मुद्दा

जल-हल-करघा संवाद की आवश्यकता क्यों?

 

आज दुनिया की सभ्यताओं की विकास को देखें तो पता चलता है कि पूँजी और धार्मिक संस्था सामाजिक व्यवस्था को नियंत्रित किये हुए है। इससे राजनीति और आर्थिक संस्था भी अछूता नहीं है। ऐसे में सभ्यता के क्रमिक विकास के आधार को समझना जरूरी हो जाता है। दुनिया भर की सभ्यताओं ने अपने विकास में कामगार, काश्तकार और शिल्पकार का निर्माण किया, लेकिन कुछ सभ्यताओं ने इस सामाजिक, राजनीति और आर्थिक ढाँचा को पूँजी के रूप में बढ़ावा दिया और अर्थव्यवस्था को नष्ट किया। दूसरी ओर कुछ सभ्यताओं में धार्मिक आडम्बर को प्राथमिकता दी और जाति व्यवस्था का निर्माण कर मनुष्य को ऊँच-नीच में बाँधने का काम किया है। परिणामस्वरूप पूँजी के बढ़ते प्रभाव से कल-कारखाना बढ़ा है तो आधुनिक विकास ने पर्यावरणीय समस्या को बढ़ाया, वहीं हवा-मिट्टी और जल प्रदूषित होने से कई समस्याएं सामने आने लगी हैं। कोरोना इस बात का सबसे बड़ा सबूत है। धार्मिक आडम्बर और जाति व्यवस्था ने समाज और सामाजिक जीवन को लगातार प्रभावित किया है। इसे टिकाये और बनाये रखने के लिए मिथकीय संवाद को परोस कर कई संगठन समाज में जातिवाद और धार्मिक उन्माद फैला रहे हैं।

जब हम कहते हैं कि जल ही जीवन है अर्थात जल की शुद्धता बनी रहे। दूसरा भोजन ही जीवन है चाहे वह जल जीव, जल फल, जल से उत्पादित वस्तु हो अथवा अनाज-साग-सब्जी, दूध हो इसकी शुद्धता जीवन के लिए अनिवार्य है। तीसरा जल-थल से उत्पादित वस्तुओं को भी शुद्ध होना चाहिए। यह तभी सम्भव है जब करघा-चरखा और कोल्हू अस्तित्व में रहेगा।भारतीय कृषि में प्रौद्योगिकी का महत्व

भारतीय सभ्यता की पहचान कृषि आधारित रही है। यहाँ कृषि के साथ साथ लधु-कुटीर उद्योगों का विकास हुआ, जिसमें सामजिक ढाँचा को देखा जा सकता है। पश्चिमी सभ्यता ने हमारी संस्कृति और ढाँचा को जितनी क्षति पहुँचायी है, उससे कहीं ज्यादा ब्राह्मणवाद ने हमारे ढाँचे और संरचना को ध्वस्त किया है। करघा हमारे स्थानीय तकनीक का प्रतीक है। बढ़ई-लोहारी-सोनारी, कुम्भकार, कोल्हू और बुनकरों को आधुनिक तकनीक के साथ स्थानीय स्तर पर विस्तार देने की जरूरत है। इसके लिए बाजार की व्यवस्था होना चाहिए। इस दिशा में हमारे द्वारा चुनी हुई सरकार को कार्य करने की आवश्यकता है।

भारतीय विकास का मॉडल में कृषि-पशुपालन और लघु-कुटीर उद्योग से उत्पादित वस्तुओं के लिए हाट-मंडी ही रही है। जहाँ किसान-कारीगर और शिल्पकार अपने वस्तु का स्वयं मूल्य निर्धारण करता रहा है। लेकिन उद्योगीकरण के विस्तार ने हमारी इस संरचना को ध्वस्त किया है। पश्चिमी सभ्यता के विकास मॉडल को देखें तो कॉलोनी के विस्तार व कृषि क्रांति से औद्योगिक क्रांति की ओर बढ़ता है और उद्योग के लिए बाजार फिर सुपर मार्केट में तबदील होता है। फिर सारा चीज यहीं से नियंत्रित होने लगा है।

आज जिस तरह विश्व पर्यावरण संकट से जूझ रहा है। इसमें जल संकट प्रमुख संकट के रूप में चिन्हित होता है। सुपर मार्केट के दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनियां कॉरपरेट खेती के लिए दुनिया भर में नीति बना रही हैं। ऐसे में हल हमारे हाथों से छीन लिया जाएगा। यानी मजदूर या क्लर्क का काम ही 95 प्रतिशत लोगों को करना पड़ेगा। करघा यानी हमारा स्थानीय तकनीक छिनाएगा तो 95 प्रतिशत लोगों को मिलावटी वस्तु का ही उपयोग करना पड़ेगा। इस लिए जल-हल-करघा संवाद की जरूरत है।

Show More

नीरज कुमार

लेखक गांधी विचार विभाग,महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा, महाराष्ट्र में शोधार्थी हैं। सम्पर्क +917004031942, gandhineeraj0@gmail.com
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x