हिन्दी रंगमंच व सिनेमा में समलैंगिकता के मुद्दे – अनिल शर्मा
- अनिल शर्मा
दृश्य-श्रव्य माध्यम होने के कारण रंगमंच और सिनेमा दोनों प्रभावकारिता को सघन बनाने में सक्षम है. इस रूप में ये दोनों माध्यम पिछले वर्षों से अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही तीसरी आबादी और समलैंगिकों की सामाजिक स्वीकार्यता के पक्ष में थोड़ा-बहुत काम करते हुए इनके जीवन-नाटक को दर्शकों के समीप ले जाकर, उसे समझने और महसूस करने की राह बनाते दिख रहे हैं.
हिन्दी रंगमंच में पहला नाम मछिंदर मोरे के लिखे‘जानेमन’ का आता है जिसकी सर्वाधिक प्रस्तुतियाँ वामन केंद्रे के निर्देशन में हुईं.वामन केंद्रे ने अपने कई साक्षात्कारों में यह बात कही है कि इस प्रस्तुति को देखने के बाद दर्शक उनके पास बड़ी संख्या में पहुँचकर बताते हैं कि तृतीयलिंगियों को लेकर उनकी रूढ़िवादी और संकुचित दृष्टि, उदारता में तब्दील हो गयी. लखनऊ की भारतेंदु नाट्य अकादमी में सुशील कुमार सिंह के निर्देशन में यह नाटक ‘जानेमन इधर’ नाम से मंचित हुआ. नाटक तृतीयलिंगियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, मजबूरियों-दुश्वारियों को मार्मिक ढ़ंग से दिखलाते हुए दर्शकों को झकझोरता है. रजनीश कुमार गुप्ता के ‘प्रश्नचिन्ह’ नाटक का उल्लेख भी मिलता है जिसमें तृतीयलिंगी समुदाय की पीड़ा, जीवन-संघर्ष और आजीविका की समस्या का चित्रण है.
प्रभाकर श्रोत्रिय का ‘इला’ नाटक मिथकीय कथा पर केन्द्रित है, जो मुख्य रूप से स्त्री-विमर्श और प्रकृति से छेड़छाड़ की बात के साथ ही, जन्मना स्त्री और गढ़े गए पुरुष की मनःस्थिति की ऊहापोह को दर्शाता है. अलग-अलग कोणों और व्याख्याओं के साथ कल्पनाशील रंगकर्मियों ने इस नाटक के मंचीय प्रयोग किये हैं. हैप्पी रणजीत द्वारा निर्देशित ‘ए स्ट्रेट प्रपोजल’ वर्तमान भारत के राजनीतिक परिदृश्य में समलैंगिकों की समस्याओं और सम्भावनाओं के विषय में बात करते हुए प्रेम,मृत्यु, रहस्य और सत्य जैसे मुद्दों से दो-चार होता है. एक डायरी को आधार बनाते हुए सारे दृश्यों को पेज नंबर और तारीख के साथ दर्शाया गया. हर तारीख एलजीबीटी आन्दोलन से और पेज नंबर भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद से जुड़े थे. नाटक मानवीय स्तर पर हरेक की समानता के मुद्दे को सशक्त ढंग से उठाता दिखा. नंदकिशोर आचार्य ने अपने नाटक ‘जिल्ले सुब्हानी’ में मध्ययुगीन इतिहास में ऐसे समलैंगिक चरित्रों की मौजूदगी दिखायी है जो सत्ता के समीप रहकर उसके निर्धारक-परिवर्तक थे, शाही दरबार और हरम तक में इनका खासा हस्तक्षेप था. शिखंडी के मिथक को केन्द्र में रखकर भी अंग्रेजी-हिन्दी में कई प्रस्तुतियाँ हुई हैं.गोदरेज थिएटर फेस्टिवल में प्रस्तुत अस्मिता थिएटर ग्रुप की एकल-अभिनय प्रस्तुति ‘अहसास’, एक ऐसी युवा लड़की की हालत बयान करती है जो समलैंगिक के प्रति प्रेम और भावनाएँ महसूस करती है और समाज का रवैया उसकी हदें बाँधना चाहता है. मार्च 2019में,केरल में भारत का पहला एलजीबीटी थिएटर ग्रुप आरम्भ हुआ है जिसका नाम ‘क्यू रंग’ है. इसी समुदाय के लोगों द्वारा मिलकर बनाये गये ग्रुप ने अपनी गतिविधियों के माध्यम से समाज की संकीर्ण सोच को बदलने की ठानी है. तीसरी आबादी और समलैंगिकता पर सर्वाधिक काम नुक्कड़ नाटकों का है जो इन मुद्दों पर अपेक्षाकृत अधिक सक्रियता से,खुलकर बात करतेहैं. नाट्य-दलों के साथ कैपस थियेटर के अंतर्गत इस दिशा में ‘आँखें खोल देने वाले’ काफी प्रदर्शन हुए हैं.
मुख्य धारा का व्यावसायिक हिन्दी सिनेमा मसाला फिल्मों के लिए जाना जाता है जिनमें तृतीयलिंगियों और समलैंगिकों को कामुक,‘कॉमिक’ या‘विलेन’ भूमिकाओं में रखने का चलन रहा है.यह चलन 1990 के बाद शुरू हुआ जो आज भी जारी है.हिन्दी सिनेमा में पहली भार महेश भट्ट निर्देशित‘सड़क’ फिल्म में सदाशिव अमरापुरकर ने एक वेश्यालय चलाने वाली ट्रांसजेंडर खलनायिका ‘महारानी’ का रोल किया.इस दिशा में ‘शबनम मौसी’ सही मायनों में ऐसी फिल्म है जो तृतीयलिंगियों की भावनाओं और हक़ की बात करती है. यह एक आत्मकथात्मक फिल्म है जिसमें भारत की पहली तृतीय लिंग विधायक शबनम की वास्तविक जीवन-कथा को केंद्र में रखते हुए हिजड़ों की सामान्य जीवन जीने, ऑफिस में काम करने, बच्चे होने जैसी इच्छाओं को उभारा गया. शबनम का राजनीतिकसंघर्ष और विधायक बन जाने के बाद समाज की भलाई के लिए किये गए कार्यों को भी फिल्म में दर्शाया गया.‘वेलकम टू सज्जनपुर’ में भी एक तृतीयलिंगी को राजनीतिक चुनाव जीतते हुए दिखाया गया है.अमोल पालेकर निर्देशित ‘दायरा’ फिल्म में निर्मल पाण्डेय ने एक ऐसे ट्रांसजेंडर का रोल किया जो एक बलात्कार पीड़िता की मदद करते हुए संकीर्ण पहचानों से ऊपर उठकर इंसानी रिश्तों के प्रेम कोनिभाता है.‘तमन्ना’ मेंपरेश रावल ने एक ऐसे तृतीयलिंगी का रोल किया जो पूर्व फिल्म अभिनेत्री की संतान है, फिल्मों में केश-सज्जा और मेक-अप करके वह अपनी माँ के निराश्रित बुढ़ापे का सहारा बनता है, अपनी माँ के दाह संस्कार से लौटते समय कूड़ेदान में पड़ी एक नवजात लावारिस बच्ची उठा लाता है,अपने समुदाय का विरोध झेलते हुए भी उसे पालता-पोसता और बोर्डिंग स्कूल में शिक्षित करता है,बच्ची के बड़े होने पर उसके द्वारा अपने ‘हिजड़ेपन’ के कारण दुत्कारा भी जाता है, फिर भी वह उसके असली माँ-बाप तकपहुँचाने की कोशिश में, मान-सम्मान वाले राजनेता पिता से दुत्कारे जाने पर, अपनी जान पर खेलकर उसे बचाता है. अंततः वह लड़की असली माता-पिता द्वारा स्वीकारे जाने पर भी पालनकर्ता ‘माँ’ अर्थात ‘हिजड़े’ के पास रहना पसंद करती है. यह फिल्म तृतीयलिंगियों के प्रति संवेदनात्मक रुख दिखाती है कि उनमें सामान्य इंसानों से कहींअधिक संवेदनशीलता और जिम्मेदारी का भाव-बोध होता है.कल्पना लाज़मी निर्देशित ‘दरमियाँ’ फिल्म एक परित्यक्त तृतीय लिंगी की संवेदनशीलता और मानवीयता की कहानी कोमार्मिक ढंग से कहती है.इन फिल्मों के अलावा ‘बुलेटराजा’ में रविकिशन ने उभयलिंगी औरमहेश मंजेरकर ने ‘रज्जो’ फिल्म में वेश्या-कोठे पर ‘बेगम’ के रूप में तृतीयलिंगी चरित्र की भूमिका निभाई.‘क्वीन्स! डेस्टिनी ऑफ़ डांस’ में सीमा बिस्वास ने ट्रांसजेंडर मुक्ता का रोल किया.
1991 में ‘मस्त कलंदर’ फिल्म में पहला समलैंगिक चरित्र ‘पिंकू’ मिलता है जो अनुपम खेर ने निभाया था.किन्तु इस पुरुष चरित्र में स्त्रैणता को हास्यास्पद तरीके से ही दिखाया गया था.‘योर्स इमोशनली’, ‘आई एम’ भी‘गे’ मुद्दे पर रुढ़िवादी विचारों के विरुद्ध खुलकर बात करती दिखी.‘फायर’ और ‘गर्लफ्रेंड’ फिल्म लेस्बियन-मुद्दे पर केन्द्रित फिल्में हैं.‘अलीगढ़’, ‘कपूर एन्ड संस’ समलैंगिकता के मुद्दे के फेवर में दिखीं.तीसरी आबादी और समलैंगिकों को बेहतर ढंग से दिखाने वाली फिल्मों के मुकाबले बहुत बड़ी संख्या उन फिल्मों की है जो ऐसे चरित्रों को फूहड़ता के साथ पेश करते हुए सस्ते मनोरंजन का माध्यम मानती हैं.‘क्या कूल हैं हम’, ‘पार्टनर’, ‘स्टाइल’, ‘मस्ती’ जैसी तमाम फिल्मों में इन चरित्रों को निहायत ही असभ्य ढंग से चित्रित किया गया है जो‘सामान्य इंसान’ की हदों में तो बिलकुल भी नहीं आता.
सारी आधुनिकता के बावजूद हमारे समाज में तृतीय लिंग और समलैंगिकता के विषय पर घोर रुढिवादिता है जो कानूनी आधार मिल जाने पर भी टूटी नहीं है.शिक्षा के साथ ही दृश्य-श्रव्य माध्यम इस दिशा में संतुलित-स्वस्थ दृष्टि बनाने में सहायक हो सकते हैं.हिंदी रंगमंच और फिल्मों ने यह काम बहुत देर से शुरू किया और जो काम हो भी रहा है वह असंतुष्टिजनक औरअपर्याप्त है.अधिक दर्शक संख्या वाले मुख्य धारा के व्यावसायिक सिनेमा ने इन मुद्दों पर कम ही बात की है औरगंभीर दृष्टिकोण वाले वैकल्पिक सिनेमा को वे दर्शक नहीं मिलते जो समाज के आम तबके के हों. रुढ़िवादी सामाजिक सोच के चलते इस प्रकार की फिल्मों से विवाद भी बड़ी आसानी से जुड़ जाते हैं.यह विडंबना ही है कि ‘पिंक मिरर’ जैसी कुछेक ऐसी फ़िल्में भी बनी हैं जो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में तो प्रदर्शित हुई किन्तु विषय और फिल्मांकन की ‘बोल्डनेस’ के कारण उनका सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं हुआ. हालाँकि इस बात से यहाँ इंकार नहीं किया जा रहा किधीरे-धीरेतथाकथित सभ्य समाज के हाशिये से बाहर रखे गए तृतीय लिंग और समलैंगिक मुद्दों का रंगमंच और फिल्मों की दुनिया में ‘स्पेस’ बढ़रहा है. गति बहुत धीमी है.वस्तुतःइन मुद्दों को दबा-छिपाकर रखने से काम नहीं चलेगा, बात खुलकर करनी पड़ेगी, इतनी सावधानी से कि कहीं वह अश्लीलता या छिछोरेपन के दायरे में न आ जाय.
इस संक्षिप्त विश्लेषण के बाद हिन्दी के रंगमंच और सिनेमा से यही उम्मीद है कि वे अपने-अपने कला-माध्यमों की बेहतर तकनीक और युक्तियों के सहारे उस दर्शकीय मनोभूमि का निर्माण कर सकेंगे जो कॉमिकपने और तमाम तरह की उपदेशात्मकता से परेविशुद्ध रूप से ‘मानवीय’ हो, मानव को मानव के रूप और स्तर पर ही देखने की दृष्टि को पुख्ता करती हो और जो अप्राकृतिक-सी लगने वाली शारीरिक भंगिमा या पहनावे के बाहरी आवरण को चीरते हुए ‘भीतर’ की बात देख-सुन और गुन सके.
लेखक जाकिर हुसैन कॉलेज, दिल्ली में हिन्दी के प्राध्यापक हैं|
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