इस रात को बाकी ही रहने दो ‘रात बाकी है’
{Featured in IMDb Critics Reviews}
निर्देशक : अविनाश दास
स्टार कास्ट : अनूप सोनी, राहुल देव, दीपनिता शर्मा, पाउली दाम आदि
रिलीजिंग प्लेटफॉर्म : ज़ी 5
जब निर्देशक ही फ़िल्म रिलीज होने के एक दिन पहले यह पोस्ट शेयर कर दे कि यह मेरी महत्वाकांक्षी फ़िल्म नहीं है। फिर भी यह मेरी ही फ़िल्म है। तो उस फिल्म को कोई क्यों देखना चाहेगा। तिस पर यह भी झूठ कि यह केवल वयस्कों के लिए है। दरअसल दर्शकों को तो आप खुद ही रोक रहे हैं कि फ़िल्म न देखें। इस फ़िल्म में ऐसा कुछ नहीं है कि इसे केवल वयस्क ही देखें या सपरिवार फ़िल्म न देखी जा सके। बस इसे नहीं देखने का कारण है तो इसकी कहानी, इसमें कलाकारों द्वारा किया गया अभिनय, स्क्रीनप्ले और खाली सेट डिजाइन के लिए तो कौन देखना चाहेगा।
दरअसल इस फ़िल्म की कहानी एक रात की है जिसमें एक बड़ी फिल्म अभिनेत्री ने सगाई की है एक फिल्मी लेखक से। लेकिन सगाई की रात ही उसका मर्डर हो जाता है। मर्डर की जांच का जिम्मा सौंपा जाता है राजेश अहलवात को। जिसके साथ उसने सगाई की यानी कार्तिक उस होटल से फरार हो जाता है। फिर वह एक हवेली पहुँचता है, जहाँ उसे अपनी पुरानी प्रेमिका वासुकी मिलती है, वह उसे अंदर लेकर जाती है और फिर पूरी कहानी बताती है। अब वाकई में मर्डर किसने किया है और क्यों किया है। इसका अनुमान आप आसानी से लगा लेते हैं। क्या वाकई में कार्तिक कातिल है? बस यह जानने के लिए फिल्म देखी जा सकती है।
कहानी को बस घुमाया जाता है जानबूझकर जैसे कभी-कभी घर में छाछ कम पड़ जाए तो हम उसमें पानी मिलाकर काम चला लेते हैं तो उसी तरह से फ़िल्म निर्देशक, फ़िल्म के लेखकों ने भी इसमें पानी फेर दिया है। इस वजह से एक रात की इस कहानी में न तो कोई रोमांच दिखता है और न ही कोई सस्पेंस।
फिल्म की कहानी इतनी अधिक सीधी, सरल है कि आप आगे होने वाली घटनाओं का अनुमान लगा सकते हैं। फिर हम सोचते हैं कि आने वाले अगले कुछ मिनट में तो कहानी में शायद कुछ तो ट्विस्ट आ जाए लेकिन सबकुछ इस कदर प्रायोजित सा लगता है कि इसे देखते हुए निराशा ही हाथ लगती है। इस वजह से फ़िल्म की कहानी न तो दिल में उतरती है और न ही दिमागी कसरत करने का मौका देती है।
फ़िल्म के डायलॉग भी बेहतरीन नहीं हैं और न ही कहानी में दम दिखाई देता है। इसकी बड़ी कमजोरी इसकी कास्ट भी नजर आती है कहीं-कहीं। बस बढ़िया बात यह है कि कहानी को बांधकर रखा गया है। अगर यह जरा और लंबी होती तो एक बोरिंग फ़िल्म हो सकती थी।
फिल्म के लिए सिद्धार्थ का लिखा स्क्रीनप्ले राहत देता है। एक्टिंग की बात करें तो अनूप सोनी ठीक-ठाक हैं। वहीं पाउली दाम प्रभावित करती है। वैसे पाउली दाम को देखकर “हेट स्टोरी” फ़िल्म की याद आती है। अपनी कई बंगाली फिल्मों की तरह इस फ़िल्म में भी पाउली ने सुंदर साड़ियां पहनी हैं और राजसी रोल में बढ़िया दिखी हैं। लेकिन इस बीच एक बात यह भी खटकती है कि पूरी फिल्म में साड़ी पहनकर घूमती लड़की, रात के अंधेरे में जीन्स, टी शर्ट, हील वाले बूट्स पहन कर क्यों निकलती हैं। वहीं दीपानिता के लिए करने के लिए खास फ़िल्म में था नहीं।
अतुल सत्य कौशिक एक प्रसिद्ध नाट्य-लेखक हैं। उनके नाटक को ही फ़िल्म में आधार बनाया गया है। अनूप सोनी के साथ उनका एक नाटक ‘बालीगंज 1990’ बहुत ही सफल नाटक माना जाता है। इस नाटक को आधार बनाकर फ़िल्म की कहानी रची गई है। लेकिन भारतीय सिनेमा में हमेशा मर्डर मिस्ट्री की कहानी में दर्शकों को समझ आ जाता है कि कत्ल किसने किया है, लेकिन नहीं समझ आता तो पुलिस को या जांच करने वाले अधिकारी को आखिर क्यों? यह सवाल हमें निर्देशकों, निर्माताओं, कहानीकारों से जरूर पूछा जाना चाहिए।
एडिटर अर्चित रस्तोगी फिल्म में फ्लैशबैक का इस्तेमाल करके भी कमाल नहीं कर पाते। ज़ी5 की चर्चित वेब सीरीज ‘रंगबाज’ की कहानी लिखने वाले सिद्धार्थ मिश्रा के सामने ऐसी क्या मजबूरी रही कि उन्हें इस फिल्म को लिखना पड़ा। फ़िल्म में केवल एक गाना है। जो सुनने में अच्छा लगता है और कहीं न कहीं फ़िल्म के सच को भी बयां करता है कि क्यों ये इंतकाम लिया निर्देशक ने दर्शकों को फ़िल्म दिखाकर।