
लोकतन्त्र में जनादेश – विमल कुमार
- विमल कुमार
लोकतन्त्र में जनादेश ही निर्णायक होता है इसलिए उसका सम्मान किया जाना चाहिए लेकिन यह सच है कि जनादेश कोई अन्तिम सत्य नही होता है| उसकी अवधि सिर्फ पाँच साल की होती है| जनादेश एक खास कालखण्ड में जनता की मानसिकता, सोच और दृष्टिकोण को प्रतिबिम्बित करते रहते हैं| इसलिए हर कालखण्ड में जनादेश भी बदल जाते है लेकिन साहित्य संस्कृति दर्शन से जुड़े लोगों का सत्य केवल जनादेश तक सीमित नही रहता| वह जनादेश की अवधि से परे होता है यानि वह कालातीत होता है| भारतीय राजनीति कई सालों से अपने सत्य को खोजने की कोशिश में बिलकुल मुब्तिला नही है जैसी कोशिश गाँधी, नेहरु, लोहिया, जेपी, नरेन्द्रदेव आदि में थी| वह केवल सत्ता और जनादेश तक सीमित रह गयी है लेकिन जब कोई राजनीतिक दल को जनादेश मिलता है तो वह उसे युग सत्य की तरह प्रस्तुत करने लगता है और भारतीय मीडिया जो अपनी नैतिकता और गरिमा पुरी तरह खो चूका है, उसकी दुदुम्भी बजाने में लग जाता है मानो आर्कमिडीज की तरह उरेका-उरेका चिल्ला रहा हो लेकिन टी वी की दुनिया में विजय उल्लास की चीख पुकार में उसके शोर में सत्य का गला घुटने लगता है| हमे यह नही भूलना चाहिए कि इसी जनता ने इंदिरा गाँधी को 1977 में बुरी तरह हराया था, फिर उन्हें विजयी बनाया| इसी जनता ने राजीव गाँधी की सरकार बनवाई फिर वीपी सिंह को भी सत्ता प्रदान की| मोर्चा सरकार भी बनी| फिर वाजपेयी को मौका दिया फिर उन्हें भी पराजित किया| उसके बाद मनमोहन सिंह को दो बार मौका दिया| अब फिर दो बार मोदी को अवसर दिया लेकिन भारतीय जनता पार्टी और अपरिपक्व मीडिया इसे ऐसे पेश कर रहा है मानों जनता ने पहली बार किसी को इस तरह विजयी बनाया है| क्या अब तक जितनी बार जनादेश मिले उस से मुल्क की हालत ठीक हो गयी, सारी समस्याएँ सही हो गयीं| चुनौतियाँ समाप्त हो गयीं| जाहिर है नही तभी तो बार-बार जनादेश बदल रहे है और इस से प्रमाणित हो गया कि जनादेश कोई अन्तिम सत्य नही होता इसलिए इस पर अधिक इतराना नही चाहिए| जो लोग अपने जीवन में सत्य की खोज नही करते और राजनीतिक दलों के प्रवक्ता बन जाते है, उनके लिए जनादेश कोई उपहार हो कोई रामवाण हो उन्हें बहुत अधिक खुशियाँ देता हो लेकिन साहित्य, कला और दर्शन से जुड़े लोगों के लिए यह जनादेश बहुत ही सीमित अर्थ लिए हुए है और इस जनादेश की वह व्याख्या नही की जा सकती जो भाजपा के नेता और मीडिया कर रहा है|
अगर इस चुनाव के आंकड़ों को देख लिया जाये तो यह सिद्ध हो जाता है कि यह चुनाव भी सिर्फ एक गणित था| यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि चुनाव लगातार अंकगणित में तब्दील होते जा रहे हैं| टिकट दिए जाने से सत्ता बनाने तक का गणित| कार्यकर्त्ताओं को प्रशिक्षित करने से लेकर चुनाव प्रचार की सामग्री निर्धारित करने और एजेंडा बनाने तक का गणित| रोड शो और जनसभाओं को आयोजित करने पूजा पाठ करने और धर्म जाति सेना के इस्तेमाल का गणित लेकिन प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी लगातार यह कह रहे है कि इस चुनाव मे जाति की दीवारे गिर गयीं तो फिर 84 प्रतिशत सांसद सवर्ण कैसे जीते| क्या बेगुसराय में गिरिराज सिंह को इसलिए नही लडाया गया कि वे भूमिहार थे और वहाँ भूमिहारों की संख्या सबसे अधिक है| जाति ही नही धर्म का इस्तेमाल हुआ| आखिर भाजपा ने मुसलमानों को इतने कम टिकट क्यों दिए? आज मोदी कह रहे है कि मुसलमानों का ख्याल रखा जायेगा| लेकिन उनके अलावा उनके नेताओं ने भी अपने बयानों से लगातार मुसलमानों पर हमले किये| पाकिस्तान भेजे जाने की बात का विरोध तक नही किया और तो और प्रज्ञा ठाकुर तक तो टिकट दिया जिसने सार्वजनिक रूप से गोडसे को देशभक्त बताया उसकी तारीफ की और गाँधी की हत्या की तारीफ़ की| भाजपा ने यह चुनाव सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और हिन्दी मुस्लिम विद्वेष के जरिये जीता| यह बहुसंख्यक वाद की जीत है लेकिन यह इसलिए संभव नही हो पाया कि कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर महागठबन्धन नही बना सकी और राहुल को प्रधानमन्त्री उम्मीदवार के रूप में पेश करती रही| भारतीय जनता अब गाँधी नेहरु के वंशवाद को पसन्द नही करती| यह बात न केवल कांग्रेसियों बल्कि वामपंथियों को भी स्वीकार कर लेनी चाहिए| दरअसल 2014 से लेकर अब तक मोदी का जो उभार हुआ है वह कांग्रेस की विफलताओं के कारण हुआ है| शाहबानो से लेकर मस्जिद का ताला खुलवाने| 84 के दंगे, भ्रष्ट्राचार, चाटुकारिता नयी आर्थिक नीतियों के कारण मोदी को स्पेस दिया है| भाजपा ने भी वही पाखण्ड अपना लिया है जो कांग्रेस अपनाती रही है| वह कांग्रेस से अधिक धूर्त कुटिल चालक और खतरनाक हो गयी| दरअसल यह छद्म धर्मनिरपेक्षता बनाम छद्म राष्ट्रवाद की लड़ाई है| इस चुनाव में लालू, मुलायम और वाम दल भी बुरी तरह हारे जो धर्मनिरपेक्षता की राजनीति वर्षों से कर रहे थे| राहुल गाँधी ने किसानों की आत्महत्या| शिक्षा का बजट बढाने| बैंको के एनपीए और अम्बानी का मुद्दा उठाया जबकि पुरी दुनिया जानती है कि कांग्रेस के कार्यकाल में भी किसानों ने आत्महत्या की, कृषि संकट दूर नही हुआ| कांग्रेस का कार्यकाल में भी शिक्षा का निजी करण हुआ| 50 साल में शिक्षा का 6 प्रतिशत बजट नही हुआ, कांग्रेस के कार्यकाल में बैंकों का एनपीए बढ़ा|

यहाँ एक बात का उल्लेख करना समीचीन हगा कि जब वाजपेयी प्रधानमन्त्री बने तो सोनिया गाँधी ने उनसे मिलकर शिकायत की कि तेजी से निजीकरण हो रहा है तब वाजपेयी ने कहा था – मैडम, आपने जो रास्ता दिखाया था, हम उस पर चल रहे हैं| तब सोनिया निरुत्तर हो गयीं| दरअसल कांग्रेस और भाजपा कमोबेश एक ही रस्ते पर चल रहे हैं लेकिन अब भाजपा कांग्रेस से अधिक चतुर सुजन हो गयी है| गैर-कांग्रेस विपक्ष खुद ध्वस्त है| उसे भी सत्ता मिलती है तो उसका भी आचरण दर्प अहंकार से भरा होता है| जाहिर है जब तक भारतीय राजनीति बड़े सच या अन्तिम सत्य की खोज नही करेगी| ये जनादेश इसी तरह से आते रहेंगे क्योंकि हम अपहृत लोकतन्त्र में जी रहे है| जो अधिक ताकतवर है वह उसे जीत ले रहा है हांक ले जा रहा है| साहित्य कला दर्शन अन्तिम सत्य की खोज करता है इसलिए उस से जुड़े लोग इस जनादेश को लेकर उत्साहित नही हैं| उनके लिए लड़ाई लम्बी हो गयी है| यह गाँधी जी की 150 वीं जयंती वर्ष है, गाँधी जी जीवित होते तो वे भी उत्साहित नही होते क्योंकि वे तो देश को मिली राजनीतिक आजादी से ही अधिक खुश नही थे बल्कि दुखी थे क्योंकि उनकी इच्छाओं के विरुद्ध देश विभाजन हुआ था| जनादेश का सच और युग सत्य का द्वंध हमेशा लोकतन्त्र में बना रहता है और इसी से लेखक कलाकार बेचैन रहता है और पुरी दुनिया में साहित्य कला का सृजन भी इसी कारण होता रहता है|
लेखक वरिष्ठ कवि और पत्रकार हैं|
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