इतिहास का जरूरी पाठ सिखाती ‘सम्राट पृथ्वीराज’
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हुकूमतें जज्बातों से नहीं तलवारों से कायम होती हैं। इसी हुकुमत को पाने के लिए गौरी सम्राट पृथ्वीराज से कई बार लड़ा और कहते हैं पृथ्वीराज ने उसे सोलह बार हराने के बावजूद छोड़ दिया। फिर अगली बार क्या हुआ हम सब जानते हैं। हिंदू सम्राटों के लिए धरती मादरे वतन, माँ मानी जाती थी और वे उसी मादरे वतन की आन, बान, शान, मान- सम्मान, स्वाभिमान को बचाए रखने के लिए इस मादरे वतन को लूटने के इरादे से आए गौरी जैसे सम्राट जिनके लिए यह धरती मात्र जमीन का टुकड़ा थी, उनके लिए केवल लूट जरूरी थी जबकि हिंदुस्तानियों के लिए आबरू। और इस जमीन के टुकड़ों के लिए गौरी जैसों ने हमेशा फरेब और मक्कारी की राह ही पकड़ी। जिसमें न जाने कितने ही जयचन्दों ने उनका साथ निभाया।
काश की पृथ्वीराज ने गौरी को न छोड़ा होता यूँ, काश जयचन्द की महत्वकांक्षा और लालसा, लालच ने ऐसा न किया होता। काश… काश… काश न जाने कितने ही काश इस इतिहास के पाठ को पढ़ते हुए जेहन में उतर आते हैं। ऐसी कहानियाँ हमें सदा सीख देती हैं, ऐसा सिनेमा हमें सच्चे इतिहास से रूबरू कराता है। ऐसी फिल्में एक वीर पृथ्वीराज के मान, सम्मान, स्वाभिमान का ही नहीं बल्कि हर वीर और यौद्धा के लिए नमन, कृतज्ञ होने को, उनके लिए अपनी आँखों में पानी ले आने के लिए मजबूर करती हैं।
इस फिल्म की कहानी से तो बच्चा-बच्चा वाक़िफ़ है। लेकिन सिनेमा के स्तर पर आकर इसके निर्माताओं, निर्देशकों की आँखें किसने निकाल लीं या उनकी आँखों पर किसने पट्टी बांध दी थी कि वे इसे उस स्तर पर मजबूत न बना सके। कुंवरी संयोगिता के रूप में ‘मानुषी छिल्लर’ केवल अपनी सुंदरता दिखाने के लिए रखी थी? क्या ‘अक्षय कुमार’ बस केवल राष्ट्रीय चेतना जगाने के नाम पर ऐसी फिल्मों में कास्ट कर लिए जाते हैं? हालांकि कई जगहों पर अक्षय उम्दा काम करते दिखाई देते हैं। और दो जगहों पर वे अपने लिए तालियां भी बटोर ले जाते हैं।
लेकिन इन सबमें सबसे उम्दा अभिनय रहा तो जयचन्द बने ‘आशुतोष राणा’ का। अभिनय की दुनियाँ के अनमोल हीरो आशुतोष राणा अपनी हर फिल्म में अपनी उपस्थिति मात्र से ही उसमें वह प्राण फूंक देते हैं कि जिसके आगे बाकी सब बौने नजर आते हैं। फिल्म में गौरी का रोल बड़े ही कायदे से रचा गया और उसे पर्दे पर उतारा गया ठीक पृथ्वीराज की तरह। कुछ समय के लिए आने वाले राजेंद्र गुप्ता , गोविंद पाण्डेय तथा ‘चन्द बरदाई’ बने ‘सोनू सूद’ तथा काका बने ‘संजय दत्त’ भी भरपूर साथ निभाते हैं तथा प्रभाव छोड़ने में कामयाब भी होते हैं।
गीत-संगीत के नाम पर ‘यौद्धा बण गई मैं’ अच्छा लगता है। तो वहीं चन्दबरदाई बने सोनू सूद जब-जब विरोत्तेजक कविता गाते हैं तो गर्व की अनुभूति होने लगती है अपने पृथ्वीराज जैसे वीरो पर। बाकी दो गाने तो कहानी के हिसाब से लिरिक्स के नाम पर बट्टा ही लगाते हैं। निर्देशक, लेखक, स्क्रीनप्ले करने वालों ने यदि कुछ थोड़ा और काम इस फिल्म पर किया होता तो यह एक यादगार फिल्म हो सकती थी।
फिर भी सिनेमाघरों से निकल कर बस कुछ समय के लिए तारीफ करने लायक बन पड़ी इस फिल्म को देखना अवश्य चाहिए। और हमारे गुजरे हुए कल के इतिहास के जरूरी पाठ को एक बार फिर से याद कर लेना बेहतर होगा। ऐसी फिल्में बनती रहनी चाहिए ताकि आम जनता, जो अपने सही इतिहास से दूर होती जा रही हैं उन्हें वह सिखाया, बताया, समझाया और सुनाया जा सके।
फिल्म में इतिहास का सच तो है ही साथ ही कुछ ऐसे जरूरी संवाद भी हैं जो उन इतिहासों का पुष्ट प्रमाण लगते हैं। जिन्हें हम पढ़ते आए हैं मसलन – ‘गजनी के महमूद ने सोमनाथ के मन्दिर को तोड़कर शिव के ज्योतिर्लिंग के टुकड़े को गजनी के मस्जिद के दरवाजे के बाहर लगाया था ताकि आने- जाने वाले उस पर अपने पैर रगड़ कर पैरों की धूल साफ कर सके।’
इसलिए पृथ्वीराज की तरह ही आप भी शरण में आए हुए की रक्षा करना अपना हिंदू का धर्म समझें या न समझें और अपने रक्त की अंतिम बूंद तक मैं धर्म का पालन करें या न करें आपकी मर्जी लेकिन ऐसे सच्चे इतिहास की कहानी को देखने का मौका न चूकें। क्योंकि भले ही पढ़े पढ़ाए इतिहास की यह कहानी के रूप में सिनेमा की शक्ल में पृष्ट पेषण ही क्यों न हो लेकिन जैसे फिल्म कहती है – ‘कलम को तीर तलवार से कम न समझो। क्योंकि वाल्मीकि हैं तो श्री राम हैं, व्यास हैं तो श्री कृष्ण हैं और चंदबरदाई है तो पृथ्वीराज चौहान है।
इतिहास के जरूरी पाठ के अलावा यह फिल्म ये भी सिखाती है कि आज भी हम उस समाज में जी रहे हैं जहाँ स्त्री को पाना, उसके लिए लड़ना पुरुष के लिए शौर्य माना जाता है और विवाह पिता के आदेश को मानना होता है। विवाह के बाद पति के आदेश में और पति की मृत्यु के बाद पुत्र के आदेश की पालना करनी होती है। सदियों से यही होता आया है।