर, एक्टर्स आदि के लिए प्रॉपर बजट का इंतजाम। स्टेज एप्प चाहे तो अपने सब्क्रिप्शन की वैल्यू (कीमत) में कुछ इजाफ़ा करके भी कुछ अच्छा लेकर आ सकने में कायमाब हो सकता है।

अपनी रेटिंग – 4.5 स्टार ( आधा स्टार अतिरिक्त उम्दा क्षेत्रीय सिनेमा के नाते)

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तेजस पूनियां

लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com
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