छद्म धर्मनिरपेक्षता और नागरिकता का सवाल
- शिवदयाल
बँटवारा उनसे पूछ कर नहीं किया गया था। बँटवारा कैसा और किसका, वे अब तक नहीं जान रहे थे, लेकिन एक सुबह उनका देश बदल गया था, नागरिकता बदल गयी थी। सिलहट और चटगांव से लेकर पेशावर और कराची तक रक्त और राख फैल गयी थी। तब भी वे स्वीकार नहीं कर सके कि उनके धर्म और आस्था ने उनका देश और उनकी नागरिकता बदल दी थी, बल्कि एक नागरिक के रूप में उनकी कोई हैसियत ही नहीं रह गयी थी। वे धर्म के आधार पर बने एक नये देश, ‘पवित्र स्थान’ के ‘अपवित्र’ निवासी बन गए थे, जोकि अपनी, अपने पुरखों की धरती के मूल-निवासी थे वे। धीरे-धीरे अपमान, वंचना और यातना ने उनके जीवन में स्थाई स्थान बना लिया। दो ही विकल्प बचे – धर्मान्तरण या पलायन। वे 23 प्रतिशत से गिरकर 1.5 प्रतिशत (पाकिस्तान ) और 30 प्रतिशत से गिरकर लगभग 9 प्रतिशत (बांग्लादेश) रह गए। उनके लिए वहाँ रहना जितना असह्य था, निकलना उतना ही दुष्कर। वे अपनों की अस्थियां लेकर ही भारत आ सकते थे- उन्हें पवित्र नदियों में विसर्जित करने के बहाने। ऐसे वे आए, सीमा पार की और फिर उस ओर नहीं देखा। यहीं रह गए, यहाँ कम के कम धर्म तो बच सकता था, आस्था बच सकती थी, कुछ तो मान-सम्मान बच सकता था।
अनागरिक के रूप में इतने बड़े देश, अपने कुछ ही पीढ़ी पहले के पूर्वजों की मातृभूमि जिस पर बकौल महात्मा गांधी, उनका भी उतना ही अधिकार था. दारुण कष्ट झेलते रहे. इनमें ज्यादातर हिन्दू थे. लेकिन सिख, ईसाई और बौद्ध भी थे और हैं। जो नागरिकता 14 अगस्त 1947 को उनपर उनसे पूछे बिना थोप दी गयी थी. उन्होंने खुद को उससे बाहर कर लिया था, लेकिन अपनी ही मूल भूमि, पूर्वजों के देश में वे अनागरिक बने हुए थे (हैं), सभी नागरिक सुविधाओं से वंचित।
भारत की नागरिकता हर दृष्टि से इनका अधिकार थी. इसी को वास्तविक बनाने के लिए पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा अफगानिस्तान से धार्मिक आधार पर सतत उत्पीड़न से बचने के लिए भारत की शरण में आए उन देशों के अल्पसंख्यक हिन्दुओं, सिखों, ईसाइयों, बौद्धों, जैनियों और फारसियों के लिए नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान किया गया। उन प्रवासियों के लिए जो 31 दिसम्बर 2014 तक भारत में आ चुके थे। यह भी नहीं कि इस तिथि के बाद भारत की शरण में आए इन 6 कोटियों और इनके अलावा अन्य कोटियों, यथा मुसलमानों को नागरिकता देने के लिए दरवाजे बन्द कर दिये गए। इनके लिए पहले से नागरिकता प्रदान करने की प्रक्रिया यथावत जारी रहनी है। तो यही है कुल जमा नागरिकता संशोधन कानून 2019। संशोधन का जो आधार है, ऐतिहासिक आधार है. उसमें किस बिना पर ‘हिन्दू’ के साथ ‘मुसलमान’ शब्द जुड़ जाता? फिर किस आधार पर किस तरीके से इस संशोधन से मुसलमानों की भारतीय नागरिकता जा रही है या उस पर आंच आ रही है? यानी दर्द यह है कि ‘सताए हुओं के साथ’ सताने वाले’ भी क्यों न भारत चले आएँ और यहाँ के नागरिक बन जाएँ। शाहीन बाग क्रांति का यही तो लक्ष्य है- आना है तो मुसलमान भी आयें, वरना कोई न आए। फिर इस आरोप या आशंका में तो दम दिखाई देता है- “इन लोगों को मुसलमानों की नागरिकता जाने का डर सता रहा है या भारत में इस्लामी राज्य की संभावना समाप्त होने का डर?”
हिन्दू को उत्पीड़ित दिखाने ,समझने में भी डर है या आपत्ति? भले ही वह पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्ता़न या फिर किसी जगह का कितना भी सताया हुआ हिन्दू हो. भारत की धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक धारा में वैसे ‘हिन्दू’ एक वर्जित, लगभग निषिद्ध शब्द रहा है। कुछ ऐसे भी ज्ञानी लोग हैं जिन्हें इस संज्ञा पर ही आपत्ति है, एक समुदाय के रूप में इसे वे मान्यता नहीं देना चाहते। कहते हैं , यह शब्द तो स्वयं अरबों आदि का दिया हुआ है, हिन्दू तो कोई धर्म है ही नहीं। यह बात लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना को किसी ने क्यों नहीं समझाई, कम से कम बँटवारा तो न होता। अब बँटवारे का कारण भी हिन्दुओं को बताया जाता है, क्योंकि कथित रूप से विनायक दामोदर सावरकर ने सबसे पहले 1937 में ‘द्विराष्ट्र’ की अवधारणा का प्रतिपादन किया था, भले ही 1905 के बंगाल के साम्प्रदायिक विभाजन के बाद 1906 में ही मुस्लिम लीग की स्थापना ढाका में हो चुकी हो। फिर सावरकर क्या स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे बड़े नेता थे, या कि क्या पूरा हिन्दू समाज उन्हींं के पीछे घूम रहा था, या कि उनके मुख से ‘दो-राष्ट्र’ निकला और पाकिस्तान की जमीन तैयार! भारत विभाजन पर संभवत: सबसे महत्वपूर्ण किताब देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने लिखी है –‘इंडिया डिवाइडेड’ (लेकिन इसकी चर्चा ‘विद्वत ’ समाज में सुनने को नहीं मिलती, क्यों मिले?).
तो यह सब अर्द्ध-सत्य और झूठ-फरेब भी चलाया जा रहा है, और आज की राजनीति में किसी एक दल का यह एकाधिकार भी नहीं रह गया है। लेकिन असल आशय जो यहाँ इन बातों को सामने लाने का है वह एक खास तरह के हिन्दू- भय को प्रचारित-प्रसारित करने की ओर इशारा करने का है। पाकिस्तान के पैरोकारों को भी हिन्दु्ओं का डर सता रहा था, आज भी ‘हिन्दू’ का खौफ खड़ा किया जा रहा है। आखिर इसका आधार क्या है? क्या पिछले एक हजार साल में हिन्दुओं ने कोई दिग्विजयी अभियान छेड़ा जिसमें लाखों लोगों को मारा गया हो ओर बस्तियों को राख कर दिया गया हो? क्या उनमें इस बीच कोई तैमूर लंग या नादिरशाह या अब्दाली पैदा हुआ जिसने नरमुंडों की मीनारें बनवाई हों, मानव शवों का अम्बार लगा दिया हो? क्या किसी हिन्दू राजा या अधिपति ने औरतों और बच्चों की मंडियां लगाईं, या फिर क्या किसी तथाकथित हिन्दुओं में कोई हिटलर, स्टालिन, पोलपोट जैसे नरहंता शासक हुए? आखिर यह भय क्यों? अब तक लगभग बारह साल भाजपा ने केंद्र में राज किया है, दशकों से कई राज्यों में उसकी सरकारें रही हैं – क्या इस बीच मुसलमानों का अन्य अल्पसंख्यकों के खिलाफ कोई हिंसक अभियान चलाया गया हिन्दू निजाम स्थापित करने के लिए? क्या हिन्दुओं का कोई ‘पैन हिन्दू’ विजन है? यह भी क्यों न देखा जाए कि बारहवीं से लेकर अट्ठारहवीं सदी तक पूरे उत्तर भारत में नालंदा, विक्रमशिला या तक्षशिला जैसे समावेशी कितने ज्ञान-केन्द्र विकसित हो सके? क्यां नालंदा–तक्षशिला में शिक्षार्थी की पृष्ठभूमि,उसकी रुचि और विषयवस्तु के आधार पर भेदभाव किया जाता था? क्या बर्बर और जाहिल हिन्दु्ओं के देश में बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर , शंकर , वेदव्यास, वाल्मीकि और कालिदास और अभिनवगुप्त हुए ? क्या चोल, चालुक्य, सातवाहन, मौर्य, गुप्त, पाल और वर्द्धन कोई और लोग थे? हिन्दू् तो एक ऐसा अभिशप्त, आत्मत-विस्मृत आत्मद्रोही समुदाय है जिसने चाहे जितनी यातनाएं सही हों, आप उसके प्रति सहानुभूति नहीं दिखा सकते, और यह इतिहास की बात नहीं, वर्तमान का भी सच है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति की यह सबसे बड़ी सफलता रही है। इन पंक्तियों का लेखक आज तक समझ नहीं पाया कि आखिर क्या वजह रही होगी, किस हिसाब से उसका सोच काम करता रहा होगा जो उसने कश्मीरी हिन्दुओं (पंडितों) के खिलाफ हुई मानवद्रोही घटनाओं पर एक पंक्ति नहीं लिखी। चाहे वह बिहार का जातीय नरसंहार हो, 1984 की सिख विरोधी हिंसा हो, गुजरात का तांडव हो, या फिर भागलपुर दंगा–कम से कम उल्लेख तो जरूर आया, लेकिन कश्मीर के मामले पर? क्या वह धर्मनिरपेक्षता के प्रति द्रोह होता, एक प्रतिगामी कदम जो कश्मीरी हिन्दुओं के आर्तक्रंदन पर भी दो पंक्तियों लिख जातीं ?
लोकतांत्रिक राजनीति में अलग-अलग दौर आते हैं। यह राजनीति का नया दौर है भारत में , जबकि उसमें एक टेक्टोनिक शिफ्ट हो चुका है। वह धरातल ही बदल चुका हे जिसपर सत्ता की राजनीति खेल खेलती रही थी। इसकी कल्पना ,बल्कि भविष्यवाणी अंसार हुसैन खान जैसे बुद्धिजीवी नब्बे के दशक में ही कर रहे थे। वे भारत की भावी राजनीति को वहाँ से साफ साफ देख रहे थे (रिडिस्कवरी ऑफ़ इंडिया, ओरिएंट लांगमेन, 1996)| हम उस समय रथयात्राओं और भगवा झंडों को घृणा के भाव से देख रहे थे ओर ‘मंडल’ में ‘कमंडल’ की काट देख रहे थे। आज ‘मंडल’ ‘कमंडल’ में समाहित हो चुका है । आप ब्राह्मणों और सवर्णों को गाली देते रहिए , उन्हें ‘बाकी सब’ का निशाना बनाते रहिए , आज तो हिन्दुत्व की राजनीति के कर्णधार पिछड़े और दलित ही हैं, पूरा नेतृत्व उन्हीं का है। हम जिसे ‘एरोगेंस’ समझते रहे वह दरअसल नेतृत्व का ‘कान्फिडेंस’ है, और वह यों ही नहीं है। यह नेतृत्व अच्छी तरह जानता है कि लोग उसके पीछे हैं, स्वच्छ ईमानदार छवि, जमीन और संस्कृति से जुड़ाव इसका यूएसपी है। इसकी समाज दर शायक सबसे अधिक हो। यही कारण है कि वह नोटबंदी करता है, बदले में वोट पाता है। गरीब विरोधी सरकार गरीबों के खाते खुलवाकर उसमें पैसे डाल रही है, उनके लिए घर और शौचालय बनवाती है, सड़क और विजली बत्ती का इंतजाम कर रही है। जमीनी राजनीति की ताकत ही सत्तर साल की कश्मीर की फॉंस को भारतीय राष्ट्र के गले से निकाल सकी। आपसे यह क्यों नहीं संभव हुआ? कुछ सौ लोग सड़क पर निकलते थे और आपको लगता था सारा कश्मीर उनके पीछे है, और आप (शायद जानबूझ कर) डर जाते थे। वर्तमान सरकार की मुस्लिम आबादी को सीधे स्पर्श करने वाली नीतियों ने धर्मनिरपेक्ष यथास्थितिवाद को तोड़ दिया है। कुछ चीजे मानों असंभव कल्पनना बना दी गयी थीं – कश्मीर का कुछ नहीं किया जा सकता , मुसलमानों में धार्मिक-सामाजिक सुधार नहीं हो सकता , सरकार सीधे बहुसंख्यकों के वाजिब हक के लिए कदम नही उठा सकती , भारत में अंतरसामुदायिक सबंधों का एक ही अर्थ है – हिन्दू–मुस्लिम सम्बन्ध …’ यह सब गलत साबित हो चुका।
यह उबाल वास्तव में उस यथास्थिति के टूटने से उपजा है, जिसने आजादी के बाद से ही मानो हमारी नियति को जकड़ रखा था। और यह काम किसी प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष नहीं बल्कि ‘दक्षिणपंथी ’ सरकार ने राष्ट्रवाद जैसे ‘संकीर्ण’ प्रत्यय के नाम पर किया है। इसका मुकाबले करने के लिए और चौरस, ठोस जमीन तलाशनी होगी। फिलहाल तो इस राष्ट्रवाद की धारा के पीछे जो हिन्दू उभार है, उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना और स्वीकार करना भी कम महत्व का काम नहीं है। हिन्दू–नागरिकता के सवाल को हिन्दू–द्रोह तक ले जाने से बचना होगा।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं|
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