जम्मू-कश्मीर में भारत, भारतीयों और लोकतंत्र की जीत
जम्मू-कश्मीर के जिला विकास परिषद् चुनाव परिणामों का राष्ट्रीय महत्व तो है ही, इनका अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक महत्व भी है। इसीलिए दिल्ली में बैठे विघ्न-संतोषी विपक्षी दल और पाकिस्तान-चीन जैसे ईर्ष्यालु पड़ोसी देश भी इन चुनावों में जनता की भागीदारी, घटित होने वाली हिंसा और चुनाव परिणामों की ओर टकटकी लगाकर देख रहे थे। आज उनकी धड़कन थम गयी है, और बोलती भी बन्द हो गयी है। ये चुनाव परिणाम बिहार विधान सभा चुनावों, हैदराबाद नगर निगम चुनावों और राजस्थान के पंचायत और स्थानीय निकाय चुनावों के परिणामों का ही विस्तार हैं। एक के बाद एक भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन लोकतान्त्रिक किले फतह कर रहा है। अगले साल देश के पाँच राज्यों- पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, पुदुचेरी और असम में विधान सभा चुनाव होने हैं। सन् 2021 की ‘पूर्वसंध्या’ में आये ये चुनाव परिणाम बहुत कुछ कहते हैं और आगामी विधानसभा चुनावों की पूर्वपीठिका निर्मित करते हैं। जम्मू-कश्मीर के चुनाव परिणाम के बाद दावे के साथ कहा जा सकता है कि आज देश में सच्चे अर्थों में एक ही अखिल भारतीय राजनीतिक दल है। यह दल भारतीय जनता पार्टी है, जिसकी पहुँच, पहचान और स्वीकार्यता गुजरात से असम-अरुणाचल प्रदेश तक और कश्मीर से तमिलनाडु-केरल तक है। भारतीय जनता पार्टी के निरन्तर चढ़ाव से विपक्ष और वामपंथी बुद्धिजीवियों की बौखलाहट अस्वाभाविक नहीं है।
पहले गुपकार गठजोड़ चुनाव में भागीदारी को लेकर असमंजस में था, और चुनाव बहिष्कार की योजना बना रहा था, किन्तु बाद में उन्हें लगा कि कहीं चुनाव बहिष्कार करके वे भी अलगाववादी संगठन हुर्रियत कॉन्फ्रेंस की तरह अलग-थलग पड़कर अप्रासंगिक न हो जाएँ और ‘राजनीतिक स्पेस’ को नए खिलाड़ी घेर लें। इसलिए वे गठबन्धन बनाकर पूरी मजबूती से यह चुनाव लड़ते हुए इन चुनाव परिणामों के माध्यम से कोई बड़ा राजनीतिक सन्देश देने की रणनीति पर काम कर रहे थे। वे अपने हमदर्द पाकिस्तान के साथ मिलकर अन्तरराष्ट्रीय कूटनीतिक मंचों पर भारत-विरोधी दुष्प्रचार करना चाहते थे। लेकिन घोषित चुनाव परिणामों ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया है।
5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किये जाने और अनुच्छेद 35 ए की समाप्ति के बाद हुए जम्मू-कश्मीर में हुए पहले चुनाव में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभरी है। इस चुनाव में उसने जम्मू-कश्मीर के 20 जिलों की 280 जिला परिषद् सीटों में से न सिर्फ 75 सीटों पर विजय प्राप्त की है, बल्कि उसके द्वारा प्राप्त मत प्रतिशत में भी उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है। 2014 के विधान सभा चुनाव में जहाँ भारतीय जनता पार्टी ने राज्य में हुए मतदान के कुल 22.98 प्रतिशत मत प्राप्त किये थे, वहीं इसबार यह प्रतिशत बढ़कर 24.82 फीसद हो गया है। भारतीय जनता पार्टी ने न सिर्फ जम्मू संभाग में गुपकार गठजोड़ का सूफड़ा साफ़ कर दिया है, बल्कि पहली बार कश्मीर संभाग में भी तीन सीट जीतकर अभूतपूर्व उपलब्धि हासिल की है। यह वही कश्मीर है, जहाँ भारतीय जनता पार्टी तो क्या भारत का तिरंगा झंडा उठाने वालों को मौत के घाट उतार दिया जाता था। ‘एक निशान, एक विधान और एक प्रधान’ की लड़ाई लड़ते हुए ही डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे भारत माता के सपूतों का बलिदान हुआ था। इन चुनाव परिणामों ने सच्चे अर्थों में जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और प्रजा परिषद् के संस्थापक अध्यक्ष पंडित प्रेमनाथ डोगरा की सोच और संघर्ष को सही साबित कर दिया है।
भारतीय जनता पार्टी के बढ़ते दबदबे से आशंकित सात विपक्षी दलों (नैशनल कॉन्फ्रेस, पीडीपी, जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी आदि) ने ‘पीपुल्स एलायंस फॉर गुपकार डिक्लरेशन’ के बैनर तले गठबन्धन बनाकर यह चुनाव लड़ा था। वस्तुतः यह भारतीय जनता पार्टी की लोकप्रियता और जनाधार से घबराये हुए चिर-प्रतिद्वंद्वी दलों का मतलबपरस्त और मौकापरस्त गठजोड़ मात्र था। सात दलों के इस गठबन्धन ने 110 सीटों पर विजय प्राप्त की है। जहाँ निर्दलीय प्रत्याशियों ने 49 सीटों पर जीत दर्ज की है, वहीं कांग्रेस मात्र 26 सीटें ही जीत सकी है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष जी ए मीर के साहिबजादे भी चुनाव हार गये। ‘पीपुल्स एलायंस फॉर गुपकार डिक्लरेशन’ नामक गठबन्धन में शामिल जम्मू-कश्मीर के पुराने और स्थापित राजनीतिक दलों का प्रदर्शन वास्तव में अत्यंत निराशाजनक है। महबूबा मुफ़्ती की पार्टी पी डी पी तो मात्र 27 सीटों पर ही सिमट गयी। भाजपा और निर्दलीय प्रत्याशियों द्वारा जीती गयी कुल सीटों (124) और उनको मिले मत प्रतिशत को जोड़ दें (52 प्रतिशत से अधिक) तो यह जनादेश साफ़ संकेत देता है कि जम्मू-कश्मीर के लोग बदलाव और विकास चाहते हैं। वे आतंकवाद और अलगाववाद की काली छाया से बाहर निकलकर नई संभावनाओं का सूर्योदय देखना चाहते हैं। वे खून-खराबे और दहशतगर्दी की धरती बन गयी कश्मीर की वादियों को एकबार फिर “धरती का स्वर्ग” बनाने की परियोजना में भागीदार बनना चाहते हैं।
इन चुनावों का वास्तविक और सबसे बड़ा सन्देश राज्य में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की बहाली और उसमें व्यापक जन भागीदारी है। इस चुनाव में सबसे पहले और सबसे बढ़कर लोकतंत्र की जीत हुई है। आतंकवादी और अलगाववादी संगठनों को ठेंगा दिखाते हुए न सिर्फ भारी संख्या में लोग चुनाव लड़े, बल्कि आम मतदाता ने पूर्ववर्ती चुनावों से कहीं ज्यादा मतदान भी किया। इसबार 280 सीटों के लिए कुल 2178 प्रत्याशी चुनाव लड़े और कुल 51.42 प्रतिशत मतदान हुआ। 30 लाख से अधिक मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। स्थानीय लोगों ने निडरतापूर्वक बुलेट का जवाब बैलेट से दिया। 28 नवम्बर से 22 दिसम्बर के बीच 8 चरणों में संपन्न हुए जिला विकास परिषद् चुनाव शांतिपूर्ण और निष्पक्ष ढंग से संपन्न हुए हैं, क्योंकि शासन ने सुरक्षा की चाक-चौबन्द व्यवस्था की थी। प्रत्येक प्रत्याशी को शासन की ओर से सुरक्षा मुहैय्या करायी गयी थी ताकि वह बेख़ौफ़ होकर लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में भागीदारी कर सके।
अनेक पूर्व मंत्रियों, पूर्व सांसदों, पूर्व विधायकों और उनके परिजनों ने भी भी जिला विकास परिषद् चुनाव लड़ा। जम्मू संभाग में जहाँ औसत मतदान 65 प्रतिशत के आसपास रहा, वहीं कश्मीर संभाग में यह 40 प्रतिशत के आसपास था। उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर में 20 जिले हैं। प्रत्येक जिले को 14 निर्वाचन-क्षेत्रों में बांटा गया था। जिला विकास परिषद् चुनाव मतपत्रों द्वारा संपन्न कराये गए ताकि लोकसभा आदि चुनावों की तरह प्रतिकूल परिणाम आने की स्थिति में विपक्ष ई वी एम से छेड़छाड़ का रोना न रोये। इस लोकतान्त्रिक उत्सव में जनता की भागीदारी और इसका समयबद्ध, शांतिपूर्ण और निष्पक्ष ढंग से संपन्न होना सबसे बड़ा और निर्णायक सन्देश है। ये चुनाव 5 अगस्त, 2019 और 31 अक्टूबर, 2019 को लिए गए ऐतिहासिक निर्णयों के बाद और उनकी पृष्ठभूमि में संपन्न हुए हैं। गुपकार गठजोड़ इन चुनावों को केंद्र सरकार के इन निर्णयों पर ‘रेफेरेंडम’ के रूप में प्रचारित करना चाहता था।
किन्तु जम्मू- कश्मीर की जनता ने चुनावों में उत्साहजनक भागीदारी करके न सिर्फ लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में अपनी आस्था व्यक्त की, बल्कि भारतीय संघ में अपना विश्वास और उसके प्रति अपनी एकजुटता भी प्रदर्शित की है। जिस षड्यंत्र के तहत ‘पीपुल्स एलायंस फॉर गुपकार डिक्लरेशन’ अवसरवादी, अपवित्र और बेमेल गठबन्धन बनाकर चुनाव लड़ रहा था, वह भी न सिर्फ उजागर हो गया बल्कि असफल भी हो गया। ये चुनाव परिणाम और इनमें जनता की व्यापक भागीदारी नैशनल कांफ्रेंस अध्यक्ष फारुख अब्दुल्ला और पी डी पी प्रमुख महबूबा मुफ़्ती द्वारा दिए गए राष्ट्र-विरोधी बयानों का जम्मू-कश्मीर की जनता द्वारा दिया गया मुंहतोड़ जवाब हैं। उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद 370 की बहाली के लिए फारुख अब्दुल्ला द्वारा चीन से सहायता लेने की बात की गयी थी और महबूबा मुफ़्ती ने अनुच्छेद 370 की बहाली तक तिरंगा न उठाने की बात कही थी। उनके ये बयान बात इस गठजोड़ और इसके आकाओं की असलियत का खुलासा करते हैं। निश्चय ही, ये चुनाव परिणाम गुपकार गठजोड़ के उपरोक्त आकाओं और उनकी सरकारों की ‘रोशनी एक्ट भूमि घोटाले’ और जम्मू संभाग के ‘इस्लामीकरण’ जैसी कारस्तानियों का भी प्रतिफल हैं।
जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल श्री मनोज सिन्हा द्वारा 30 अक्टूबर, 2020 को जम्मू-कश्मीर केन्द्रशासित प्रदेश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त श्री के के शर्मा की नियुक्ति के साथ ही जम्मू-कश्मीर में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की बहाली की हलचल तेज हो गयी थी। लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में सभी नागरिकों की विश्वासबहाली और भागीदारी सुनिश्चित करना किसी भी राज्य का सर्वप्रमुख कर्तव्य है और यही उसकी सबसे बड़ी चुनौती भी है। आज केंद्र-शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर इस चुनौती को स्वीकार करने में सफल हुआ है। वहाँ त्रि-स्तरीय पंचायती राज्य व्यवस्था के महत्वपूर्ण और सबसे बड़े सोपान जिला विकास परिषद् के चुनाव पहली बार कराये गए। उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार ने अक्टूबर महीने में पंचायती राज से सम्बंधित 73 वें संविधान संशोधन को जम्मू-कश्मीर में पूरी तरह लागू कर दिया था। राज्य में यह कानून पिछले 28 वर्ष से लंबित था।
पंचायती राज व्यवस्था न सिर्फ लोकतान्त्रिक व्यवस्था की मजबूत नींव है, बल्कि स्वशासन और सुशासन की भी पहचान है। इतिहास में पहली बार पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थी, गोरखा और बाल्मीकि समुदाय के लोगों को अपने लोकतान्त्रिक अधिकार मतदान का अवसर प्राप्त हुआ। अभी तक ये अभागे और उपेक्षित समुदाय राज्य के चुनावों में मतदान के अपने लोकतान्त्रिक अधिकार से सुनियोजित ढंग से वंचित किये गए थे। पिछले दिनों केन्द्रशासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर की नयी अधिवास नीति, मीडिया नीति, भूमि स्वामित्व नीति और भाषा नीति में बदलाव करते हुए शेष भारत से उसकी दूरी और अलगाव को खत्म किया गया है। भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर राजभाषा अधिनियम-2020 लागू करते हुए पाँच भाषाओं- कश्मीरी, डोगरी, हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी को राजभाषा का दर्जा दिया है। बहुप्रयुक्त स्थानीय भाषाओं को राजभाषा का दर्जा मिलने से न सिर्फ इन भारतीय भाषाओं का विकास हो सकेगा, बल्कि शासन-प्रशासन में जनभागीदारी बढ़ेगी। बहुत जल्दी जम्मू-कश्मीर की औद्योगिक नीति भी घोषित होने वाली है। ये चुनाव और इनके परिणाम केंद्र सरकार और उपराज्यपाल शासन की उपरोक्त सकारात्मक और संवेदनशील नीतियों पर भी मोहर लगाते हैं।
उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर की राज्य विधान-सभा में क्षेत्रीय असंतुलन रहा है। इसलिए चुनाव आयोग विधान-सभा चुनाव कराने से पहले वहाँ विधान-सभा क्षेत्रों का परिसीमन करा रहा है। यह परिसीमन कार्य अगले वर्ष तक पूरा होने की सम्भावना है। परिसीमन प्रक्रिया के पूर्ण हो जाने के बाद लोकतान्त्रिक व्यवस्था और विकास-प्रक्रिया में सभी क्षेत्रों और समुदायों का समुचित प्रतिनिधित्व और भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी। शासन-प्रशासन की कश्मीर केन्द्रित नीति भी संतुलित हो सकेगी और अन्य क्षेत्रों के साथ होने वाले भेदभाव और उपेक्षा की भी समाप्ति हो जाएगी। यह विकास और विश्वासबहाली की राष्ट्रीय परियोजना है।
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