शख्सियत

गोरखपुर में प्रेमचन्द : सौ साल पहले

 

आज से सौ साल पहले यानी वर्ष 1920 में गोरखपुर ही मुंशी प्रेमचन्द का पता-ठिकाना था। वे 19 अगस्त 1916 को इस शहर में आए और अगले साढ़े चार साल यानी 16 फ़रवरी 1921 तक बनारसी से गोरखपुरिया बनकर रहे। इस दौरान उन्होंने जो कुछ रचा वह उनकी ख्याति का मजबूत आधार बना। इस तरह देखा जाए तो यह वर्ष प्रेमचन्द के गोरखपुर में रचने-बसने का शताब्दी वर्ष है। जिस तरह किसी रचनाकार का जन्म-शताब्दी वर्ष साहित्य जगत में विशेष मायने रखता है उसी तरह रचनाकार के कृति और कीर्ति के रचाव-बसाव के शताब्दी वर्ष को भी समान महत्व के दृष्टि से देखा जाना चाहिए।

प्रेमचन्द की बनारसी पहचान काफी विख्यात है। बनारस ने उनकी रचनाओं के लिए काफी कच्चा माल और खाद-पानी उपलब्ध कराया जिसे शुरूआती तौर पर प्रेमचन्द ने गोरखपुर में ही लाकर पुष्पित-पल्लवित किया। हालाँकि इसके पहले भी वर्ष 1892 में मुंशी जी गोरखपुर आ चुके थे, लेकिन तब उनकी उम्र केवल तेरह साल की थी। उनके पिता अजायब राय यहीं के डाक विभाग में मुंशी थे। प्रेमचन्द उन दिनों का संस्मरण इसतरह  लिखते हैं कि “उस समय उर्दू के उपन्यास पढ़ने का उन्माद था।” वास्तव में उस समय के प्रेमचन्द उर्दू को चाहने वाले, उर्दू को पढ़ने वाले, उर्दू वाले धनपत राय थे।

आगे चलकर जब वे उर्दू में लिखने लगे तो उर्दू वाले नवाब राय बन गये लेकिन जब वे गोरखपुर आए तबतक हिन्दी वाले प्रेमचन्द के रूप में ढ़लना शुरू कर दिए थे। यहाँ आकर साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने जो पहला उल्लेखनीय काम किया  वह था अपने ही उर्दू उपन्यास “बाज़ार-ए-हुस्न” का “सेवासदन” के नाम से अनुवाद-कार्य। सेवासदन उपन्यास ने हिन्दी कथा साहित्य को “केवल मनोरंजन” के छिछले स्तर से उठाकर जन-जीवन से सीधे तौर पर जोड़ने का काम किया। इससे हिन्दी साहित्य को एक नयी दिशा मिली।

प्रेमचन्द गोरखपुर में रहते हुए जिन लोगों से अच्छी तरह से जुड़े उनमें महावीर प्रसाद पोद्दार, फ़िराक गोरखपुरी, मन्नन द्विवेदी गजपुरी, पत्रकार दशरथ प्रसाद द्विवेदी आदि प्रमुख थे। सन 1923 में गीता प्रेस के स्थापना से पूर्व महावीर प्रसाद पोद्दार हिन्दी पुस्तक एजेंसी संचालित थे। उन्हें मुद्रण का अच्छा अनुभव था और बंगाल के मारवाड़ी सेठ जयदयाल गोयन्दका ने उन्हीं के विश्वास पर गोरखपुर में गीता प्रेस स्थापित करने का विचार बनाया था। इसके पहले जब वे हिन्दी पुस्तक एजेंसी चलाते थे तभी उन्हें स्तरीय साहित्यकारों की परख हो गयी थी। पोद्दार जी ने प्रेमचन्द को न केवल हिन्दी में लिखने के लिए प्रोत्साहित किया बल्कि प्रेम-पचीसी, सेवासदन और प्रेमाश्रम को प्रकाशित भी किया। प्रेमचन्द से फ़िराक गोरखपुरी की पहचान भी पोद्दार जी ने ही करवाया था।

यह वह समय था जब राष्ट्रीय फलक पर महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व का प्रभाव निरन्तर व्यापक होता जा रहा था। अपने पहले अखिल भारतीय आन्दोलन में असहयोग का नारा बुलंद करते हुए वे देश भर में अनवरत दौरे कर रहे थे। इसी क्रम में आठ फ़रवरी 1921 को गाँधी जी पहली बार गोरखपुर आए। जल्द ही आज़ादी दिलाने का जो सपनीला वादा उन्होंने किया था उससे सम्पूर्ण भारत की जनता का उनके प्रति अगाध विश्वास बन गया था। बाले मियाँ के मैदान में उनका जोरदार स्वागत किया गया। लगभग दो लाख लोगों के बीच गाँधी जी ने जिस असहयोग का आह्वाहन किया उसका जन सामान्य पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा।

उस समय प्रेमचन्द की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी। वे काफी बीमार थे फिर भी अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को लेकर भाषण सुनने गये। गाँधी जी के कहने पर ही प्रेमचन्द ने 16 फ़रवरी 1921 को सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। उस समय अपने आर्थिक एवं पारिवारिक हालात के मद्देनज़र प्रेमचन्द नौकरी छोड़ने की स्थिति में नहीं थे लेकिन राष्ट्र को सर्वोपरि मानते हुए उन्होंने व्यक्तिगत जीवन को दाव पर लगा दिया।

इसी के साथ वे न केवल अपनी सरकारी नौकरी बल्कि गोरखपुर शहर को भी हमेशा के लिए छोड़कर अनिश्चित अज्ञात भवितव्य की ओर चले गये।

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अमित कुमार सिंह

लेखक शिक्षक हैं और साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन करते हैं। सम्पर्क- +918249895551, samit4506@gmail.com
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