रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने कभी एक चिट्ठी लिखी थी जिसे बाद ‘मानसी’ संकलन में उन्होंने शीर्षक दिया गया ‘पत्र की प्रत्याशा’। इसमें वे अपने किसी प्रिय को चिट्ठी लिखते हैं और देर दिनों तक उत्तर की प्रतीक्षा करते हैं। चिट्ठी नहीं आती। ऐसी ही एक गहरी सन्ध्या चिट्ठी न आने की निराशा लिये वे नदी के किनारे चलने लगते हैं। एकाएक उनकी नजर आकाश पर पड़ती है। असंख्य तारों भरे इस आकाश को देखकर वे खुश हो जाते हैं। लिखते हैं, देखो आ तो गयी चिट्ठी। असीम यानी अनन्त ने मुझे भेजी है तारों के हर्फ (अक्षर) में लिखी यह चिट्ठी।
बाद में रबीन्द्रनाथ इस दृश्य का प्रयोग अपने नाटक ‘डाकघर’ में करते हैं जब अमल के पास चिट्ठी आती है। इस नाटक यानी दृश्यकाव्य का यह केन्द्रिय बिम्ब है। यही बिम्ब पूरे काव्य की रचना छान्दसभाषा में करता है। छान्दसभाषा का अर्थ है बात को सीधे सीधे न कह कर प्रतीकों या लक्षणा में कहना। नाट्यशास्त्र में आचार्य भरत ने इसी अभिप्राय को रूपक कहा है। रूपक जो पूरे दृश्यकाव्य की अन्तर्वस्तु में निहित विचार को किसी एक बिम्ब में व्यक्त या रूपायित कर दे।
फिल्म की सिनेमैटोग्राफिक भाषा में यही इमेजरी है। जो हम इंगमार बर्गमैन या आन्द्रे तारकोव्स्की या फिर क्रिस्टफ किस्लोव्स्की की फिल्मों में देखते हैं। जैसे बर्गमैन ऐसी एक इमेजरी ‘दी सेवेन्थ सील’ के आरम्भ में रख देते हैं। नायक मृत्यु से शतरंज खेल रहा। यह इमेजरी है। केन्द्रिय बिम्ब। अब पूरी कहानी में दर्शक यह देखने के लिए तैयार हो जाते हैं कि कौन जीतता है। या उन्हीं की फिल्म ‘दी वर्जिन स्प्रिंग’ में उस युवती को जिसे बलात्कार के बाद मार डाला गया है, बलात्कारी युवक जब छुपाने के लिए घसीटते हैं तो जमीन से पानी का एक फव्वारा फूट पड़ता है।
ऐसा लगता है मानो धरती रो पड़ी है उस निर्जन एकान्त में हुई इस निर्लज्ज मानुषिक क्रूरता पर। ऐसी कोई इमेजरी सत्यजित रे की किसी फिल्म में नहीं है। ‘गुपी गाइन बाघा बाइन’ में भूतों के सामूहिक नृत्य का एक सिल्यूट दृश्य है जिसे अविकल ले लिया गया है ‘सेवेन्थ सील’ से। ‘अपराजितो’ में हरिहर के देहान्त पर काशी के घाट पर एक साथ कबूतरों का उड़ना ऐसी इमेजरी नहीं है। हालांकि लगता है कि मुक्त हुई हरिहर की आत्मा। यह भाव यहाँ महत्व का है।
हम जानते हैं कि दो प्रकार की फिल्में होती हैं, व्यावसायिक और कला। ये श्रेणियां उद्देश्य की दृष्टि से बनायी गयी हैं। जैसे व्यवसाय करना उद्देश्य है तो व्यावसायिक फिल्म। लेकिन हमें दो बातों पर सामान्यबोध के स्तर से ध्यान देना होगा। एक तो यह कि सिनेरचना की पूरी प्रक्रिया में ऐसा कुछ भी नहीं है जो कला न हो। यह एक कलामाध्यम है। पटकथालेखन, सिनेमैटोग्राफी, प्रकाश, ध्वनि या सम्पादन सब कुछ कला है जिसका उपयोग व्यावसायिक फिल्म के लिए भी अनिवार्य रूप से होता है। इसलिए अलग से कलाफिल्म संज्ञा का कोई मतलब नहीं बनता। लेकिन यह संज्ञा पिछले साठ सालों में इतनी प्रचलित हो चुकी है कि कलाफिल्म कहते ही हम समझ जाते हैं कि कौन सी या किस तरह की फिल्म।
ऐसा भारत में इसलिए हुआ है क्योंकि हम उस सिनेभाषा से अभी तक परिचित नहीं हुए जिसमें सिनेमा की शब्दावलियां पहले से निर्धारित हैं। उसे न जानने के अभाव में हम कला, सार्थक और समानान्तर सिनेमा आदि कहते रहे हैं। दरअसल कलात्मक या नया विचार लाने के उद्देश्य से बनायी गयी कम बजट की ये व्यावसायिक फिल्में ही हैं। देखना चाहें तो हम देख सकते हैं कि जिस दौर में यानी 1913, 14 में ढुंढिराज फाल्के सिनेमाध्यम में राजा हरिश्चन्द्र, कृष्णलीला और लंकादहन पर्दे पर देख कर विभोर हो रहे थे कि इन मिथ चरित्रों को हम चलते फिरते देख रहे हैं उसी दौर में उन्हीं सीमित साधनों में चार्ली चैप्लिन ने एक कॉमनमैन की कल्पना कर सामाजिक बुराइयों पर प्रहार करना शुरु कर दिया था। वे इस नये कलामाध्यम में एक विजुअल स्टोरीटेलर यानी एक दृश्यकथाकार भर नहीं थे। वहाँ विचार था। फाल्के से रे तक हमें कथा को दृश्यरूप में कहने की प्रतिभा दिखती है। विचार नहीं।
और अन्त में, दूसरी बात यह कि फिल्में दो प्रकार की ही हो सकती हैं। पहली है यथार्थ की पुनर्रचना। फिल्मकार अपने दौर और देशकाल में जिस यथार्थ से संवेदित होता है उस यथार्थ की वह सिनेकला माध्यम में फिर से रचना करता है। जैसे भागलपुर जेल में कैदियों की आंखें फोडे़ जाने की घटना पर बनी ‘गंगाजल’। या यदि फिल्मकार को लगता है कि किसी कहानी या उपन्यास में व्यक्त कोई अस्वस्थ सामाजिक स्थिति आज भी है और इसके प्रति समाज को सचेतन करना चाहिए ताकि दृश्य बदले तो रे फिल्में बनाते हैं पॅथेर पांचाली, जलसाघर, चारुलता, अरण्येर दिन रात्रि, गणशत्रु या सद्गति। श्याम बेनेगल बनाते हैं भूमिका, निशान्त या मन्थन। या फिर मृणाल सेन बनाते हैं कोलकाता त्रयी या फिर ऋत्विक घटक की सारी फिल्में। ऐसी फिल्मों की उम्र हुई सौ साल से अधिक।
अब दूसरी प्रकार की फिल्मों को देखें। दूसरी प्रकार की फिल्में वे हैं जिनमें किसी मौलिक विचार या दार्शनिक प्रश्न पर विमर्श करने के लिए सिनेमा के एकमात्र मुख्य माध्यम सिनेमैटोग्राफी का प्रयोग किया गया हो। सिनेमैटोग्राफी कला अपने कवि की प्रतीक्षा करती है। यह फोटोग्राफी के विलोम में है। ऐसी फिल्मों में फिल्मकार किसी कहानी या सामाजिक यथार्थ को दोहराता नहीं, उस रियलिटी का रीप्रोडक्शन नहीं करता बल्कि अपने आन्तरिक संसार को दर्शक के साथ साझा करता है। बर्गमैन, ब्रेसां या तारकोव्स्की की फिल्में ऐसी ही फिल्में हैं। यह क्लासिक सिनेमा है, एक कलात्मक कृति जो उत्पाद या कमोडिटी नहीं हो सकती। ऐसी फिल्मों की उम्र अभी बहुत कम है और भारत में अभी तक ऐसी कोई फिल्म नहीं बन पायी है।
दार्शनिक प्रश्न वे समस्या हैं जिन पर सुकरात और वैदिक ऋषियों के समय से लेकर कान्ट, कामू और रबीन्द्रनाथ के समय तक विमर्श चलता आया है। जैसे मृत्यु की समस्या, दुःख, प्रेम और बुराई की समस्या। बुराई या इविल की समस्या को हम कैसे देखें और मनुष्य को इससे मुक्ति कैसे मिले, बर्गमैन या तारकोव्स्की की फिल्मों की यह केन्द्रिय समस्या है, जिसे रचनात्मक ढंग से देखने की एक कोशिश ‘साधना’ में रबीन्द्रनाथ ने की है, जिसकी या ऐसे किसी प्रश्न पर विमर्श सत्यजित रे की फिल्मों में कभी नहीं मिलता, सिवाय उनकी अन्तिम फिल्म ‘आगन्तुक’ में जीवन को ब्रह्मसमाजी दृष्टि से देखने के। ‘सेवेन्थ सील’ मृत्यु की समस्या पर ही है।
तो फिर विश्व सिनेमा में हम सत्यजित रे के अवदान को कैसे देखें, कैसे देखते हैं, यानी कैसे देखते आ रहे हैं? जैसे देखते आ रहे हैं उस पर गैस्तों रोबेर्ज, ऐन्ड्रियु रॉबिन्सन, मारी सेटाॅन और चिदानन्द दासगुप्त आदि समीक्षकों ने पिछले पचास सालों में खूब लिखा है। आइए कुछ नये ढंग से उनकी कलादृष्टि को देखने की कोशिश करें। यानी हम यह देखें कि क्लासिक सिनेमा के प्रकाश में उनकी कृतियां कितनी प्रकाशित दिखती हैं। उन सभी समीक्षकों के अनुसार ‘चारुलता’ रे की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। आपको दिखेगा कि ऐसा नहीं है। रबीन्द्रनाथ होते तो उन्हें यह पहले दिखता। उनके उपन्यास ‘नष्टनीड’ पर आधारित ‘चारुलता’ को हम रे की ओर से ही देख सकते हैं।
बिम्ब के छन्द में गद्य
रे की ओर से उनकी उन फिल्मों को देखने जो कहानी या उपन्यास पर बनी है, का तात्पर्य यह है कि हमें उनकी फिल्मों की तुलना उस कहानी से करनी चाहिए जिसे रे ने लिखा है। यानी जो सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी उन्होंने लिखी है। उन्होंने मूल कहानी को आत्मसात कर उसे सिनेमा में विस्तृत करने की कल्पना की है, उसका एक वृहत्तर अर्थ सुनिश्चित किया है। आम समीक्षक अक्सर आम दर्शक की तरह फिल्म की तुलना प्रेमचंद की लिखी कहानी से करने लगते हैं और पूरा विमर्श ही निरर्थक हो जाता है। फिर शरत के ‘देवदास’ पर बनी प्रमथेश बरुआ या बिमल रॉय की फिल्म और विभूतिभूषण के ‘पॅथेर पांचाली’ पर बनी फिल्म का फर्क मिट जाता है।
फाल्के से लेकर पी सी बरुआ और बिमल रॉय तक लिखी कहानी को कहने का ढंग वही है जो शरत का है, सिर्फ फिल्म माध्यम का फर्क है। रे के यहाँ ऐसा नहीं है। कहने का ढंग ही प्रेमचंद से अलग है। फर्क यहाँ पर है। ‘देवी’ को उन्होंने उस तरह नहीं कहा है जिस तरह प्रभात कुमार मुखर्जी ने कहा है। प्रभात कुमार की कथा और रे की पटकथा में मौलिक अन्तर है जो शरत और बिमल रॉय में नहीं हैं। भारतीय सिनेमा में स्टोरी टेलिंग की यह नयी परम्परा शुरु की सत्यजित रे ने।
उनकी एक फिल्म है ‘कांचनजंघा’। कांचनजंघा देखने कई चरित्र पहाड़ पर इकट्ठा हुए हैं लेकिन उन्हें वह दिखता तब है जब मुख्य चरित्रों के मन पर पड़ा अन्तद्र्वन्द्व का कोहरा हट जाता है। प्रतीकात्मक रूप से भीतर कोहरा हटते ही बाहर भी कोहरा छंट जाता है और कांचनजंघा एक पहाड़ी सौन्दर्यस्थल न होकर किसी विचार का रूपक बन जाता है। ऐसा फिल्म के अन्त में स्पष्ट होता है। आरम्भ में नहीं। 1962 में बनी इस फिल्म की कहानी रे ने लिखी है। किसी लेखक की कहानी के आधार पर नहीं। फिर उस पर पटकथा तैयार की है। किसी जगह को ही आन्तरिक जगत का प्रतीक बना देने की यह कोशिश उनकी पहली और अन्तिम है। ऐसा गद्य में होता है।
जब हम निर्मल वर्मा के प्राहा को पढ़ते हैं। या जब हम श्रीकान्त वर्मा के मगध को पढ़ते हैं। मगध को कविता के शिल्प में ही लिखा गया। लेकिन गद्य में काव्यस्पर्श की सम्भावनाओं को जिस प्रकार निर्मल देखते थे उसी तरह सत्यजित इस फिल्म में देखते दिखते हैं। यह सत्यजित का गद्यछन्द है। यह उनका भारतीय सिनेमा में दूसरा महत्वपूर्ण अवदान है। हालांकि उनकी यह फिल्म अल्पविदित और अल्पसमीक्षित है। बिम्बछन्द में ऐसा गद्य उनसे पहले सिनेमा में नहीं लिखा गया था। तारकोव्स्की की ‘मिरर’ की तरह रे का सिनेमा काव्यात्मक यानी पोएटिक सिनेमा नहीं है। न ही उनकी फिल्मों में हम बर्गमैन की तरह दार्शनिक प्रत्यय देखते हैं। इस तरह रे का सिनेमा क्लासिक सिनेमा भी नहीं है। हम उन्हें बिम्बछन्द का गद्यफिल्मकार कह सकते हैं। विजुअल स्टोरीटेलिंग के इस अर्थ में रे प्रथम पुरुष हैं जिसका गतानुगतिक साधारण आरम्भ फाल्के ने किया था।
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