समाजशास्त्र के परे हैं समाज और लौट रहे लोग
ये लेख एक अतिश्योक्तिपूर्ण लगने वाली धारणा के साथ शुरू करूँ। भारत का समाजशास्त्र बीमार है, और ये विफल है लौट रहे लोगों को समझने में। सम्भवतः अंचलों में स्थित समाजशास्त्र के विद्यार्थी समझ पाएँ क्योंकि महानगरों में तो यदा कदा हीं अनुभव की जटिलताओं पर कोई बहस हो पाती है। वहाँ तो नामी गिरामी समाजशात्रियों की लगभग पूजा-अर्चना हीं होने लगती है, तो आलोचनात्मक आत्म चिन्तन क्या हो! अंग्रेज़ी में कुछ भी लिख दें तो वो भाग्य की रेखा हो जाती है चाहे उसमें सोच और समझ हो या न हो।
स्कूल, कॉलेज और विश्विद्यालयों में समाज विज्ञान के विद्यार्थियों को जानी पहचानी किताबों को किनारे रख एक साधारण प्रश्न पूछना होगा, अपने शिक्षकों से और अपने आप से। क्यों पढ़ें ऐसा समाजशास्त्र जो देख नहीं सकता दुःख, दर्द, और जटिल विवशताओं को? सड़क पर बिलख रहे बच्चों की पीड़ा, माओं के आर्तनाद, पिताओं के संघर्ष, और मानवीयता के विलाप नहीं सुन सकता। जो महानगर, छोटे शहरों और गाँव के सम्बन्ध को समझ नहीं सकता; समाज के समकालीन जटिलताओं को नहीं समझ सकता जो समाजशास्त्र उसमे न्याय और अन्याय का क्या हीं बोध होगा। और ज़ाहिर है ऐसे समाजशास्त्र में हम महसूस नहीं कर सकते कि उल्लुओं का मिनर्वा ताश के महल जैसा ढ़ेर हो रहा है।
रात दिन सीखते रहते हैं, समाज के बारे में, संरचनाओं के बारे में, रिश्ते-नाते, संस्कृति और राजनीति के बारे में, और ऐसी कितनी और बातें। लेकिन ये सब जिन लोगों से सम्बन्धित है, उनसे कोई सम्बन्ध नहीं बन पाता। क्या विडम्बना है, सबकुछ पहले से हीं तयशुदा विचार, सिद्धान्त, और विश्लेषण की इकाइयों में गुम हो जाता है।
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कोई खड़ा होकर कहेगा- क्यों, फील्ड वर्क तो करते हैं? और यही विडम्बना है, हम फील्ड वर्क करते हैं, समाज हमारा फील्ड मात्र है, जहाँ हम महज अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए जाते हैं। वहाँ के लोग बस हमारे रेस्पोंडेंट हैं, इन्फॉर्मॅट हैं, हमारे सब्जेक्ट हैं। उनसे हमारा क्या सम्बन्ध? अन्ततः वो सब मूर्ख, भावुक, चालक जीव हैं जो भरोसे के लायक नहीं। और हम जो उनके बारे में लिखेंगे, ज्ञान बाँचेंगे, विद्वान होंगे। महाकवि अज्ञेय की वो कविता बरबस याद हो आती है- जो पुल बनाएँगे, इतिहास में बन्दर कहलायेंगे। अजी, इतिहास तो दूर ठहरा, वो तो आनन फानन में समाजशात्री नामक मदारी के बन्दर हो जायेंगे। और उन लौट रहे लोगों की वेदना बस समाजशात्रीय नाट्य कला के सहायक वस्तु होकर रह जायेंगे। बस मदारी घूम-घूम कर उनका तमाशा दिखायेगा।
ये समाजशात्री मदारी तरह तरह के सेमिनार और कॉन्फ्रेंस में अपने जलवे दिखाते हैं। और कुछ नहीं तो लॉक डाउन के दौरान अजीबोग़रीब वेबिनार में, सज-संवर कर आएँगे और बंदरों के करतब दिखाएँगे, या करतबों के बारे में बताएँगे, और सर्टिफिकेट पाकर अपनी सी-वी में जोड़ लेंगे। कुछ उच्च कोटि के बाज़ारू सामजशास्त्री बड़े ब्रांड वाले मीडिया के लिए लेख भी लिखेंगे। लच्छेदार भाषा में कुछेक टेसुवे भी बहाँयेंगे। लेकिन ध्रूव सत्य नहीं बदलेगा- लोग तो बस बन्दर कहलायेंगे। लोगों के दुःख-दर्द बस मदारी के खेल का हिस्सा बन कर रह जायेंगे।
कहाँ है वो समाजशास्त्र जिसमे लोग बस लोग रहें, उनका दुःख हमें दुखी कर सके, उनके आँसू हमें रुला सकें, और उनके संघर्ष में हम आशा की किरणें देख पाएँ? ये यक्ष प्रश्न हमारे मन में बना रहे और हम कोशिश करते रहें उत्तर ढूंढने की। फ़िलहाल ये देखते हैं कि क्या हो गया वर्तमान में उपलब्ध समाजशास्त्र को।
क्यों है बीमार समाजशास्त्र? एक अरसे से यह चल रहा है। कितने हीं पहलू हैं इस बीमारी के। सम्भवतः इस एक लेख में सभी पहलुओं पर विचार करना सम्भव ना हो । लेकिन कुछ मोटामोटी बातें तो कही हीं जा सकती हैं। शुरू से हीं, इसमें भी एक्सपर्टीज़ वाली बीमारी लग गयी। कोई अर्बन एक्सपर्ट है जो शहर को समझेगा, कोई बस ग्रामीण विषयों को जानेगा; कोई रिश्ते-नाते की चर्चा करेगा और कोई और कुछ नहीं बस थ्योरी-थ्योरी खेलेगा। कुछ ऐसा हीं बन्दर-बाँट हो गया। जैसे अस्पतालों में डॉक्टर करते हैं- ह्रदय विशेषज्ञ गुर्दे के प्रश्न पर नहीं बोलेगा और हड्डी के स्पेशलिस्ट कभी नर्वस सिस्टम की बात नहीं सोचेंगे।
समाजशास्त्र में तो मामला इतना गंभीर है कि अगर आप कहें कि विद्जनों, इमोशन तो हर जगह, हर प्रकार के समाज में, रिश्तों में, प्रक्रियाओं में होता है। उस पर तो सबको समझ होनी चाहिए। विद्जन झट से कहेंगे, है ना एक विशेष शाखा, सोशियोलॉजी ऑफ़ इमोशन, उसमें जाइये। हम तो बस जाति जानते हैं या वर्ग, या फिर लिंग और पितृसत्तात्मक व्यवस्था, या धर्म और साम्प्रदायिकता, या स्थानांतरण और मजदूरी, या फिर आन्दोलन और राजनीति, हम नहीं बता पाएँगे इमोशन के बारे में।
ऐसी आधुनिक पण्डितगिरि है ये कि इसमें पहचान की राजनीति भी सहज हीं घुलमिल जाती है। कोई दलित है और वही दलित को समझ सकता है। कोई मुसलमान है और उसे हीं अधिकार है मुसलमानों को समझने और बात करने का। कोई औरत हीं फेमिनिस्ट हो सकती है। और किसी के नाम में तथाकथित सवर्ण का संकेत है तो उसकी सारी सोच-विचार को सवर्ण हीं मान लिया जाता है। घालमेल और गहरा हो जाता है अगर उसमे विचारधाराएँ जुड़ जाएँ। कोई व्यावसायिक मार्क्सिस्ट हीं वर्गों की असामनता और अन्याय को समझ सकता है। कोई अम्बेडकरवादी हीं दलित युवा के विषय में बातें करेगा। और कोई गाँधी को समझने की कोशिश करते हुए पाँच गालियाँ नहीं देता तो वो निश्चित रूप से बूजुरवा पूँजीवादी है। एक अजीब क़िस्म की जातिवादी व्यवस्था बना रखी है। कहाँ से देख, सुन, और समझ पाएँगे ये दुख-पीड़ा-वेदना को।
ये जैसे अपने आपको आइडेंटिटी से बाँध के रखते हैं, वैसे हीं ये तथाकथित फिल्ड में स्थित लोगों को भी देखते हैं। ये किसी सरकारी तन्त्र के चालाक बाबुओं से कम नहीं। मौका देखते ही पलटी भी मारते रहे हैं। हाथ छाप की सरकार में ये हाथ दिखाएँगे, कमल छाप में कमल खिलाएँगे, और अगर झाड़ू का दम हो तो झाड़ू भी पकड़ लेंगे। अगर राजनीतिक स्थिति अनुकूल हो तो सबके सब उग्र विचारक होंगे, और अगर प्रतिकूल तो सब अपने आप को मध्यम वर्गीय, तनख्वाह पाने वाले बेचारे, घोषित कर अपने अपने घर बैठ जायेंगे।
अब आते हैं उन लौट रहे लोगों की ओर जिनको देख के बीमार समाजशास्त्र के कर्ता-धर्ता बाज़ारू समाजशात्रियों में थोड़ी बहुत गहमा गहमी मची है। अव्वल तो ये कि इनपर जल्दी असर नहीं पड़ता। ये जीव के मर जाने का, घटना के घट जाने का, भावनाओं के ठंडे हो जाने का इंतज़ार वैसे हीं करते हैं जैसे राजनीतिक नेतागण और पुलिस। और अगर घटनाओं पर टीका टिपण्णी करते भी हैं तो इस बात का ध्यान रखते हुए कि वो भावना में ना बहें। सत्य के अन्वेषण में इमोशन एक बाधा मात्र लगता है इन आधुनिक पण्डितों को।
इसीलिए तो जब वो उन लौट रहे लाखों लोगों के बारे में लिखते हैं तो कहीं भी लेश मात्र ये बोध नहीं होता कि वो लोगों के दुःख-दर्द की विवेचना कर रहे हैं। सब घूम फीर कर उन्हीं गोलमटोल गलियों में पहुँच जाते हैं जहाँ बस शब्द सुनाई पड़ते हैं, कांसेप्ट का कब्ज़ा होता है, तकनीकी जार्गन गरजते हैं। लोग नहीं होते, बस लोगों के कंकाल होते हैं यूनिट ऑफ़ एनालिसिस यानि विश्लेषण के इकाई के रूप में।
लोगों का अस्तित्व, उनके दैनिक जीवन के संघर्ष और अनुभूति की बारीकियों की तो उनसे अपेक्षा हीं नहीं की जा सकती। अगर कोई समाजशास्त्री अपवाद स्वरुप उन बारीकियों में घुसे तो उसे साहित्यिक कह कर हाशिये पर धर देने की पुरानी परंपरा है। बहुतेरे उदाहरण भरे पड़े हैं भारत के बौद्धिक इतिहास में। ऐसे में कैसे समझेंगे लौट रहे लोगों को, उनके शहरी जीवन की विवशताओं को या उन जगहों को जहाँ वो लौटने की कोशिश कर रहे हैं। ये बेचारे समाजशात्री कैसे जोड़ पाएँगे महानगरों, छोटे शहरों और गाँव को। ये भारत के आधुनिक पण्डित जिन्होंने साहित्य-संस्कृत-कला विहीन होने को अपनी विशिष्टता मान लिया, कैसे जान पाएँगे जीवन की पेचीदगियों को। अन्ततः अब एक मात्र उम्मीद है कि इलाहाबाद, लखनऊ, गोरखपुर, पटना, भोपाल, पुणे, हैदराबाद सरीखे जगहों पर पढ़ रहे भविष्य के युवा समाजशात्री इस विषय पर सोचना शुरू कर दें।
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