‘लाल सिंह चड्ढा’ देखनी चाहिए?… जो हुकुम
काफ़ी समय से विवादों में घिरी रहने तथा कोरोना के कारण देर से सिनेमाघरों में आने वाली आमिर खान की बहुप्रतीक्षित फिल्म आज रिलीज हो गई। फिल्म की कहानी की बात करें तो एक मंदबुद्धि तथा विकलांग लड़का जो मानता है कि जीवन में चमत्कार होते हैं। अब जैसे उसके साथ ट्रेन में सफर कर रहे बुजुर्ग दम्पत्ति का 84 के दंगों में बच जाना हो या दौड़ते-दौड़ते उसकी विकलांगता खत्म हो जाना हो। पंजाब से निकली लाल सिंह चड्ढा की यह कहानी कब पूरे देश की कहानी बन जाती है और अपने साथ भारत देश के भ्रमण पर ले जाती है आपको पता ही नहीं चलता। लेकिन जब फिल्म खत्म होने का नाम ही न ले तो आपके सब्र का इम्तिहान भी लेने लगती है।
कहने को विदेशी फिल्म ‘फारेस्ट गंप’ का, जी हाँ वही जिसने एक नहीं दो नहीं बल्कि पूरे छ: ऑस्कर अवार्ड अपने नाम किये, बावजूद उसके वह एक फ्लॉप फिल्म साबित हुई दुनियां भर में 5300 करोड़ कमाने के बाद भी। अब भला ऐसी सुपर फ्लॉप फिल्म का भारतीय करण करके आमिर खान फिल्म बनाकर वो भी चार साल बाद अपने पांवों पर कुल्हाड़ी क्यों मारेंगे भला? हम्म्म्म बताइए
ऊपर से देश द्रोही और उनकी बीवी जब ये कहे कि उन्हें हिन्दुस्तान में रहने से डर लगता है या फिल्म की हिरोइन यह बयान दे की आप नेपोटिज्म का इतना ही विरोध करते हैं तो उनकी फिल्म मत देखिये। ह्म्म्मम्म जी हूजूर बताइए?
खैर इस फिल्म में 84 के सिख दंगे भी शामिल हैं तो उसी के साथ लाल सिंह की खुद की अपने साथ स्कूल में पढने वाली एक लड़की रूपा कहानी और उसके नाना.. पड़ नाना की कहानी भी। जिन्होंने देश के लिए अलग-अलग लड़ाईयों में अपनी जान गंवाई। इसके साथ ही कहानी है एक मंदबुद्धि आदमी के बहुत बड़े बिजनेस मैन बनने की काल्पनिक कहानी। बाकी सब तो ठीक ये मंदबुद्धि आदमी को भारतीय सेना फौज में कब से भर्ती करने लगी? और तो और उसे वीरता के लिए वीर चक्र भी कब से प्रदान करने लगी?
तो रुकिए.. ठहरिये जनाब..आज रक्षाबंधन है और आगे देश की आजादी का पर्व भी आ रहा है फिर तिस पर फिल्म के बायकॉट होने का जो नुकसान हुआ उसका क्या? वो तो माउथ पब्लिसिटी से पूरा होगा ना जी? क्योंकि आमिर की मम्मी उफ्फ्फ सॉरी लाल सिंह चड्ढा की मम्मी कहती है … जिन्दगी ना गोलगप्पे की तरह होती है जितनी भी जी लो मन नहीं भरता। ठीक वैसे ही फिल्म के निर्माता, निर्देशक भी जितना भी कमा लें इनका जी नहीं भरता। और इनका क्या किसी का भी नहीं भरता।
फिल्म के कई सारे सीन हंसाते भी हैं तो कुछ भावुक भी करते हैं। मसलन जब लाल सिंह का परिवार दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास के सामने फोटो खिंचा रहा है और पीछे से गोलियों के चलने की आवाजें आने लगती हैं। तब वापस अपने गांव जाने के लिए लाल सिंह के सामने ही ऑटोवाले को पेट्रोल छिड़ककर जिंदा जला दिया जाना। और फिर उसकी मां का अपने बच्चे के बालों को वहीं पास में गिरे कांच के टुकड़े उठाकर बेटे की ‘जूड़ी’ खोलकर बाल काट देना। इसके अलावा अमरजेंसी के दृश्य जिनके बारे में लाल सिंह की मां उसे कहती है बाहर मलेरिया फैला हुआ है। कायदे से देखा जाए तो फिल्म में जिस तरह के मलेरिया फैलने की बातें बताई, दिखाई गईं है क्या वे आज भी हकीकत में नजर नहीं आती? इसके अलावा फिल्म में कई पल ऐसे भी हैं जिन्हें देख गर्व होता है। मसलन भारत को क्रिकेट वर्ल्ड कप में मिली जीत के दृश्य को देखना। या कुछ दूसरे पल जैसे बाबरी विध्वंस, रथयात्रा, मुम्बई हमले, डॉन अबू सलेम और उसकी प्रेमिका की कहानी के साथ-साथ यह फिल्म छुपे रूप में मोदी सरकार का चुनाव प्रचार भी कर जजाती है। जब दीवारों पर लिखे नारे नजर आते हैं।
दरअसल इस फिल्म की कमी यही है कि यह बहुत सारी कहानियों को एक साथ एक ही आदमी के जीवन में आने वाले हर मोड़ के महत्वपूर्ण हिस्सों को दिखाने के चक्कर में इतनी फ़ैल गई कि इसे एक बारगी झेलना मुश्किल लगने लगता है। कायदे से इसके लिए यदि कोई रिव्यू करने बैठे या इसकी कहानी सुनाने बैठे तो उसे ही कम से कम आपको सुनने और पढने में एक घंटा गुजर जाए। अब मैं भी क्या-क्या बताऊं इतना सब इसमें भरा पड़ा है कि पूछिए मत जाइए और एक लम्बी.. फिल्म देख आइये अगर आपने लम्बे… समय से सिनेमाघरों का रूख नहीं किया है तो। या अगर आपने फारेस्ट गम्प नहीं देखी है और अतिशय लम्बी फिल्म आप झेल सकते हैं तो जाइए इस रक्षाबन्धन और फिल्म देखिये।
बाकी इसके अलावा फिल्म का भारतीय करण जो अतुल कुलकर्णी ने किया है वह उम्दा जरुर है लेकिन इतना थकाने वाला है कि आप इसके खत्म होने के इन्तजार में हो सकता है कुछ देर पहले ही थियेटर हॉल से बाहर निकल जाएं। लेकिन फिल्म के निर्देशक अद्वैत चंदन का निर्देशन उम्दा किस्म का है। आज से ठीक चार साल पहले सुपर फ्लॉप फिल्म ‘ठग्स ऑफ हिंदोस्तान’ दे चुके आमिर खान इस फिल्म में अपने अभिनय के बलबूते उस लेवल पर पहुंचे हैं जहाँ उनके लिए कहा जा सकता है फिर से कि वे क्यों आखिरकार मिस्टर परफेक्शनिस्ट कहे जाते हैं। किसी डॉक्यूमेंट्री व् बायोपिक का सा एहसास दिलाती फिल्म की एडिटिंग तो उम्दा है जिसके लिए इसके एडिटर हेमंती सरकार को तालियां बनती हैं। अमिताभ भट्टाचार्य और प्रीतम ने मिलकर फिल्म के संगीत पर मेहनत काफी की है जो दिखाई भी देती है। लेकिन फिल्म के संगीत का कोई खास योगदान फिल्म में नजर नहीं आता। यही वजह है कि फिल्म के इतना लम्बा खिंच जाने में इन गानों का भी हाथ है।
आगामी राष्ट्रीय फिल्म पुरुस्कारों में देखना दिलचस्प होगा कि इसे नेशनल अवार्ड दिया जाएगा या नहीं। क्योंकि ऐसी फ़िल्में जो ख़ास करके विवादित होने का टैग अपने साथ रिलीज से पहले ही लेकर चल पड़े उनके लिए नेशनल अवार्ड देना फिल्म पुरूस्कार समिति को भी सोचने पर मजबूर कर देता है। लेकिन ऐसा होता है और किसी भी तरह का नेशनल अवार्ड इसे मिलता है तो हैरान होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि देखा जाए तो इस फिल्म में हर वो एलिमेंट है जो इसे नेशनल अवार्ड देने का हकदार भी बनाता है।
साथ ही यह फिल्म अपने तमाम सभी किरदारों के बेहतर प्रदर्शन के लिए देखी जा सकती है। कहीं-कहीं ‘पीके’ जैसी नजर आने वाली इस फिल्म में करीना कपूर खान का किरदार अहम जरुर है लेकिन वे कई जगहों पर कुछ कमजोर नजर भी आती हैं। अच्छा ख़ासा अभिनय कर लेने के बावजूद उनके चेहरे पर जो उम्र का ढलाव है वह साफ़ नजर आता है। लेकिन उन्होंने अच्छी कोशिश की है
बाला के रूप में नागा चैतन्य जमे है। पाकिस्तानी सैनिक के किरदार मोहम्मद भाई के किरदार में मानव विज यादगार काम करते हैं। वहीं लाल की मां के रूप में मोना सिंह दिल जीत ले जाती हैं। शाहरुख खान के केमियों को वीएफएक्स के माध्यम से बखूबी दिखाया गया है। बीच में आने वाले कई किरदारों में आर्या शर्मा भी उम्दा काम करती नजर आईं।
अपनी रेटिंग – 3.5 स्टार