सुराज की वह आदिवासी सुबह कब आएगी
विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर यह याद रखना जरूरी है कि आदिवासी विमर्श के वर्तमान दौर में आदिवासी इस देश के मूल निवासियों के रूप में अपने हकों के लिए राष्ट्र राज्य से सवाल कर रहे हैं। वे स्वयं को जंगली, वनवासी, जनजाति और ट्राइबल की जगह आदिवासी कहे जाने का आग्रह कर रहे हैं। अपनी आदिवासी पहचान और हकों को लेकर उनमें आती राजनीतिक जागरुकता से बौखलाया हिन्दू राष्ट्रवाद उनकी स्वायत्त आदिवासी पहचान को पचा नहीं पा रहा है और अपने आदिवासी हकों की माँग कर रहे इस देश के मूल निवासियों को उनकी जमीन पर अलगावादी और राष्ट्रविरोधी ठहराने में लगा है।
पत्थलगड़ी का आन्दोलन इसका ज्वलंत प्रमाण है कि कैसे उनके जल-जंगल-जमीन के अधिकारों को राष्ट्रद्रोह और विकास विरोधी बताया गया है। उनकी स्वायत्त चेतना और संघर्षशीलता को कुंद करने के लिए उनके हिन्दूकरण की मुहिम चलाई जा रही है। जो खुद बाहरी और गैर आदिवासी हैं, वे आदिवासियों के मूलवासी होने के दावे से अपने राष्ट्रवाद के लिए खतरा महसूस कर रहे हैं और उलटे आदिवासियों के ऊपर नक्सली, माओवादी होने, अलगाववादी होने का ठप्पा लगा रहे हैं। आदिवासियों के मूलवासी होने के मुद्दे पर घिरता जा रहा यह हिन्दू राष्ट्रवाद दूसरी ओर आदिवासियों के हिन्दूकरण और साम्प्रदायीकरण के लिए मुसलमानों और ईसाइयों को बाहरी बताकर मूलवासी बनाम बाहरी के मुद्दे का राजनीतिकरण करने का प्रयास कर रहा है।
यह साल फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म शताब्दी वर्ष भी है अत: मूलवासी और बाहरी के इस द्वंद्वात्मक मुद्दे को अगर रेणु के मैला आँचल के संदर्भ में हम देखें तो पाएँगे कि कैसे इस देश के आदिवासियों को दिकुओं ने बाहरी और आक्रमणकारी बताकर उनके जमीनी हकों और संस्कृति पर हमला किया है। मैला आँचल में दिकू विश्वनाथप्रसाद द्वारा संथालों पर की गई हँसेरी को केस स्टडी का विषय बनाकर हम समझ सकते हैं कि साम्राज्यवाद के पिछले दौर से लेकर वर्तमान राष्ट्र राज्य तक कैसे इस देश के मूल निवासियों के श्रम का शोषण किया गयाऔर उत्पादन के साधनों पर उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा गया। आँचलिकता से परे आदिवासी दृष्टि से इस उपन्यास को पुनर्पाठ करते हुए हमें देखना चाहिए कि कैसे ऊँची जातियों के ताकतवर जमींदारों, तहसीलदारों और अधिकारियों ने राज्य की संस्थाओं का इस्तेमाल आदिवासियों के खिलाफ करके आजादी की बेला में ही दिखा दिया था कि आजाद भारत में भी आदिवासी दिकुओं की औपनिवेशिक गुलामी से शायद ही मुक्त हो पाएँगे।
संथालों के ऊपर कायस्थ तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद के बहकावे में आकर मेरीगंज की दिकू आबादी ने जो हमला किया और जिस हमले में तहसीलदार के लठैतों-गुंडों ने भी भाग लिया, उस हमले के दौरान हमलावरों द्वारा लगाए गए नारों का समाजशास्त्रीय अध्ययन ‘रामराज्य’ की ओर जाते आज के भारत में आदिवासियों की नियति को समझने की दृष्टि से बहुत महत्व का है। इस हँसेरी में लगाए गए नारे थे – ‘काली माई की जै’, ‘महात्मा गाँधी की जै’, ‘इनकिलाब जिन्दाबाद’, भारथमाता की जै’, ‘सोशलिस्ट पार्टी जिन्दाबाद’, ‘हिन्दू राज की जै’और ‘तहसीलदार विश्वनाथपरसाद की जै’आदि। हम देख सकते हैं कि यहाँ अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के नारे हैं, हिन्दू धर्म को लेकर नारे हैं और राष्ट्रवाद का भी एक नारा है। इन नारों के साथ अन्त में जमींदार तहसीलदार की जै का नारा है और अन्त में आया यह नारा ही पूर्ववर्ती तमाम नारों का अर्थ तय कर रहा है।
स्पष्ट है कि तहसीलदार पूर्ववर्ती नारों का गलत संदर्भ में अनुचित इस्तेमाल का प्रेरक बनता है। यहाँ भारतीय राष्ट्रवाद से लेकर हिन्दू धर्म तक, कांग्रेस से लेकर सोशलिस्ट पार्टी तक, ये सभी आदिवासी संथालों के विरोधी नज़र आते हैं। इनमें से एकाध हो सकते हैंकि आदिवासियों के प्रति शेष की अपेक्षा किंचित सहानुभूति रखते हों, और यह अलग बहस का मुद्दा भी हो सकता है। किंतु रेणु दिखाते हैं कि तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद जैसी दिकू सत्ताएँ इन सबका इस्तेमाल हाशिये के लोगों के खिलाफ करती हैं। आज के भारत में भी आप धर्म से लेकर राष्ट्रवाद तक, सभी का इस्तेमाल सत्ता में बैठे लोगों द्वारा आदिवासियों के विरोध में होता पाते हैं।
जो दलित-पिछड़े भूमिहीन खेत मजदूर संथालों के विरोध में मेरीगंज की दिकू सत्ताओं के साथ खड़े हैं, जो अपने वर्गीय हितों के खिलाफ जाकर भीतरी-बाहरी के भ्रामक मुद्दे पर परस्पर ही विभाजित हो गए हैं, उपन्यास में सेकुलर हिंदुस्तान का प्रतीक डॉ. प्रशांत फूट डालो राज करो के देशी अवतार तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद के खिलाफ उन्हें आगाह करता है। डॉ. प्रशांत पिछड़ी जाति से आने वाले कालीचरण से जो कहता है, वह आदिवासी दिवस के दिन तमाम वंचित-दमित अस्मिताओं के एका की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। वह आदिवासियों के साथ-साथ दलितों-पिछड़ों और अन्य अल्पसंख्यकों की आँखे खोलने वाला है – ‘यह मत समझना कि संथालों की जमीन छुड़ाकर ही जमींदार संतोष कर लेगा। अब गाँव के किसानों की बारी आएगी।’
अस्तु, आदिवासी दिवस के दिन संसाधनों पर इस देश के मूल निवासियों और कामगार बहुजन समाज के अधिकारों की स्थापना की अहमीयत समझना जरूरी है। इस देश के विकास में जिन लोगों का सबसे ज्यादा योगदान रहा है, जिन लोगों के प्राकृतिक संसाधनों की लूट पर इस देश की जीडीपी टिकी है, उन्हीं की सभ्यता-संस्कृति को, उन्हीं के अधिकारों को रौंदकर कोई राम राज्य स्थापित नहीं किया जा सकता। राम मंदिर की भूमि पूजा के अवसर पर एक षड्यंत्र के तहत झारखंड के आदिवासी सरना स्थलों की मिट्टी अयोध्या पहुँचाई गई,और कुछ बिके हुए आदिवासियों ने इसमें विभीषण की भूमिका निभाई, उन्हें भी अज्ञेय की यह कविता याद रखनी चाहिए –
जो पुल बनाएँगे
वे अनिवार्यत:
पीछे रह जाएँगे।
सेनाएँ हो जाएँगी पार
मारे जाएँगे रावण
जयी होंगे राम,
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बन्दर कहलाएँगे।
आज आदिवासी समाज इस आदिवासी दिवस के मौके पर भारत के विगत इतिहास और आगामी भविष्य में अपनी हिस्सेदारी की माँग कर रहा है। वह आज किसी के राम राज्य में बंदर-भालू बनने को तैयार नहीं है। वह पूँजीपतियों और ठेकेदारों की आत्मनिर्भरता के लिए खुद अपने जल-जंगल-जमीन से विस्थापित हो पर-निर्भर होने के लिए अब तैयार नहीं है। वह अब और गैर आदिवासी राम राज्य का जुआ अपने कंधों पर ढोने की नियति स्वीकार नहीं कर सकता। मैला आँचल के संथालों की जैसे अब वह सुराज समारोह में नाचने-गाने को तैयार नहीं है विशेषत: तब जब उसी सुराज समारोह के साथ देशी दिकू सत्ता आदिवासियों के दमन का मुकदमा समारोह भी मनाती हो।
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