इस्लाम का असली चेहरा
आज के ब्रिटेन में इस्लाम का असली चेहरा न तो वहाँ की मस्जिदों में मिलेगा, न वहाँ के मदरसों में। उसके लिए तो आपको ब्रिटिश म्यूजियम में हाल में ही खुली अलबुखारी इस्लामिक गैलरी में जाना होगा जहाँ प्रदर्शित वस्तुएँ देख कर आप आश्चर्यचकित रह जाएँगे और तथाकथित कट्टर मुस्लिम सक्रियतावादियों को मानो चुनौती देने लगेंगे ।
दुनिया भर के देशों से एकत्र कई शताब्दियों की इन वस्तुओं से हमें सभ्यताओं और संस्कृतियों का इतिहास तथा अलग-अलग समुदायों के सहस्तित्व का पता चलता है। इन प्रदर्शित वस्तुओं और कलाकृतियों को देख कर हम आजकल के तथाकथित मुस्लिम ‘चेहरों’ को पूरी तरह भूल कर सोचने लगते हैं कि यदि इस्लाम यह नहीं है तो फिर और क्या है।
अक्सर हम सोचते हैं कि विश्व परिदृश्य पर इस्लाम के आगमन से अतीत से हट कर एक नई मुस्लिम सभ्यता-संस्कृति का उदय हुआ। जी नहीं, इस प्रदर्शनी में दर्शाए गए सिक्कों, मिटटी के बर्तनों, कलाकृतियों, टाइल्स आदि से, जो ब्रिटिश म्यूजियम के अपने संग्रह से सातवीं सदी और उसके बाद से एकत्र किये गए हैं, कुछ दूसरी कहानी और इतिहास का पता चलता है।
पैगम्बर मुहम्मद का जन्म 570 ई0 में हुआ था। उस समय विश्व में खुरासान और बाईजेंटाइन साम्राज्य का बोलबाला था। मुहम्मद और उनके अनुयायियों ने कला और वास्तु शिल्प, राजनीति और शक्ति के क्षेत्र में इन्हीं का अनुसरण किया। और तो और मुस्लिम स्वर्ण मुद्रा ‘दीनार’ का नाम भी रोमन ‘देनारियास’ से लिया गया। मुस्लिम सभ्यताओं का ‘हालमार्क’ यानी प्रतीक चीन से लेकर फिलिपीन, मलाया से अफ्रीका और पूरे मध्य पूर्व में ‘सहस्तित्व’ था। यहाँ तक कि मुस्लिम स्पेन भी उससे अछूता नहीं रह गया था।
यहूदी, ईसाई और मुस्लिम सिक्के मिस्र में रोमन काल से चल रहे थे। गैलरी में 1000 और 1200 वीं सदी के पाषाण सिक्कों के कई नमूने रखे गए हैं। यहूदियों और ईसाइयों द्वारा बनाई गई पेंटिंग्स, नक्काशी के नमूने, ग्यारहवीं सदी के इस्माइलीयों द्वारा बनाए गए इत्रदान और उन्नीसवीं सदी के बहाइयों द्वारा बनाई गई पेंटिंग्स से पता चलता है कि मुस्लिम सभ्यताओं में ये सब विविधताएँ मौजूद थीं।
आजकल के संकीर्ण विचारों वाले मुसलमान भले ही विज्ञान और डार्विन को न मानें, संगीत को शैतान का औजार कहें और अपनी औरतों को बुरका पहिना कर इश्क और कामाग्नि से बचाएँ, लेकिन 700ई0 के बाद मुसलमान वैज्ञानिक, विचारक और बौद्धिक इस्लाम के आगमन के पहले के खगोल शास्त्र तथा अन्य विज्ञान को मान कर उसी राह पर चलते रहे।
कम्प्यूटर उस समय भी थे जिन्हें ‘एस्ट्रोलेब’ कहा जाता था। गैलरी में रखे गए 13वीं के एक एस्ट्रोलेब से पता चलता है कि मध्यकालीन विज्ञान और विचार-स्वातंत्र्य को मुस्लिम शासकों का संरक्षण प्राप्त था। कई मुस्लिम सभ्यताओं से प्राप्त वाद्य यंत्र और उनकी स्टाइल इस बात की गवाही देते हैं कि लौकिक, धार्मिक, सामाजिक और धर्मनिरपेक्ष सेटिंग्स में संगीत का किस प्रकार महत्वपूर्ण स्थान था। मस्जिदों, शहर के बीच चौकों और सूफी समारोहों में नाटक, नाच-गाना और धार्मिक कार्यक्रमों में संगीत की उपस्थिति अनिवार्य थी। इसके बावजूद देखा जा रहा है कि आज कुछ मुस्लिम देश, तालिबान और कट्टरपंथियों ने संगीत पर प्रतिबन्ध लगा रखा है।
गैलरी के अभिरक्षकों ने कलाकृतियों को प्रदर्शित करने में बहुत ही सूक्षमता और समझदारी से काम लिया है। तालिबान ने प्राचीन बामियान बुद्ध मूर्तियों को नष्ट कर डाला और कुछ मुस्लिम राष्ट्रों ने पामीरा के कुछ भाग विस्फोट से उड़ा दिए, क्योंकि वे मूर्तियाँ और लाक्षणिक कलाकृतियाँ आजकल के तथाकथित बौद्धिकों और एकेश्वरवादिर्यों की संवेदनशीलता से मेल नहीं खाती थीं। लेकिन गैलरी में प्रदर्शित शताब्दियों के टाइल्स, जग और अन्य कलाकृतियों से पता चलता है कि इस्लाम की दुनिया में लाक्षणिक आलंकारिक कला का चित्रण बहुत ही सामान्य बात थी।
मुहम्मद की मृत्यु के कई दशक बाद सातवीं सदी के सिक्कों पर अब्द अल-मलिक (685-705) की आकृतियाँ और 1308 की टाईलों पर कुरआन की आयतों के साथ मोर के चित्र बने हुए हैं। सम्भवतः मुस्लिम शिकारगाहों से प्राप्त 1600 के बाद की ईरानी तश्तरियों, प्लेटों पर तीतर के चित्र हैं। सौंदर्य और इश्क जो मानव मात्र की प्राकृतिक इच्छाएँ हैं वे भी मुस्लिम कला से अछूते नहीं रहे हैं। गैलरी में ‘हमजानामा’ की एक प्रति भी रखी हुई है। इस प्रेमगाथा महाकाव्य में लिखा हुआ है – ‘मुसलमान सभी अपनी-अपनी कब्रों में हैं और इस्लाम केवल किताबों में ही मिलेगा’। ब्रिटेन में आजकल, जान पड़ता है, असली इस्लाम ब्रिटिश म्यूजियम में ही मिलेगा।