आवरण कथा

विकास और अस्तित्व का संघर्ष

 

  • महेन्द्र यादव

तथाकथित विकास के विनाशकारी रूप, भ्रष्टाचार, सरकारी अफसरशाही के निकम्मेपन, नेताओं के दावे और हकीकत के फासले, अपने लोगों की बातें अनसुनी करने वाली चुनी सरकार का नमूना एक साथ देखना हो तो बिहार का कोशी क्षेत्र जरुर याद आ जाएगा|

दुनिया की सबसे अधिक सिल्ट लोड वाली नदियों में एक कोशी,सप्त कोशी के रूप में हिमालय के ऊँचे  शिखर से उतरती निम्न हिमालय (शिबालिका) से गुजरती तीव्र  ढलानों अनेक हिमनदों का जल समेटती मैदानी इलाके में पहुंचती है तो चौड़े पाटो में फैलकर सिल्ट व गाद बिखेरती बढती है| इसी कारण अपनी धाराओं को बार-बार बदलती हैं| तथाकथित विकास के नाम पर नदी की धारा को नियंत्रित करने की योजना आजादी के बाद शुरू हुई।1955 ई0 में कोशी के पूर्वी  किनारे पर बीरपुर से कोपरिया तक 125 किमी लम्बा और पश्चिमी किनारे पर नेपाल में भारदह से सहरसा में घोघेपुर तक126 किमी लम्बा तटबंध बनाने का काम शुरू हुआ जो कि 1963-64 तक पूरा  कर लिया गया।

दोनों तटबंधो के बीच बसे किसानों को खेतों के बदले खेत तो दूर जमीन का मुआवजा भी नही मिला| घर की जमीन के बराबर जमीन देकर तटबंध से बाहर पुनर्वास करने का कार्य भी अधूरा रह गया| जिन्हें मिला भी वे बाद में जब खेती इत्यादि करने अपने गांव लौटे तो उनकी जमीन पर भी बड़े पैमाने पर अवैध कब्जा हो गया| बाद में इस मामले पर जरुर राजनीति गरमाई, अनेक बार घोषणाएँ हुईं पर धरातल तक कुछ नही पहुंचा| समय के साथ समस्या और नदी के बीच लोगों को सबने भुलाना शुरू किया| अब तो उनकी हालत यह है कि प्रमुख दलों के नेता भी चुनाव के समय वोट मांगने तटबंध के अंदर जाने से हिचकते हैं, अफसर की तो बात ही क्या? परन्तु नदी तो निरन्तर बहती रही और अपने साथ बालू, सिल्ट, गाद को लाकर जमा करती रही| अब तो स्थिति यह हो गयी है कि तटबंध के अंदर के भू भाग ऊँचे हो गये हैं और तटबंधो के बाहर की जमीन उनसे नीचे  हो गई है| इसी कारण समय-समय पर  नदी तटबंधो को तोड़ने को बेताब हो जाती है| नदी के पश्चिमी तटबंध के अंदर निम्न बांध के नाम पर नये  तटबंध की संरचना और महासेतु के निर्माण से अब धाराएं भी पहले से ज्यादा भयावह और खतरनाक रूप से बदलती हैं| इसके भयावह  परिणाम सामने आते रहते हैं| किसान मजदूर एक साथ पलायन कर मजदूरी करके विषम परिस्थिति में जीवन यापन करते हैं| यूँ कहें कि  विकास का काला पानी भोगते हैं तो अतिश्योक्ति नही होगी| परन्तु इन सब के बावजूद सरकार व तन्त्र की अमानवीयता यहीं  नही रुकती| बालू व नदी के बीच  यदा-कदा  खेती योग्य जो जमीन बनती है, जिनमे खून-पसीना लगा कर थोड़ी उपज किसान करते है, वह भी आपदाओं की भेंट चढ़ती रहती है और ऐसे समय मे फसल  क्षति लेने के लिए लगान व सेस जमा कराकर रसीद अप टू डेट कराना अनिवार्य कर दिया जाता है। आपदा के मारे किसान पैसा कहां से जुटाएंगे, इस पर विचार ही नही होता| लगान का 145%  सेस शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क और कृषि के विकास के नाम पर लिया जाता हैं जबकि सड़क, स्वास्थ्य और कृषि विकास का कोई कार्य ही वहां नहीं होता स्कूल भी कहीं-कहीं और नाम मात्र के झोपडी में है| दूसरी तरफ सरकार बालू उठाने की बड़ी-बड़ी परियोजनाएँ बनाती है और सिल्ट गाद हटाने व उसके मैनेजमेंट इत्यादि के  नाम पर बैठकें  बड़े-बड़े सितारा होटलों में करती है|

तटबंध बनने के बाद सुरक्षित समझे जाने वाले क्षेत्र की हजारों एकड़ जमीन जल जमाव से बेकार हो गयी हैं तो सुरक्षित समझे जाने वाले इलाके भी तटबंधों के टूटने से तबाह होते रहते हैं| ये तटबंध डलवां (1963), जमालपुर(1968),भटनियां (1971),बहुआरा (1981),नवहट्टा(1984), गण्डौल(1987),जोगनिया नेपाल(1991),कुसहा नेपाल(2008) में टूटे हैं और भारी क्षति हुई है|

18 अगस्त 2008 को कोशी  नदी, अपने पूर्वी तटबन्ध को भारत की सीमा से 8 किमी नेपाल की ओर  कुसहा में तोड़ते  हुए कोशी वासियों पर कहर बन कर  टूट पड़ी। 15 से 20 किमी की चौड़ाई में नेपाल के बाद बिहार के सुपौल, अररिया, पूर्णिया, मधेपुरा व सहरसा इत्यादि जिलों के पच्चासों लाख लोगों  पर कहर बरपाते व प्रलय मचाते हुए नदी की धारा लगभग 150 किमी बाद कुरसैला में जाकर मिली। जबकि उस समय नदी में मात्र 166,000 क्युबिक प्रति सेकेण्ड की दर से पानी का बहाव था। बिहार सरकार, विश्व बैंक व जी.एफ.डी.आर.आर.,कोशी फ्लड नीड्स एंड असेसमेंट रिपोर्ट के अनुसार इस मानवजनित  त्रासदी में नेपाल व भारत का  3700 वर्ग किमी क्षेत्र प्रभावित हुआ। बिहार में 412 पंचायतों के 993 गांव इसकी चपेट में आये। इस त्रासदी में 2,36632 घर ध्वस्त हुए। 1100 पुल एवं कलवर्ट टुटे व 1800 किमी रोड क्षतिग्रस्त हुए। 38000 एकड़ धान की, 15500 एकड़ मक्के की, 6950 एकड़ अन्य फसलें बर्बाद हुई। 10000 दुधारू पशु , 3000 अन्य पशु व 2500 छोटे जानवरों की मृत्यु हुई। इसमें 362 लोग की मृत्यु एवं 3500 लोग लापता दर्ज किये गये। यह तो सरकारी आकड़ा है असल क्षति इन आकड़ो से कई गुना ज्यादा है।

राहत व बचाव कार्य के लिए केंद्र सरकार ने  हजार करोड़ से ज्यादा पैसे दिए|  केंद्र और राज्य सरकार में  मतभेद के बाद राज्य सरकार ने पुनर्वास और पुनर्निर्माण कार्यो के लिए कोशी फ्लड रिकवरी प्रोजेक्ट नाम से 220 मिलियन अमेरीकी डालर का कर्ज विश्व बैंक से लिया| पुनः कोशी बेसिन डेवलपमेंट प्रोजेक्ट नाम से 250 मिलियन अमेरिकी डालर का लोन आया है| इन दो बड़े  कर्ज के बावजूद कोशी वासियों  के दर्द कम नही हुए हैं| आज तक लगभग 62000 घर ही बन पाये  हैं जो कुल जरूरत  के लगभग  26% हैं|

राहत कार्यो की पड़ताल करें तो मधेपुरा में उस वक्त सी आर एफ के फार्म 9 में 92,343 घर पूर्ण रुप से ध्वस्त होने का उल्लेख हैं उसके अलावे नगर निकायों – मुरलीगंज और मधेपुरा में 3672 घर पूर्ण रूप से ध्वस्त हुए थे| इनकी क्षति के लिए वितरित होने राशि में भी 436,997,000 की अर्थात 85% राशि वितरित नही की गयी  जबकि इसके अलावे अंसिक क्षति वाले 33447 लोगों के घर ध्वस्त हुए थे| इसी प्रकार अन्य क्षतिपूर्ति की स्थिति हैं| आज भी 2008 के बाढ़ में मृतक अनेक लोग अनुग्रह अनुदान के लिए भटक रहे हैं| तो बाढ़ में लापता दर्ज लोगों को कौन पूछता हैं, सरकारी आंकड़ों में जिनकी संख्या 3500 दर्ज हैं|

उसी प्रकार पुनर्वास के बनी चार चरणों योजना में मात्र दो चरण के लिए  28000 घर बनाने की योजना शुरू हुई| जिसे अब  समाप्त कर दिया गया जबकि  दूसरा चरण भी पूरा नही हो पाया हैं| सी आर एफ के फार्म 9की सूचि के 64343 घर तथा नगर निकायों के 3672 कुल 68015 घर वंचित रह गये और आंशिक क्षति के घर 33447 को जोड़ दें कुल 101462 बंचित रह गये|

त्रासदी की जांच के लिए बने जांच आयोग की रपट पर किसी को दंडित नही किया गया हैं|पिछले वर्ष आयी बाढ़ ने सरकार के बाढ़ के खतरों को कम करने और दीर्घ कालीन योजना बनाने की पोल खोल दी हैं| पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील कोशी अंचल में आपदाओं का अनेको बार सामना करते किसानों को आज भी न्यूनतम समर्थन मूल्य नही मिल पाता हैं न ही कोशी क्षेत्र में नगदी फसल के रूप में मक्के के क्रय की कोई सरकारी व्यवस्था हो पायी हैं| पलायन तो बदस्तूर जारी हैं| पलायन करने वाले लोगों की योजनाये आज भी धरातल पर नही उतरी है| कुछ ठेकेदारी पर निर्मित होने कार्य जरुर हुए हैं बीरपुर में भव्य भवन बना हैं| अफसरशाही और बड़े ठेकेदारों के चश्में से देखते हुए राज्य के मुखिया ने दावा किया हैं कि पहले से बेहतर कोशी हमने बना दिया हैं|

इनके लिए लोग अनेकानेक बार संघर्ष किए पर हर बार बस थोड़ी कुछ राहत और आश्वासन ही मिला| आज भी वहां के लोगों को कोशी नव निर्माण मंच जैसे 2008 की त्रासदी से समय गठित संगठन के आह्वान पर संघर्ष का रास्ते चल रहे हैं लगान मुक्ति के लिए जन सुनवाई की गयी यात्राएं चरणवद्ध तरीके से की जा रही है| लगान नही देने के सिविल नाफरमानी आन्दोलन की जमीन तैयार हो रही तो दुसरे तरफ बाढ़ राहत से लेकर किसानों के सवालों पर संघर्ष जारी हैं|2008 के त्रासदी के पीड़ितों को पुनर्वासित कराने के लिए स्थानीय स्तर से मुख्यमंत्री के आवास का घेराव और विधान सभाओं के समक्ष सत्याग्रह जैसे कार्यक्रम जोरदार तरीके से हुए हैं अनेक धरना प्रदर्शन के बाद सूबे के मुखिया को भी थोथी घोषणा करनी पड़ी है कि पहले से बेहतर कोशी बना रहे हैं| जन विकास और आपसे अस्तित्व के लिए संघर्ष जारी हैं|

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और जनान्दोलनों के राष्ट्रीय समन्वय से जुड़े हुए हैं|

सम्पर्क- +919973936658, napmbihar@gmail.com

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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