थ्रिल और सस्पेंस से भरपूर ‘समप्रीत’
पहली बार किसी कृति की समीक्षा फ़िल्म समीक्षक की भांति कर रहा हूँ। मुझे ऐसा अहसास हो रहा है। कारण इस उपन्यास के कवर पेज पर किसी फिल्मी डायलॉग की तरह लिखा होना – ‘नवदम्पति के पुरुष सदस्य को भी जब एक पति की जरूरत शिद्दत से आन पड़ी।’ तो क्या हुआ उसके साथ?
पिछली दो सिटिंग में बैठकर उपन्यास समप्रीत को पढ़ गया। पिछले करीबन एक साल से भी ज्यादा लम्बा वक्फा गुज़र गया इस उपन्यास की समीक्ष्य प्रति प्राप्त हुए को। न जाने क्यों इस उपन्यास को इतने समय तक शेल्फ़ में ही पड़ा रहने दिया। कुछ तो व्यक्तिगत कारणों से भी पढ़ नहीं पाया। ख़ैर अब जब इसे हाथ में उठाया तो मन ही नहीं किया कि इसे बीच में छोड़कर सो जाऊं। आधा उपन्यास अगले दिन के लिए छोड़ना पड़ा। अब जब इसे पढ़ कर खत्म किया है तो कुछ बातें हैं इस उपन्यास को लेकर।
कोई भी भारतीय नारी इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर पायेगी कि उसका पति अपने लिए ही पति ढूंढता फिरे। यानी वह समलैंगिक हो। किसी भी भारतीय पत्नी के लिए यह कष्टदायक ही होगा। ऐसी स्थिति में या तो वह उस पति से तलाक लेना पसंद करेगी या मरना। हालांकि अब समय बदल रहा है और सुप्रीम कोर्ट ने भी समलैंगिकों को अपनी मर्जी से संबंध बनाने के अधिकार दे दिए हैं तो इस बात को समझते हुए अवश्य कुछ लड़कियां अपने पति के समलैंगिक होने पर शायद आवाज ना उठाए। लेकिन प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और सामाजिक स्वीकृति ना प्राप्त हो पाने के सवाल भी उठाए जा सकते हैं। हालांकि समलैंगिक सम्बन्धों को कानूनी मान्यता मिल चुकी है।
यह दुनिया बहुत बुरी है – यहाँ कोई किसी की भावनाओं की कद्र नहीं करता – कोई किसी को नहीं समझना चाहता – सब ख़ुद में गुम हैं।
कांटों भरे बिस्तर पर मखमल की चादर बिछी हो और दुनिया उस चादर को सम्मान दे रही हो तो भले वह सम्मान झूठा हो मगर जीवन के लिए ऑक्सीजन की मानिंद साबित होता है। उसके बनिस्पत सच्ची जिंदगी जिसको दुनिया का तिरस्कार प्राप्त होता है, वो जिंदगी गले की फांस बनकर हलक में अटकी रहती है।
औरत एक अजीब चीज है, जब निबाह करने पर आती है तो बड़ी विषम परिस्थितियाँ भी उसके लिए कोई अर्थ नहीं रखतीं, यूँ समझो कि कांटों को निगल जाने की कला भी प्रकृति ने औरत को दी है और ज़ख्मों को नुमाया भी नहीं करेगी लेकिन जब वह अपने तेवर बदल ले तो ईश्वर भी उसको नहीं थाम सकता।
पूरे उपन्यास में ये तीन वाक्यात प्रभावित करने वाले हैं। यूँ तो लगभग पूरा उपन्यास ही आपको अपनी गिरफ्त में ज़ब्त रखता है और आप तब तक उसकी गिरफ्त में कैद रहते हैं जब तक उपन्यास पूरा खत्म ना हो जाए।
मनोज नाम का एक लड़का है जिसकी अंकिता नाम की लड़की से शादी हुई है। शादी के कुछ समय बाद ही अंकिता को पता चलता है कि मनोज यानी उसका पति समलैंगिक यानी गे/समलिंगी है। तो वह भीतर तक टूट जाती है। यह पता भी उसे तब चलता है जब मनोज का बचपन का दोस्त उसके ही शहर में यस बैंक में जॉब लगता है और वे मिलते हैं। कुछ दिन सन्नी यानी मनोज का बचपन का दोस्त उसके घर रहने आता है। मनोज उसके आने से बेहद खुश होता है। रोजाना स्त्री वेश धारण करता है। सुर्खी, लाली, लिपस्टिक और चूड़ियां आदि तमाम सौंदर्य प्रसाधन इस्तेमाल करता है। एकदम खूबसूरत लड़की के रूप में वह सजधज कर सन्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाता है।
इधर उसकी पत्नी अंकिता को यह सब नागवार गुजरता है। एक दिन अंकिता को उसकी सहेली का फोन आता है और वह सुसाइड करने की बात उससे करती है। अंकिता का मनोज से शादी करने से पहले ऋषभ से प्रेम सम्बन्ध थे। वे दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते थे। लेकिन अंकिता की माँ शीतल उन दोनों की शादी नहीं होने देना चाहती क्योंकि ऋषभ नीची जाति का है। अब ऋषभ को अंकिता की सहेली से मालूम होता है वह अपनी शादी से मुतमइन नहीं है, खुश नहीं है। इसलिए वह अंकिता से बात करता है। कहानी कुछ मोड़ लेती है और मनोज की हत्या (मर्डर) की अंकिता और ऋषभ साजिश रचते हैं और उसकी हत्या कर देते हैं। मनोज को अपने लिए संगीता नाम से उच्चारण करवाना अच्छा लगता है। ऋषभ और सन्नी इसी नाम से बुलाते हैं उसे।
वह कभी कभी सन्नी उसे मंजू कहकर भी बुलाता है। लेकिन मनोज को संगीता नाम सुनकर (अपने लिए) सुकून मिलता है। अब चूंकि मनोज की हत्या हो चुकी है तो पुलिस उसकी जांच पड़ताल करती है। कहानी एकदम से हत्या, मिस्ट्री, उत्सुकता से मुड़ती है। कभी कभी यह बोझिल सा भी प्रतीत होता है। लेकिन किसी भी उपन्यास को पूर्ण करने के लिए कुछ कहानियां समानांतर भी चलानी होती हैं।
उपन्यास के अंत में एक सवाल जेहन में उठता है कि अंकिता के अलावा उसकी माँ शीतल, उसके पिता और भाई मनोज को क्यों नहीं पहचानते? अंकिता तो चलो मान लिया इस हत्या में शामिल है। लेकिन इस हत्याकांड में उसकी मां , भाई, पिता तो नहीं शामिल है फिर वे क्यों पुलिस से झूठ बोलते हैं? यह सवाल लगातार बना रहता है। ये बात तो लेखक एम इकराम फरीदी ही ज्यादा बेहतर तरीके से बता सकते हैं।
खैर उपन्यास की कहानी अच्छी है और किसी फिल्मी कहानी सी प्रतीत होती है। कभी कभी यह भी लगता है कि इस तरह के उपन्यास लिखने के दिन अब लद चुके हैं। क्योंकि ऐसे उपन्यास 60,70 के दशक में लिखे जाते थे। बस एक अच्छी बात है वह है उपन्यास का समलैंगिक विमर्श पर आधारित होना।
उपन्यास शैली, कथ्य, कथा विस्तार, बिम्ब , शिल्प के आधार पर बेहतर बन पड़ा है। लेकिन इस तरह के उपन्यासों का ऐसा अंत होना कुछ खास अच्छा नहीं लगता। लगता है इसकी कहानी कुछ और होनी चाहिए थी। वैसे इस उपन्यास को आधार बनाकर अगर फ़िल्म बनती है तो वह अवश्य रोचक होगी। लेकिन इस तरह की फिल्में भी बी ग्रेड की फिल्मों की श्रेणी में ही शामिल की जाएंगी।
किताबों की समीक्षा करते हुए मैंने उन्हें फ़िल्म समीक्षा की तरह कभी कोई रेटिंग नहीं दी है। क्योंकि किसी भी किताब, उपन्यास, कहानी को लिखते हुए लेखक अपना दिमाग, ऊर्जा, कल्पना शक्ति और न जाने क्या क्या दांव पर लगाकर लिखता है। लेकिन यह उपन्यास किसी फिल्मी कहानी सा लगा इसलिए इस उपन्यास के लिए
अपनी रेटिंग – 3 स्टार
उपन्यासकार एम इकराम फरीदी के अन्य उपन्यास निम्न हैं।
मनोरोग के नए सूत्र (समस्या और समाधान)
द ओल्ड फोर्ट
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गुलाबी अपराध
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चैलेंज होटल : द हॉन्टेड प्लेस
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