अथ यज्ञोपवीत-भंजन कथा
रामपुर की रामकहानी-18
हमारी हिन्दी पट्टी में नाम और काम से आप की मुकम्मल पहचान नहीं होती जबतक जाति की पहचान न जुड़ जाय। नामकरण में भी जाति-वर्ण के भेद का ख्याल रखने की हिदायत का निष्ठापूर्वक अनुपालन हमारे ही क्षेत्र में होता है। मेरे गाँव में सवर्णों के नाम थे वृजराज, विद्याधर, श्यामधर, मुरलीधर, कृष्णचंद्र, गिरीशचंद्र, सूर्यप्रकाश, भूपेन्द्र, महेन्द्र, सुरेन्द्र, राजीव लोचन तो दलितों के नाम थे फेंकू, धुत्तू, सुक्खू, चिरकुट, चिखुरी, गोबरी, मोलहू, निरहू, घुरहू, कतवारू, कोदई, ढोंढ़ई आदि। आखिर मनुस्मृति का निर्देश तो यही है न!
“मंगल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्
वैश्यस्य धन संयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्।” ( मनुस्मृति,2.31)
अर्थात् ब्राह्मण का नाम शुभ भावबोधक, क्षत्रिय का नाम पराक्रम भावबोधक, वैश्य का नाम ऐश्वर्य भावबोधक और शूद्र का नाम घृणा भावबोधक होना चाहिए।
अकारण नहीं है कि अपनी समृद्ध ऐतिहासिक विरासत, गंगा-यमुना जैसी जीवन दायिनी नदियों, अकूत प्राकृतिक संसाधन, जाड़ा-गर्मी-बरसात जैसी ऋतुओं, उर्वर भूमि और मेहनती तथा प्रतिभाशाली नागरिकों के बावजूद, आज भी मनुस्मृति की ऐसी अनेक मान्यताओं में कैद यह क्षेत्र भारत में सबसे पिछड़ा है और ‘काऊबेल्ट’ कहा जाता है, यानी, गोबरपट्टी। मेरे अपने गाँव के चार सौ से अधिक युवा सिर्फ खाड़ी के देशों में मजदूरी कर रहे हैं। महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल, असम और पंजाब आदि जहाँ भी अवसर मिलता है, यहाँ के लोग श्रम बेचते हैं और फिर आए दिन वहाँ से दुत्कारे, पीटे और खदेड़े जाते हैं। आज यदि यह क्षेत्र साम्प्रदायिकता और जातिवाद का गढ़ बना हुआ है तो निश्चित रूप से इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। भक्तिकाल का लोकजागरण भी इसका कुछ न बिगाड़ सका।
जाति के साथ मेरा परिचय भी ग्रामीण परिवेश के किसी सामान्य ब्राह्मण परिवार के एक बालक के बतौर ही हुआ। मेरे गाँव में ब्राह्मणों के कुल आठ घर थे जिनमें मेरी पट्टीदारी के पाँच घर थे। मेरे बाऊजी के बड़े भाई, जिन्हें हम ‘बड़का बाऊजी’ कहते थे, प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर थे और क्षेत्र के सर्वाधिक पढ़े-लिखे लोगों में से थे। वे काँग्रेसी थे, गाँधीटोपी पहनते थे और आजादी के आन्दोलन में एक बार जेल भी हो आये थे। हारमोनियम बजाना और गाना उनकी हावी थी। वे कविताएँ भी रचते थे, हालांकि कई कविताओं में ब्राह्मणों के योगदान का जिक्र और उन्हें जगाने का भावबोध ज्यादा होता था। अपने परिवार की दस पीढ़ी का शजरा मैंने उनके पास देखा था। उन्हीं से मुझे भी हमारे पूर्वजों और बंशावली की जानकारी प्राप्त हुई।
हमारे पूर्वज, जो सारस्वत ब्राह्मण थे, गदर से पहले ही बलिया जिले के किसी गंगापुर नामक गाँव से आकर गोरखपुर के दक्षिण बसडीला नामक गाँव में बस गये थे। फिर बसडीला से इस तराई में आकर रामलाल बाबा ने छोटी सी जमींदारी खरीदी थी और उसके बाद वे यहीं के होकर रह गए। फिलहाल, मैंने न तो गंगापुर देखा है और न बसडीला।
ऋग्वेद में सरस्वती नदी का बार-बार जिक्र आया है। यह सदा जल से भरी रहती थी। इसके किनारे की भूमि बड़ी उपजाऊ थी। इसे अन्नवती और वेदवती भी कहा जाता था। यह 1700 ई।पू। तक बहती रही और फिर सूख गई। इसी सरस्वती के किनारे रहने वालों को सारस्वत कहा गया। सरस्वती और दृशद्वती के बीच के क्षेत्र को ब्रह्मावर्त भी कहा जाता था। मान्यता है कि इसी क्षेत्र में वेद रचे गए। अपनी अध्येतावृत्ति और श्रेष्ठ रचनाओं के प्रणयन के लिए ख्यात ब्रह्मावर्त के सारस्वत ब्राह्मण ‘ब्रह्मभट्ट’ की उपाधि से नवाजे गए जो मुख-सुख से भट्ट हो गया। वैसे संस्कृत के ग्रंथों में भट्ट का अर्थ भी विद्वान ही दिया हुआ है। परवर्ती काल में ये ब्राह्मण कश्मीर से लेकर उत्तर और दक्षिण भारत के विभिन्न इलाकों में फैल गए। इनमें से हमारे जैसे कुछ परिवार पूर्वांचल की ओर भी आ गए। ‘शर्मा’ सरनेम का प्रयोग हमारा परिवार इसलिए करता रहा क्योंकि शास्त्रों में ब्राह्मणों के लिए ‘शर्मा’ आस्पद लिखने का निर्देश है।
हमारी पट्टीदारी के अलावा गाँव में एक जद्दू पंडित का घर था, दूसरा राम बिरिछ भैया का और तीसरा सुकुल बाबा का। राम बिरिछ भैया (रामवृक्ष उपाध्याय) हमारे पड़ोसी तो थे ही, सगे पट्टीदार जैसे थे। उनकी माँ को मैं ‘बड़की माई’ कहता और उनके पिता जी को ‘बड़का दादा’। बड़की माई मुझे भी अपने सगे छोटे बेटे होसिला (हौशिला प्रसाद उपाध्याय) की तरह ही मानतीं। होसिला मुझसे सिर्फ पाँच महीने छोटे थे। सुकुल बाबा का घर मेरे घर से थोड़ी दूर था, किन्तु उनके घर से भी हमारे घर के बहुत मधुर संबंध थे। महिलाओं का आना-जाना बराबर लगा रहता। किन्तु गाँव के दूसरे छोर पर होने के कारण जद्दू पंडित के घर से हमारे घर का संबंध कुछ खास नहीं था।
धर्म में आस्था मेरे संस्कार का हिस्सा थी जिसके बीज बचपन में ही पड़ने लगे थे। प्राइमरी स्कूल पास होते-होते मैं रामायण पाठ करने लगा था। शाम को भोजन कर लेने के बाद ठीक नौ बजे पाठ करने बैठ जाना पड़ता था। बाऊजी और माई के अलावा पड़ोस से तिरबेनी भगत, हंसराज कोंहार और उपधिया के टोले से झिंगुरी काका जरूर आ जाते थे। तनिक भी देर होने पर झिंगुरी काका आते ही टोकते,” का हो बाबू, आजु देर हो गईल?” और जल्दी जल्दी तख्ते पर बैठकर रेहल पर रामायण या ‘विश्रामसागर’ सजा देता। रेहल पर सजते ही ये ग्रंथ खिल उठते और गर्व से मेरा मस्तक भी। मानो मैं व्यासपीठ पर बैठा होऊं।
एक घंटा नियमित रूप से रामायण या ‘विश्रामसागर’ का पाठ होता। मैं उसका सस्वर पाठ करता और फिर विस्तृत व्याख्या भी। रामायण यानी ‘तुलसीकृत रामायण’। तब ‘रामचरितमानस’ इसी नाम से बाजार में अधिक मिलता था। रामायण में तो व्याख्या लिखी हुई रहती थी किन्तु रघुनाथदास रामसनेही कृत ‘विश्रामसागर’ में नहीं। लेकिन मेरे लिए कोई असुविधा की बात नहीं थी। असल में ‘विश्रामसागर’ की भाषा इतनी सरल थी कि बिना व्याख्या के ही सभी श्रोता अमूमन समझ लेते थे। धार्मिक ग्रंथों का मेरा नियमित पाठ तबतक चलता रहा जबतक मैं बी.ए. पास करके आगे की पढ़ाई के लिए गोरखपुर नहीं चला गया। ‘रामायण’ और ‘विश्रामसागर’, ये दोनो ग्रंथ मुझे एकाधिक बार पढ़ने पड़े। ‘सोरठी बिरजाभार’, ‘सुखसागर’, ‘तोता-मैना किस्सा’, ‘बैताल पचीसी’ और ‘आल्हखंड’ मैंने कोर्स की पढ़ाई से समय निकालकर उन्हीं दिनों पढ़ लिया था। घर में ये किताबें पहले से मौजूद थीं और ये बाऊजी की खास पसंद भी थी।
दर्जा आठ में पढ़ने के दौरान शाखा मास्टर साहब से भेंट हुई। औसत कद के चुस्त दुरुस्त शरीर वाले शाखा मास्टर साहब मेरे कॉलेज में ही पढ़ाते थे जूनियर हाई स्कूल के विद्यार्थियों को। वे एक विशेष स्टाइल से धोती पहनते थे और ऊपर से कॉलरवाला कुर्ता। शाम को साढ़े पाँच बजे कॉलेज के मैदान में ही एक ओर शाखा लगती थी। शाखा मास्टर साहब की वेशभूषा ही नहीं उनकी मीठी बोली और उनके स्वभाव में भी जादू था। बच्चे उनकी ओर खिंचते चले जाते थे। उन्होंने कई बार मुझे भी शाखा में आने के लिए कहा था। मेरा एक दोस्त तो मेरे पीछे ही पड़ा रहता था, किन्तु मुझे समय पर घर पहुँचकर घर के काम में हाथ बँटाना पड़ता था। माँ की देखभाल करनी पड़ती थी। इतना ही नहीं, घर पहुँचने के बाद इतनी दूर शाखा में हिस्सा लेने के लिए फिर पैदल जाना मेरे लिए बहुत कठिन था। इसके बावजूद मैं कभी-कभी समय निकालकर शाखा में शामिल होता रहा और बहुत प्रभावित भी।
मेरा यज्ञोपवीत हुआ तो मैं इंटर में पढ़ रहा था और विश्वंभर दर्जा छ: में। बाऊजी ने हम दोनों भाइयों का यज्ञोपवीत बड़ी धूमधाम से एक ही साथ कराया। सभी रिश्तेदारों को न्योता भेजा गया था। हम दोनो भाइयों का मुँडन हुआ था। हम ब्रह्मचारी बनकर भिक्षाटन करने निकले थे। भिक्षा देने वाले लोग तो वहीं मौजूद थे। भिक्षाएं भी खूब मिलीं। धर्म के प्रति आस्था ने हमें यज्ञोपवीत के प्रति भी अत्यंत आस्थावान बना दिया। कभी-कभी लोगों के बीच जनेऊ का प्रदर्शन करते वक्त मुझे गौरवबोध भी होने लगा।
जवाहरलाल नेहरू डिग्री कॉलेज, महाराजगंज से सर्वाधिक अंकों के साथ प्रथम श्रेणी में मैंने बी.ए. पास किया। प्राचार्य ने अपने हाथ से लिखकर मुझे चरित्र प्रमाण-पत्र दिया जिसमें मेरी भूरि-भूरि प्रशंसा थी। उन दिनों गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रवेश मेरिट के आधार पर होता था। इसी आधार पर मुझे उस समय के सबसे प्रतिष्ठित संत कबीर छात्रावास में कमरा भी मिल गया। उन दिनों मैं हॉस्टल का अकेला विद्यार्थी था जो खड़ाऊँ पहनता था, चुटिया में गाँठ बाँधता था, दुर्गा सप्तशती का नियमित पाठ करता था, पूजा करके ही अन्न ग्रहण करता था और बाकायदा चंदन का लाल टीका लगाकर पढ़ने जाता था। मेरे सहपाठी मुझे ‘टीका बाबा’ कहने लगे थे।
नेशनल डिग्री कॉलेज, बड़हलगंज में शिक्षक बनने के बाद मुझे खुलकर पाठ्यक्रम से बाहर के साहित्य के अध्ययन का अवसर मिला। मैंने वेद खरीदे, कुरान मजीद और बाइबिल खरीद कर पढ़ा। गाँधी जी की आत्मकथा ने बहुत प्रभावित किया। ‘भगवद्गीता’ मेरी सबसे प्रिय पुस्तक थी। स्वामी दयानंद सरस्वती के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को कई बार पढ़ा और इसी क्रम में मार्क्सवाद के संपर्क में भी आया। मार्क्सवाद के अध्ययन में मेरे साथी बने विश्वनाथ मिश्र, जो कॉलेज में भूमि संरक्षण विभाग में शिक्षक थे। वे गजब के अध्येता थे। हम दोनों ने मिलकर मार्क्सवाद से संबंधित दुनिया की सभी महत्वपूर्ण किताबें चार-पांच वर्षों में पढ़ डालीं। डॉ. शंभु चतुर्वेदी के यहाँ अड्डा जमता था। कभी-कभी रियाज भाई और समीउल्लाह के यहाँ भी। डॉ. शंभु चतुर्वेदी आचरण और वेषभूषा दोनों से कम्युनिस्ट लगते थे। भीतर से बाहर तक एक जैसे। डाक्टर का कोई लक्षण उनमें नहीं था। कुर्ता-पैजामा पहनते थे। पान चबाते रहते थे। तर्क में किसी को भी हँसते-हँसते परास्त कर सकते थे। बड़हलगंज के समीप के गाँव भैंसौली के रहने वाले थे। रात को पैदल या साइकिल से रोज अकेले ही घर जाते थे। बेहद निडर। एक दिन गाँव के पास ही उनकी लाश मिली। न जाने किसने और क्यों उनकी हत्या कर दी थी।
मार्क्सवाद का मेरे ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा। समाज को देखने का नजरिया बदल गया। दृष्टि वैज्ञानिक हो गई। किसानों-मजदूरों के प्रति सम्मान-भाव बढ़ गया। सादगी अच्छी लगने लगी। “चेतना सांस्कृतिक मंच” का गठन हुआ। डॉ. जयंती प्रसाद अध्यक्ष बने, मैं सचिव और विश्वनाथ मिश्र संयोजक। डॉ. जयंती प्रसाद उन दिनों कॉलेज में हिन्दी विभाग के भी अध्यक्ष थे। जाति के धोबी। बड़ा अपमान सहा था उन्होंने जीवन में। मैंने जब ज्वाइन किया और मेरी पत्नी भी बड़हलगंज आ गईं तो मैंने उन्हें एक दिन भोजन पर बुलाया। वे मेरे विभागाध्यक्ष थे। जब हम एक साथ भोजन करने बैठे तो मैंने देखा कि उनकी आँखों से आँसू गिर रहे हैं। मुझे लगा कि हमसे कोई भूल हो गई है। मैंने घबड़ाकर पूछा,
“डॉक्टर साहब क्या हुआ ?”
“नहीं कुछ नहीं।”
“नहीं कुछ तो है। आप की आँखों में आँसू हैं। ऐसी हमसे क्या भूल हो गई है ? अभी तो आपने खाना छुआ तक नहीं ?”
वे उठे। बेसिन तक गए। मुँह धोया और आकर खाने की मेज पर बैठ गए।
“मैं यहाँ पहली बार किसी टीचर के घर साथ बैठकर थाली में भोजन कर रहा हूँ। यहाँ कॉलोनी में सबके यहाँ मेरे लिए अलग से कप रखे हुए हैं। किसी के यहाँ जब मैं जाता हूँ और चाय आती है तो मेरा कप अलग से पहले ही निकालकर मेरी तरफ रख दिया जाता है।” बोलते-बोलते डॉ. जयंती प्रसाद की आँखों में फिर से आँसू आ गए।
सूती कुर्ता-धोती पहनने वाले साँवले रंग के जयंती प्रसाद बुद्ध के प्रति आस्थावान थे, शाकाहारी थे, ईमानदार थे, झूठ नहीं बोलते थे और स्वाभिमानी भी थे। उनके बेडरूम में तीन तस्वीरें टँगी थीं, बुद्ध की, पेरियार की और ललई सिंह यादव की। ब्राह्मणों के प्रति यदि उनके मन में आक्रोश था तो उसका कारण भी था। बड़हलगंज छोड़कर मैंने कोलकाता आने का निर्णय लिया तो सबसे दुखी जयंती प्रसाद ही थे, किन्तु आने का मार्ग सुगम बनाने में भी सर्वाधिक भूमिका उन्हीं की थी।
कॉलेज के गेट के पास ही सड़क के किनारे डॉ. जयंती प्रसाद का भाड़े का क्वार्टर था। भाड़ा बहुत कम। जब तक बड़हलगंज रहे वे उसी में रहे। वे अकेले रहते थे। उनके यहाँ से बी.ए. करने के लिए एक लड़का कुछ दिन जरूर ठहरा था। जब पहली बार मेरी उस लड़के से मुलाकात हुई तो डॉ. जयंती प्रसाद घर पर नहीं थे। उसी लड़के ने दरवाजा खोला था। मैंने उसका नाम पूछा तो उसने बताया, “पी.डी.टण्डन”।
“कवन जाति हव ?” मेरे साथ आए विजयशंकर तिवारी केवल नाम से संतुष्ट नहीं थे और पूछ बैठे। पी.डी.टण्डन ने अपनी जीभ को ऊपर नीचे की दोनों दंतावलियों से सटाकर और चकार पर पूरा जोर लगाते हुए कहा था “च्चमार।”
पुरुषोत्तम दास टण्डन दो वर्ष बड़हलगंज रहे और बी.ए. करते ही किसी बैंक में नौकरी पा गए। टण्डन के चले जाने के बाद डॉ. प्रसाद ने अपना आगे का कमरा ‘चेतना सांस्कृतिक मंच’ के कार्यालय के लिए दे दिया था। बाद में इसी कमरे में हमने “आचार्य सत्यदेव शास्त्री स्मारक पुस्तकालय” भी खोल लिया और उसमें तरह-तरह की पुस्तकों का एक बड़ा भण्डार इकट्ठा कर लिया। एक दिन डॉ. जयंती प्रसाद ने अपनी निजी पुस्तकें भी लाकर पुस्तकालय में सजा दीं। उनमें बौद्ध धर्म से संबंधित पुस्तकें अधिक थीं। बौद्ध दर्शन के प्रति मेरे आकर्षण के प्रेरक डॉ. जयंती प्रसाद ही थे। यहाँ हमने एक स्वाध्याय मंडल बनाया जहाँ नियमित रूप से सामूहिक अध्ययन का कार्य चलता रहा। पढ़ना मेरी हॉवी थी। यहाँ न किताबों की कमी थी और न अध्ययनशील दोस्तों की। हमारे कॉलेज का पुस्तकालय भी बड़ा समृद्ध था। मैंने सबका भरपूर सदुपयोग किया।
इन्हीं दिनों हमने नाटकों की टीम बनाई और उसकी ओर से नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुतियाँ भी आस-पास के क्षेत्रों में करने लगे। जाति-पाँति, अंधविश्वास और सांप्रदायिकता का प्रतिरोध तथा वैज्ञानिक चेतना का विकास हमारे नाटकों के विषय होते थे। खर्च बहुत मामूली। हमारी ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी और लोगों के बुलावे आने लगे। हमने चार-पाँच वर्षों के भीतर मऊ, आजमगढ़, महाराजगंज, बस्ती आदि जिलों में गाँवों से लेकर शहरों तक सैकड़ों प्रस्तुतियाँ कीं। इन्हीं दिनों हमने तय किया कि जिन विचारों पर हमें विश्वास है और जिनका हम प्रचार कर रहे हैं उन्हें अपने जीवन में भी उतारना चाहिए। हम वर्षों तक इस बात को लेकर मंथन करते रहे कि यदि हम जाति-पाँति को नहीं मानते हैं तो फिर अपने नामों के आगे जातिसूचक पद क्यों लगाते हैं? जनेऊ क्यों पहनते हैं? फिर एक दिन बैठक करके हमने सामूहिक रूप से अपने-अपने जनेऊ तोड़कर एक जगह रख दिए और अपने-अपने नामों के साथ लगने वाले जाति सूचक पद हटा देने का भी फैसला कर लिया। उस बैठक में कई जनेऊधारी ब्राह्मण थे। विश्वनाथ मिश्र इसी के बाद विश्वनाथ कश्यप हो गए, वशिष्ठ द्विवेदी, वशिष्ठ अनूप हो गए, विजयशंकर तिवारी, विजयशंकर हो गये और मैं भी ‘शर्मा’ हटाकर अमरनाथ सारस्वत लिखने लगा। बाद में मैंने सारस्वत का पुछल्ला भी हटा लिया और खाँटी मनुष्य बन गया-डॉ. अमरनाथ।
जिस दिन मैंने जनेऊ तोड़कर फेंका उस दिन अनुभव हुआ कि छोटे-छोटे संस्कारों से भी मुक्त होना कितना कठिन होता है। महीनों तक मुझे पेशाब करने में बड़ी असुविधा होती थी। कान में जनेऊ लपेटने के लिए हाथ अपने आप सर्ट के भीतर घुस जाता और जनेऊ ढूँढने लगता, फिर याद आता कि वह तो है ही नहीं। वर्षों तक संबंधियों के यहाँ अथवा किसी यज्ञ-परोजन में इस डर से सर्ट नहीं उतारता था कि लोग जनेऊ के बारे में पूछेंगे तो जवाब क्या दूँगा? और किस-किस को जवाब दूँगा? मैं लाख सफाई दूँगा, लोग तो मुझे पथ-भ्रष्ट ही कहेंगे न? फिलहाल, मैंने न तो अपनी बेटी का कन्यादान किया और न अपने बच्चों का यज्ञोपवीत।
नवें दशक के उत्तरार्ध में विश्वनाथ जी एक वामपंथी राजनीतिक संगठन से जुड़ गए। वैचारिक मतभेद के चलते चेतना सांस्कृतिक मंच दो हिस्सों में बँटकर कमजोर पड़ गया। इन्हीं दिनों डॉ. चंद्रबली सिंह बड़हलगंज आए और एक दिन रुके भी। उनके प्रयास से बड़हलगंज में जनवादी लेखक संघ की इकाई गठित हुई जिसका मैं सचिव चुना गया। बाद में केन्द्रीय समिति का भी सदस्य निर्वाचित हुआ था। किन्तु वैचारिक मतभेद के चलते बाद में जलेस से भी पूरी तरह मुक्त हो गया। निश्चित रूप से मुझे निर्मित करने में बड़हलगंज की निर्णायक भूमिका रही है। इस कस्बे में मैंने अपने जीवन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण सोलह साल गुजारे हैं। उन्हीं दिनों मैंने इस कस्बे पर ‘बड़हलगंज’ शीर्षक से एक छोटी सी कविता भी लिखी थी।
“ग्रीष्म की कलकल, बरसात की हुंकार भरी
परमपूत सरयू ने दिया जिसे अभय-दान
अरब, ईरान, बैंकॉक, सिंगापुर के –
प्रवासी बाप-दादों की अर्जित संपत्ति ने –
गर्वीले पुत्रों का बदल दिया संस्कार
हत्या-चोरी-सीनाजोरी और बलात्कार
व्यथित है पूरा जवार
उधर डॉक्टर के घर हो रहा है सेमीनार
कई साहित्यिक मंच, लेखक, कवि, पत्रकार
हर पल संघर्षरत हैं राष्ट्र-अभ्युदय के लिये
साधन नहीं है मगर चाहत है, सीरत है
दुनिया बदल देंगे-फौलादी कुव्वत है
ठटरी पर डंडा भी सहने की हिम्मत है।
नुक्कड़ पर चुक्कड़ की चुस्की –
चलता रहता है सीनेट का अविरल अधिवेशन
पान की दूकानों पर –
दिन-दिन भर खड़े-खड़े गुजर जाते
हीगेल, मार्क्स, एंगेल्स और माओ के दर्शन की गुत्थियाँ सुलझाते
भारत की अर्थनीति, रूस की विदेश नीति, धर्म की प्रपंच नीति-
बदलनी ही पड़ेगी हमें।
सरयू का सुघर-सेतु जोड़ता है मध्य क्षेत्र अपने पूर्वांचल से
गुजरती है तेज बसें दस-दस मिनटों पर
स्टेशन नहीं है यहाँ——–
सिनेमा है, मेला है, मनचलों का रेला है
रात-दिन जगह-जगह होता झमेला है
बारिश के मौसम में लगता तबेला है
बड़हलगंज कस्बा तो सचमुच अलबेला है।”