रिश्ते नाते कहीं खोते जा रहे हैं
मां बाप के संस्कार और गुरु उस्ताद के सदाचार पर मोबाइल और टेलीविज़न बहुत तेज़ी से डाका डाल रहे हैं। उद्दंडता और नग्नता का प्रयोग मोबाइल और टेलीविज़न पर तेज़ी से सफल हो रहा है। दादी नानी की गोदी में मिलने वाले नसीहत की जगह अब फेसबुक व्हाट्सऐप के मैसेजेज ले रहे हैं। अपनी तहज़ीब अपने संस्कार पीछे छूटते जा रहे हैं। नतीजा इंसानी रिश्तों की तमीज़ समाप्ति की तरफ़ अग्रसर हो रही है।
मां बाप दादा दादी नाना नानी, इस आधुनिकीकरण और स्वतंत्रता की भेंट चढ़ रहे हैं और जिस नई नस्ल को ठंडे गर्म पानी से अभी तक भेंट नही उनकी सोच जायज़ लगने लगी है। एक गंभीर बीमारी, एक भयानक दुर्घटना और एक क़ानूनी उलझन बड़े बड़ों की होशियारी ठिकाने लगा देती है। नैतिकता पर अनैतिकता, पर्दे पर बेहयायी और संस्कार पर कुसंस्कार को प्राथमिकता कभी नही दी जा सकती। अपनी तहज़ीब अपनी संस्कृति अपने मज़हब और अपने धर्म पर अधर्म और कुकर्म को स्वीकार कर लेना ही क़यामत की निशानी होगी।
सर से लेकर पांव तक पसीने में सराबोर होकर बच्चों की परवरिश करने वाले पिता, क़र्ज़ की बोझ पीठ पर लाद कर बच्चों को तालीम देने वाले वालिद, आज तीस चालीस हज़ार कमाने वाले बेटों की राय के सामने जाहिल गंवार लगने लगे हैं। आज की युवा पीढ़ी को ऐसी आज़ादी चाहिए जिसका कोई अंत न हो, जिसकी कोई सीमा न हो। अपनी मर्ज़ी की पढ़ाई, अपनी मर्ज़ी की नौकरी, अपनी मर्ज़ी का घर और अपनी मर्ज़ी की शादी, इसी का मतलब है आज़ादी।
अपनी साड़ी सलवार में बच्चों का लार पोंटा पोंछने वाली मां आज उनके सामने फ़र्सुदा ख़्यालात वाली बेवक़ूफ़ औरत लगने लगी है। मस्जिदों में नमाज़ और मंदिरों में पूजा अब बेकार के काम लगने लगे हैं।
दरअसल उदारीकरण के दौर और शहरीकरण की होड़ के चलते देश में तेज़ी से बदलाव आए हैं। प्रतिस्पर्धा, आगे बढ़ने की अंधी होड़, संयुक्त परिवार का विघटन, न्यूक्लियर परिवार से भी एक क़दम आगे पारिवारिक कड़ी के कमज़ोर होने और कार्य स्थल की परिस्थितियों के चलते लिव-इन रिलेशनशिप जैसी स्थितियों ने व्यक्ति को व्यक्ति नहीं रहने दिया है। देखा जाए तो अब ऐसा समय आ गया है जब संबंध नाम की कोई चीज़ रही ही नहीं है। एक ही मल्टी स्टोरी कॉम्पलेक्स में रहने वाले एक दूसरे को नहीं जानते, पड़ोस में क्या हो रहा है किसी को कोई मतलब ही नहीं। इसके साथ ही सबसे नकारात्मक बात यह कि प्रतिस्पर्धा की अंधी होड़ में सब कुछ पीछे छूटता जा रहा है। गांव की चौपाल या शहर का चौराहा अब चौराहा नहीं रहा।
नाना−नानी या दादा−दादी के पास बच्चों की छुटि्टयां बिताना, बातों बातों में ज्ञानवर्द्धक, संस्कार बनाने वाली किस्सागोई कहीं खो गई है। रिश्ते नाते कहीं खोते जा रहे हैं। एक दूसरे की मनोदशा और विचारों को साझा ही नहीं किया जा रहा है ऐसे में डिप्रेशन का शिकार होना आम होता जा रहा है।
संस्कृति और संस्कारों में पतन के ज़िम्मेदार मां बाप ख़ुद को मान कर अपनी बाक़ी की ज़िंदगी तो काट लेंगे लेकिन बच्चे जब ख़ुद बूढ़े होकर वृद्धाश्रम पहुंचने लगेंगे, जब उनकी बूढ़ी आंखों के आंसू पोंछने के लिए नौकर रखने पड़ेंगे, जब उनके बच्चे उन्हें अपनी मां अपने बाप के रूप पहचानने से इंकार करने लगेंगे, जब मरने के बाद अपने कर्मों का हिसाब देना पड़ेगा तब बात समझ में आएगी, लेकिन अफ़सोस सद अफ़सोस कि तबतक बहुत देर हो चुकी होगी।