क्रांतिकारी कार्रवाई एक शैक्षणिक गतिविधि होती है !
विश्वप्रसिद्ध क्रांतिकारी शिक्षाशास्त्री पाओलो फ्रेयरे की जन्मशताब्दी वर्ष के अवसर पर
पाओलो फ्रेयरे ब्राजील के क्रांतिकारी शिक्षाशास्त्री थे जिनका काम मानवीय स्वतन्त्रता व गरिमा के साथ संघर्ष से गहरे रूप से जुड़ा हुआ था। पाओलो फ्रेयरे निरन्तर इस बात को लेकर प्रयोग व चिंतन करते रहे कि वंचित व शोषित जनता के बीच किये जाने वाले शिक्षण कार्यक्रमों को समाज में बुनियादी व मौलिक बदलाव लाने के लिए कैसे जोड़ा जाये? पाओलो फ्रेयरे कहा करते थे कि शिक्षा का बुनियादी लक्ष्य है क्रांतिकारी शिक्षाशास्त्र का विकास ताकि व्यक्ति में आलोचनात्मक विवेक विकसित हो सके।
संवादात्मक सम्बन्ध कायम करने की जो पद्धति उन्होंने विकसित की वह 1950 के बाद पहले से चली आ रही पारंपरिक पद्धति के विपरीत प्रगतिशील व मुक्तिदायी विकल्प की तरह आया। पहले से चली आ रही प्रचलित स्कूली पद्धति को अमेरिकी सरकार की एजेंसियों मसलन यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेनल डेवलपमेंट (USAID) द्वारा संचालित किया जाता था। यह कुख्यात अंतर्राष्ट्रीय संस्था लैटिन अमेरिका में लोकतांत्रिक ढ़ंग से चुनी हुई प्रगतिशील सरकारों को गिराने, तख्तापलट करने के लिए बदनाम रही थी। पओलो फ्रेयरे की शिक्षाशास्त्रीय पद्धति इस वर्चस्व वाली पारंपरिक पद्धति के विकल्प के तौर पर उभर कर आया।
प्रारम्भिक जीवन
बीसवीं सदी में शिक्षा सम्बन्धी सबसे साक्त दार्शनिकों में से एक पाओलो फ्रेयरे का जन्म 19 सितंबर 1921 को ब्राजील के उत्तरपूर्वी इलाके के रेसिफे नामक जगह में हुआ था। 1934 में उनके पिता की मृत्यु के पचात पहले से ही बदहाल पारिवारिक स्थिति पर मानो पहाड़ टूट पड़ा। परिवार को आर्थिक संबल पहुंचाने के लिए पाओलो फ्रेयरे को स्कूल छोड़ देना पड़ा। उन्हें गरीबी व भूख का इस दौरान प्रत्यक्ष अनुभव हुआ जिसने बाद में उनके चिंतन पर भी असर डाला। बाद में वे वापस स्कूल में जाने में सफल हो गए। 1943 से 1947 के मध्य उन्होंने कानून की पढ़ाई की। अपनी ट्यूशन फी को कम करने के लिए उन्हें विश्वविद्यालय से जुड़े एक स्कूल में पुतर्गाली भाषा पढ़ाने जाना पड़ता। उनके परवर्ती जीवन पर, उनके अपने भोगे गए यथार्थ तथा ब्राजील के दुःखदायी इतिहास का प्रभाव परिलक्षित होता है।
ब्राजील सन् 1500 से 1822 तक पुर्तगाल का उपनिवेश रहा था। इन्हीं वजहों से पूरे लैटिन अमेरिका में जहाँ स्पैनिश भाषा बोली जाती है ब्राजील में पुर्तगाली का प्रचलन है। पुर्तगाल के लिए ब्राजील एक व्यापारिक केंद्र या कहें उद्यम था जिसका लक्ष्य वहाँ के संसाधनों का उपयोग कर इंग्लैंड तथा हॉलैंड को पछाड़ देना था ताकि वह यूरोप का सबसे शक्तिशाली मुल्क बन सके। तीन शताब्दियों के बर्बर औपनिवेशिक शासन ने ब्राजील की स्थानीय आबादी को समाप्त कर डाला। अफ्रीका से काले लोगों को गुलाम के रूप में लाकर बसाया गया। फलतः अधिकांश ब्राजीलवासी गरीबी व जहालत की जिन्दगी जीने पर मजबूर थे। उन्नीसवीं सदी में ब्राजील को नाम मात्र की स्वतन्त्रता प्राप्त हो सकी। राजनीतिक स्वतन्त्रता के बावजूद बीसवीं सदी के मध्य तक अधिकांश ब्राजीलवासी अभावग्रस्त थे।
1947 में जब फ्रेयरे पुर्तगाली पढ़ा रहे थे उन्होंने एक सरकारी एजेंसी सर्विस सोशल सर्विस दा इंडस्ट्रिया ( SESI ) के लिए काम करने लगे। यह संस्था ब्राजील के मजदूर वर्ग के लिए स्वास्थ्य, आवास, शिक्षा के लिए काम किया करती थी। यहीं फ्रेयरे को मजदूर वर्ग के जीवन से प्रथम साक्षात्कार हुआ। साथ उन्हें ब्राजील की स्कूली व्यवस्था से वाकिफ हुए। बाद में फ्रेयरे ने रिसर्च व प्लानिंग विभाग में कंसल्टेंट के पद पर नियुक्त हुए। फ्रेयरे शिक्षा को महज अकादमिक उपलब्धि के तौर पर या फिर रोजगार सम्बन्धी कौशल सीखने के पेवर सफलता के तौर पर नहीं देखते थे। वे इस बात में यकीन करते थे कि सीखने वाले को अपनी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को समझना चाहिए तथा खुद की तलाश एक सृजनात्मक एजेंट के रूप में करनी चाहिए। प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में किया जाने वाला उनका कार्य अब राष्ट्रीय स्तर पर पहचाना जाने लगा था। शीघ्र ही उन्होंने खुद को एक प्रगतिशील शिक्षक के रूप में स्थापित कर लिया।
शब्दों से अधिक दुनिया को पढ़ना आवश्यक
1961 में रेसिफे शहर के मेयर ने उनसे शहर के लिए साक्षरता कार्यक्रम को विकसित करने की जिम्मेवारी सौंपी। इन कार्यक्रमों का मकसद मुख्यतः मजदूर वर्ग के मध्य साक्षरता को प्रोत्साहन देना, लोकतांत्रिक माहौल का सृजन करना, तथा स्वदेशी परम्परा, विश्वास व संस्कृति का संरक्षण करना था। फ्रेयरे ने साक्षरता की इन कक्षाओं को ‘कल्चरल सर्किल’ कहना शुरू किया क्योंकि ‘साक्षरता’ शब्द से निरक्षर लोगों का भी बोध होता था। इन सर्किलों के शिक्षकों को शिक्षक के बजाए संयोजक तथा छात्रों को प्रतिभागी कहा जाता था।
पारंपरिक भाषण के बदले संवाद को प्राथमिकता दी जाती थी। साथ ही फ्रेयरे ने पहले से चली आ रही भाषा का प्रयोग नहीं करना तय किया। उसकी वजह थी कि उस भाषा की अंर्तवस्तु किसानों-मजदूरों के सांस्कृतिक यथार्थ से मेल नहीं खाता था। फ्रेयरे की शिक्षा सम्बन्धी अवधारणा में न सिर्फ शब्दों का पढ़ना काफी था बल्कि दुनिया को पढ़ना अधिक आवश्यक था। आलोचनात्मक चेतना का विकास ज्यादा जरूरी था। यह आलोचनात्मक चेतना किसानों-मजदूरों को अपने सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थितियों को समझने में अधिक सक्षम बनायेगा। इससे उन्हें जनतांत्रिक समाज बनाने में सहूलियत होगी।
फ्रेयरे ने शिक्षक व छात्र के बीच संवाद करने की आवश्यकता पर बल दिया जहाँ दोनों एक दूसरे से सवाल करते, विचार करते एवं भागीदार बनते हुए अर्थों को सीखें। उनके शिक्षाशास्त्र में शिक्षक समुदाय में घुल-मिलकर, लोगों से प्रश्न पूछते हुए, उनके सामाजिक यथार्थ को सीखते हुए, ‘कांसेंटाइजेशन’ ( पुर्तगाली में कांसंटीजाकोओ ) की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना रहा है। सामाजिक यथार्थ को इंगित करने वाले शब्दों को उछालकर उनपर बहस चलाते हुए ‘कांसेंटाइजेशन’ के द्वारा यथार्थ के प्रति आलोचनात्मक चेतना को विकसित करने की कोशिश की जाती है।
1962 में फ्रेयरे की पद्धति का इस्तेमाल कर 300 खेत में काम करने वाले मजदूरों का मात्र 45 के अंदर पढ़ना सिखा दिया गया। जल्द ही पूरे ब्राजील में हजारों ‘कल्चरल सर्किल’ की स्थापना की गयी ताकि फ्रेयरे के विचारों को मूर्त रूप दिया जा सके। पाओलो क्यूबा के साक्षरता अभियान से भी बहुत प्रभावित थे जिसमें शिक्षक गांवों में जाकर लोगों से सीखते हुए उन्हें साक्षर बनाने का प्रयास कर रहे थे।
ब्राजील से 16 वर्षों का निर्वासन
1964 में गोलार्ड की लोकप्रिय वाम रूझानों वाली सरकार का अमेरिका जासूसी एजेंसी सी.आई.ए के माध्यम से तख्तापलट करा कर तानााही व्यवस्था लागू की गयी। ब्राजील के इतिहास का यह सबसे काला व बर्बर दौर था। फ्रेयरे को जेल में डाल दिया गया। पाओलो फ्रेयरे ने उस वक्त जो दे छोड़ा उसके बाद अगले 16 सालों तक उन्हें निर्वासन का जीवन पहले बोलीविया, फिर चिली तथा अन्य देशों में व्यतीत करना पड़ा। चिली में फ्रेयरे ने चिली के किसानों के साथ अपने शिक्षा सम्बन्धी प्रयोगों को जारी रखा।
चिली के किसानों के साथ ने उन्हें इस नतीजे पर पहुंचाया कि भले लोग गुलाम न हों, साक्षर हों, या भूमि के मालिक ही क्यों न हों वे खुद को स्वतन्त्र नहीं समझ पाते थे। अब फ्रेयरे के शिक्षा का लक्ष्य यह हो गया कि वे छात्रों के अंदर इस किस्म की परिस्थितियों को निर्मित करे जिससे वह खुद को मनुष्य समझ सके। साठ के दशक के अंतिम वर्षों में उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हुई। पहली पुस्तक ‘प्रैक्टिस ऑफ फ्रीडम’ में प्रकाशित हुई जबकि दूसरी उनकी विश्वविख्यात कृति ‘उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र’ थी।
पओलो फ्रेयरे दुबारा ब्राजील 1980 में लौटे जब साओ पउलो शहर में वामपंथी मेयर के पद पर आसीन हुआ। फ्रेयरे को शिक्षा सचिव बनाया गया। इस पद पर वे 1991 तक रहे। इस दौरान उन्होंने स्कूली पाठ्यक्रमों में तब्दीली लाया। ताकि छात्र सीखने में खुशी का अनुभव करें और शिक्षक छात्रों की पृष्ठभूमि, उनकी संस्कृति, उनके मूल्यों, उनकी दिलचस्पियों की कद्र करें। इस तरीके से शिक्षा को जनतांत्रिक व भागदीरारी वाली प्रक्रिया बनाया जा सके। इस मौलिक चिंतक की 1997 में मृत्यु हो गयी।
उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र
पाओलो फ्रेयरे की इस विश्वविख्यात पुस्तक में दबाए गए उत्पीड़ित लोगों के शिक्षाशास्त्र की चर्चा की गई है। पाओलो फ्रेयरे बताते हैं कि समाज में उत्पीड़क व उत्पीड़ित दो प्रमुख तबका होता है। उत्पीड़कों का एक छोटा तबका बहुमत को पीड़ित अवस्था में बनाए रखता है। उत्पीड़ितों का यह तबका एक निष्क्रिय व अमानुषिक अवस्था में जीने को मजबूर कर दिया जाता है। जीवन के साधनों से वंचित किये जाने के कारण ये उत्पीड़ित अपनी मनुष्यता भी खो बैठते हैं। उत्पीड़क तबका सबसे बड़ा काम यही करता है कि वह उत्पीड़ितों को उनके मानवोचित गुणों से महरूम कर देता है। फलतः उत्पीड़ित तबके की सबसे बड़ी ऐतिहासिक जिम्मेवारी यह होती है कि वे अपनी खोयी जा चुकी मनुष्यता को पुनः प्राप्त करे। उत्पीड़ितों के शिक्षाशास्त्र का काम है कि वे अपनी मानवीय गरिमा को फिर से प्राप्त कर सकें। खुद को मनुष्य समझें।
अपनी मानवता को फिर से प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि उनके अंदर अपनी जीवन स्थितियों की ठीक से समझ हो सके। अपने जीवन के अनुभवों के माध्यम से वे खुद आस-पास की परिस्थति को समझें।
उत्पीड़ितों की मनुष्यता को हासिल करना है उनके शिक्षाशास्त्र का लक्ष्य
पाओलो फ्रेयरे हमें बतातें हैं कि उत्पीड़नकारी परिस्थितियों में लंबे वक्त तक रहने के कारण वे अपनी स्थिति को एक न बदले जा सकने वाली नियति के रूप में देखने लगे हैं। वे खुद अपने को ठीक वैसे ही देखने के आदी हो चुके होते हैं जैसा कि उत्पीड़क तबका उन्हें दिखाना चाहता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वे उत्पीड़िकों के नजरिये को आभ्यंतरित कर लेते हैं। उत्पीड़कों की सबसे बड़ी सफलता यह होती है कि वे उत्पीड़ितों को ‘सब्जेक्ट’ से ‘आबजेक्ट’ में तब्दील कर देता है। ताकि उन पर आसानी से शासन किया जा सके। उनके अंदर की मनुष्यता का हरण किये बगैर वह यह कार्य संपन्न नहीं कर सकता लिहाजा उत्पीड़ितों को अपनी हर ली जा चुकी मानवता को पाने का लक्ष्य ही उनके शिक्षाशास्त्र का होना चाहिए। यह एक माने में एक क्रांतिकारी कार्रवाई है। पाओलो फ्रेयरे के सही मायने में किया जाने वाला क्रांतिकारी कार्य एक शैक्षणिक गतिविधि रहा करता है।
इसकी शुरूआत में उत्पीड़ितों के लिए सबसे जरूरी है कि उन्हें अपनी ऐतिहासिक स्थिति का भान हो सके। उन्हें इस बात की समझ होनी चाहिए कि उनकी स्थिति कोई हमेा से मौजूद रहने वाली स्थिति नहीं है अपितु एक ऐतिहासिक निर्मिति है। देश व काल में अवस्थित ऐसा अस्तित्व है जिसे बदला भी जा सकता है।
उत्पीड़कों के नजरिये से मुक्त होने की जटिल प्रक्रिया में उत्पीड़ितों को अपना शिक्षाशास्त्र विकसित होता है। यह काम उत्पीड़ित तबका खुद को तथा अपने आस-पास के सामाजिक-आर्थिक माहौल को जानने के दौरान ही अपने अस्तित्व को समझता है। वह महज ऑब्जेक्ट नहीं बल्कि सबजेक्ट भी है। इस प्रक्रिया को पाओलो फ्रेयरे ‘कांसेंटाइजेंन’ कहते हैं। यह पुर्तगाली शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद है। जिसका अर्थ होता है अपने स्व को जानना साथ ही अपने आस-पास की सामाजिक-राजनीतिक व आर्थिक स्थिति को समझना कि हम कैसे उत्पीड़नकारी अवस्था में रह रहे हैं। ‘कॉन्सेंटाईजेशन ’ का यह भी अर्थ है कि जानने के बाद उस यथार्थ को बदलने का भी प्रयास करना। ‘कॉन्सेंटाईजेशन’ का वैसे तो हिन्दी में समानार्थक शब्द नहीं है परन्तु यदि मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो ‘‘ ज्ञानात्मक संवदेन व संवेनात्मक ज्ञान’ के नजदीक समझ सकते हैं।
उत्पीड़क अपना कॉमनसेंस कुछ इस प्रकार विकसित करता है कि उत्पीड़कों की बातें सहज व स्वाभाविक नजर आती है जबकि उत्पीड़ितों की बातों को ‘हल्ला-गुल्ला’ कहकर खारिज कर दिया जाता है। उत्पीड़क कुछ बातों को तरजीह जबकि कुछ को, जो उन्हें असहज बनाता है, उसे खारिज कर दिया जाता है। वे ही यह तय करते हैं कि कौन सम्मानित होगा और किसे अपमान झेलना है, किसका जीवन महत्वपूर्ण है और किसका महत्वहीन, किसके जीवन की कीमत है और किसके जीवन की नहीं, किसका जीवन कानून से शासित होगा और किसे गैरकानूनी या हिंसक ढ़ंग से निपटा जायेगा, किसकी मौत पर शोक मनाया जायेगा और किसकी अंत्येष्टि हड़बड़ी में, जैसे-तैसे, संपन्न की जायेगी। चुंकि उत्पीड़ितों को मानवता से महरूम रखा जाता है इस कारण उत्पीड़ितों द्वारा किये जाने वाली राजनीति को आपराधिक, बेकार या षडयंत्र के रूप में चित्रित किया जाता है।
मोनोलॉग नहीं डॉयलॉग, कम्युनिक नहीं, कम्युनिकेशन
पाओलो फ्रेयरे ‘प्रैक्सिस’ पदबन्ध का इस्तेमाल करते हैं जिसका अर्थ एक्शन व रिफ्लेकशन दोनों होता है। यानी खुद की स्थिति को समझने के बाद उसे बदलने का प्रयास की ओर प्रवृत्त होना।
पाओलो फ्रेयरे यहाँ शिक्षक या नेता की भूमिका को महत्वपूर्ण बताते हुए कहते हैं कि शिक्षक या नेता उत्पीड़ित तबके को सिर्फ एकतरफा ज्ञान न दे मानो वह सबकुछ जानता -समझता है और उत्पीड़ित तबका सिर्फ उस ज्ञान को ग्रहण करे। पाओलो फ्रेयरे मोनोलॉग नहीं डॉयलॉग की जरूरत पर बल देते हैं, कम्युनिक के बजाये कम्युनिकेशन पर जोर देने की बात करते हैं। शिक्षक या नेता यह काम तभी कर सकता है तब खुद को उत्पीड़ित तबके का माई-बाप समझने की घातक प्रवृत्ति से खुद को मुक्त करे। मानो सारा ज्ञान उसी के पास हो और उत्पीड़ित तबके को सिर्फ उसे ग्रहण करना है।
पाओलो फ्रेयरे के अनुसार शिक्षक या नेता को भी उत्पीड़ितों के साथ मिलकर उनके अपने जीवन के अनुभवों के साथ तालमेल बिठाते हुए साथ-साथ मुक्त होने की प्रक्रिया को, उनकी खोयी मनुष्यता को पाने का प्रयास उनके साथ मिलकर संपन्न करना है। यह कार्य एकतरफा ढ़ंग से नहीं, दोतरफा ढ़ंग से होना चाहिए। यानी उत्पीड़ितों के अनुभवों से सीखते हुए ही साथ मिलकर यह कार्य करना है। सक्रिय नेता और निष्क्रिय जनता, बोलने वाला नेता और उसे चुपचाप ग्रहण करने वाली जनता का मॉडल यहाँ नहीं चलने वाला है। यदि ऐसा होता है तो वह नेता उस उत्पीड़ित जनता को ठीक वैसे ही ऑब्जेक्ट में बदल देगा जैसे कि उसका उत्पीड़क किया करता था। यहाँ भले ही वह नेता या शिक्षक खुद को उत्पीड़त जनता के सेवक या उद्धारक के रूप में खुद को प्रस्तुत कर रहा हो। वह दरअसल उत्पीड़ितों को मैन्यूपुलेट ही कर रहा होता है।
उत्पीड़ितों को यह याद रखना चाहिए कि कोई भी करिश्माई नेता उनकी स्वाधीनता को उपहार में नहीं दे सकता, गिफ्ट नहीं कर सकता। कोई नेता इतना बड़ा नहीं हो सकता कि वह उत्पीड़ितों को उसे खैरात में दे। उत्पीड़ितों को अपनी यह स्वाधीनता, संघर्ष के माध्यम से ही प्राप्त कर सकता है। पाओलो फ्रेयरे की इन बातों का अनुभव हम क्रांतिकारी बदलाव के लिए प्रतिबद्ध संगठन व पार्टियों के दैनिंदिन व्यवहार में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। जहाँ कार्यकर्ता व जनता सिर्फ अपने नेता को सुनने के लिए गोलबन्द किये जाते हैं। इसी से मिलती-जुलती बातें, पाओलो फ्रेयरे से लगभग तीन दशक पूर्व, भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान प्रख्यात किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘किसान क्या करें?’ में की थी। इस पुस्तक का एक अध्याय ही है ‘अपने नेताओं पर कड़ी नजर रखें’।
(अगले अंक में पाओलो फ्रेयरे पर फ्रांज फैनन का प्रभाव )