
मोदी है तो मुमकिन है
2019 के चुनावों की तिथि घोषित होने के साथ ही नरेन्द्र मोदी देश के पहले प्रधानमन्त्री बन गये हैं, जो विगत पाँच वर्षों से लगातार चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं। इसके साथ ही वे देश के वैसे पहले प्रधानमन्त्री बन गये हैं, जिन्होंने अपने पाँच साल के कार्यकाल में एक भी प्रेस कांफ्रेन्स ना करने का कीर्तिमान बना डाला है। जबकि मीडिया और सोशल मीडिया उनके वक्तृत्व कला के कसीदे पढ़ना नहीं भूलता है। आखिर एक नेता जिन्होंने विगत पाँच साल में भाषण देने के तमाम कीर्तिमान ध्वस्त कर डाले हैं, उनके द्वारा एक भी प्रेस कान्फ्रेन्स ना किया जाना अखरता भी है और सवाल भी खड़े करता है। क्योंकि उनके कार्यकाल के दौरान कई ऐसे मौके आये जिन्हें उन्हें खुद सामने आकर सवालों का जवाब देना चाहिए था। लेकिन हर दफा, उनकी जगह कोई और निकल आता था। देश की एक बड़ी आबादी जो यह उम्मीद कर रही थी कि कम से कम पुलवामा और राफेल मामले में वे उन्हें सुन पायेंगे, उनके हाथ भी निराशा ही लगी है।
लेकिन गौर करेंगे तो पायेंगे कि अपने पाँच साल के कार्यकाल के दौरान उन्होंने दोतरफा और खुली बातचीत का कोई मौका घटित ही नहीं होने दिया है। उन्होंने लगातार वैसे मंचों से अपनी बात रखनी पसंद की है, जहाँ उलट कर सवाल पूछने की गुंजाइश ना हो, और अगर पूछ भी लिया जाये तो उसमें आलोचना तो कतई ना हो। रेडियो पर की जानेवाली ‘मन की बात’ उनका सबसे सुरक्षित उपक्रम है। उनके प्रायोजित साक्षात्कारों में भी तनिक असहमति का कोई क्षण गलती से साकार नहीं हो सका है। अब तो वे सारे प्रकरण खुल कर सामने आने लगे हैं कि जनप्रतिनिधियों, किसानों, महिलाओं से बात की जाने वाली टेली कान्फ्रेन्सिंग आदि की खबरें कैसे प्रायोजित की गयी हैं या कैसे प्रायोजित की जाती हैं? जिस महिला ने खेती-किसानी से अपनी आमदनी दोगुनी होने की बात पूरे देश के सामने स्वीकारी थी।
बाद में जब उसकी कलई खुली तो सच को सामने लाने वाले पुण्य प्रसून वाजपेयी का क्या हुआ, यह अब सबको पता है। करण थापर का अधूरा साक्षात्कार अब भी यू ट्यूब पर उपलब्ध है, जिसमें नरेन्द्र मोदी को उन्होंने पानी पीने पर मजबूर कर दिया था, उसके बाद वे सवालों के जवाब दिये बगैर उठ गये थे। सत्ता में आने के बाद रवीश कुमार से सीधी बात की भी चुनौती अब तक हवा में टँगी है, जबकि छप्पन इंच का सीना सुधीर चौधरी को उनके चैनल पर जाकर समझा आया है कि आपके चैनल के बाहर जो चाय बेचता है, उसको रोजगार में गिनेंगे या नहीं गिनेंगे। इन प्रसंगों को गिनाने की एक बड़ी वजह इस बात को रेखांकित करना है कि अप्रत्याशित और अनियोजित सवालों वाले माहौल और मौकों से प्रधानमन्त्री मोदी लगातार बचते आये हैं। इस किस्म के नियोजित कार्यक्रम में भी कोई अनायास खड़ा हो जाता है तो ‘पुद्दुचेरी को वनक्कम’ जैसे मंजर सामने आ जाते हैं। ‘पुद्दुचेरी को वनक्कम’ तो इस कदर वायरल हुआ कि सप्ताह भर के भीतर उस टैग लाईन की टीशर्ट बाजार में आ गई।
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काठियावाड़ का जूनियर हाई स्कूल का वह कार्यक्रम भी अब तक लोगों को जेहन से नहीं उतरा है, जिसमें किसी बच्ची ने मोदीजी से तीन का पहाड़ा पूछ दिया था और उसके बाद जो हुआ वह तो अब इतिहास है। तीन का पहाड़ा ना आना बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात यह है कि उसके बाद भी मोदीजी स्कूल-कॉलेज के बच्चों को परीक्षा में तनाव कम करने के टिप्स देते नजर आये। टेलिप्राम्पटर के सहारे मोदीजी की जो छवि गढ़ी गई है, दरअसल वह एक छलावा है। नियोजित सवालों और प्रायोजित माहौल के बाहर इन पाँच सालों में उनका कोई वक्तव्य याद करने लायक नहीं है। अपनी छवि को लेकर सजग रहनेवाले भी वे देश के पहले प्रधानमन्त्री बन गये हैं, अब तो ऐसे पल कैमरे में कैद हैं, जिनमें उनके और कैमरे के बीच सुरक्षा में लगे एसपीजी के जवानों के सामने आ जाने से वे बकायदा नाराजगी जताते दिख रहे हैं। इन पाँच वर्षों में उन्होंने अकूत भाषण दिये और असीमित छवियाँ पैदा की। इन छवियों को सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने उनकी ‘इमेज मेकिंग’ में भरपूर इस्तेमाल किया। अब खबर यह है कि उनके भाषणों का पुस्तकाकार रूप में छापने की तैयारी हो रही है।
उनके भाषणों के किताब के बतौर आने पर जो बुनियादी बात है, वह यह कि क्या अपने भाषणों में वे जैसी ऐतिहासिक भूलें करते आयें हैं, तथ्यों के मामले में जैसी गलतबयानी करते आये हैं, हर प्रांत-प्रदेश से अपने लगाव का जो उद्बोधन करते आये हैं, अपने पद की गरिमा को भूल कर जिस किस्म की टीका-टिप्पणी करते आये हैं, क्या वह सब उसी रूप में प्रकाशित होगा या उसका संपादित और संस्कारित रूप प्रकाशित होगा? इसी के साथ अब एक खबर यह भी है कि अभी उन पर बननेवाली जिस बायोपिक की चर्चा भी ठीक से शुरू नहीं हुई थी, वह 12 अप्रैल 2019 को रीलिज होने जा रही है। जाहिर है लोकसभा चुनावों के आस-पास इस फिल्म के जरिये चर्चा में बने रहने की कवायद है।
आचार संहिता लागू होने के बावजूद इसके बहाने मोदीजी पर बात जारी रहेगी, वैसे ही जैसे 2014 के लोकसभा चुनावों में मोदीजी ने आचार संहिता का मजाक बना कर धर दिया था। 2014 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने किया इतना भर था कि जिन क्षेत्रों में या राज्यों में चुनाव होता था, मतदान के दिन चुनावी क्षेत्र के सीमावर्ती इलाकों में वे किसी चुनावी जनसभा को या किसी रैली को संबोधित कर रहे थे। जिसका दिन भर अजपा-जाप ‘गोदी मीडिया’ करती रहती थी। दरअसल सकारात्मक हो या नकारात्मक मोदीजी को खबरों में बने रहने की कला और उसका वाणिज्य आ गया है। उनके खबर में बने रहने से बहुत-सी जरूरी खबरें पहले पन्ने में जगह नहीं बना पाती हैं। वैसे सोशल मीडिया पर ‘ट्राल्स’ को फॉलो करने के मामले में भी मोदीजी इस देश के पहले प्रधानमन्त्री हो गये हैं। 2014 में भाजपा की जीत के साथ ‘ट्रोल्स’ की एक नई जमात भी अस्तित्व में आ गई है।
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भाजपा और संघ की आलोचना करनेवाले पत्रकारों और बुद्धिजीवियों पर सोशल मीडिया से लेकर निजी जीवन में हमले बढ़े हैं। असहमति के स्वरों को दबाने की इतनी संगठित कोशिश स्वतंत्र भारत में या तो आपातकाल में देखी गई थी या फिर आज देखी जा रही है। इन पाँच सालों में देश का लोकतांत्रिक ताने-बाने को जिस कदर प्रभावित करने की संगठित कोशिशें हुई हैं, उसका सिर्फ कयास भर लोग लगाते आये थे। अब वह मूर्त और साकार हो चुका है। 2019 के लोकसभा चुनावों की तारीख ज्यों-ज्यों नजदीक आती जायेगी और भी नये-नये मंजर दरपेश होते चले जायेंगे।
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