अंतरराष्ट्रीयमुद्दा

इसरायली विश्वविद्यालयों के बहिष्कार का प्रश्न

 

करीब तीन वर्ष पहले ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों के 300 से अधिक प्रोफेसरों और बौद्धिकों ने लन्दन के समाचारपत्र ‘द गार्डियन’ में पूरे पृष्ठ का विज्ञापन देकर इसरायल के बहिष्कार करने  की घोषणा की थी । यह विज्ञापन ‘ ए कमिटमेंट बाई यू.के. स्कालर्स टू द राइट्स आफ पेलेस्टीनियन्स’ की ओर से दिया गया था। इसके विपरीत ब्रिटेन के ही एक दूसरे संगठन ‘कल्चर फार कोएक्जिस्टेन्स’ ने बहिष्कार का विरोध करते हुए कहा है कि इसरायली सरकार की कुछ नीतियों से हम भले ही सहमत न हों, हम सभी शांतिपूर्ण सहअस्तित्व में विश्वास रखते हैं। इस विरोध का समर्थन करने वालों में हेरी पाटर सीरीज की चर्चित लेखिका जे.के.रोलिंग और बुकर पुरस्कृत उपन्यासकार हिलेरी मेंटल जैसे लोग भी हैं। 

बुकर पुरस्कृत कनाडियन लेखिका मारग्रेट एटवुड और भारतीय अंग्रेजी लेखक अमिताव घोष को संयुक्त रूप से इसरायल का प्रतिष्ठित डेन डेविड पुरस्कार दिये जाने और उनके द्वारा यह पुरस्कार लेना स्वीकृत कर लिए जाने पर उनके विरुद्ध जिस प्रकार की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रया हुई, उससे एक बार फिर बौद्धिक जगत में यह प्रश्न उठा कि इसरायल से हमें कैसा व कितना सम्बन्ध रखना चाहिए और लेखकों को इसरायल द्वारा दिए जाने वाले सम्मान/पुरस्कार लेना चाहिए या नहीं। 

इसी प्रकार ‘बायकाट, डायवेस्टमेंट एँड सेंक्शन अगेंस्ट इसरायल’ नामक अंतर्राष्ट्रीय अभियान का उद्देश्य सभी देशों की सरकारों को इस बात के लिए प्रेरित करना है कि वे इसरायल का बहिष्कार उसी प्रकार करें जिस प्रकार पहले दक्षिण अफ्रीका की तत्कालीन गोरी सरकार का किया गया था और राष्ट्र संघ के निर्देश पर बहुत से देशों ने दक्षिण अफ्रीका से आयात-निर्यात सम्बन्ध पूरी तरह तोड़ लिया था। इसके परिणामस्वरूप दक्षिण अफ्रीका की अर्थ-व्यवस्था इस प्रकार लड़खड़ाई कि वहाँ की गोरी सरकार को घुटने टेकने पड़े और उसे अपनी रंगभेद की नीति बदलने के लिए बाध्य होना पडा।

फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तत्कालीन दक्षिण अफ्रीका और इसरायल की वर्त्तमान सरकार को एक तराजू पर नहीं तौला जा सकता। दक्षिण अफ्रीका की सरकार स्पष्टतः मानवता विरोधी थी। अश्वेत लोगों के विरुद्ध बनाए उसके कानून सरकार के लिए कलंक थे। इसरायल के सम्बन्ध में ऐसा कुछ नहीं कहा जा सकता।Anthropology group rejects resolution to boycott Israeli academic  institutions

मई 2007 में ब्रिटेन के यूनिवर्सिटी एंड कालेज यूनियन के वार्षिक सम्मलेन में प्रस्ताव रखा गया था कि लगभग 40 वर्ष पूर्व हुए ‘छह दिवसीय युद्ध’ के परिणामस्वरूप इसरायल के अधिकार में फिलिस्तीन की जो भूमि आ गयी थी और जिस पर वह अभी भी कब्जा किये हुए है तथा वहाँ से हटने को तैयार नहीं है, इसके विरोध में वे इसरायली विश्वविद्यालयों का बहिष्कार करेंगे यानी उनसे किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखेंगे।

प्रस्ताव पारित होने के कुछ ही घंटों के अन्दर यह विषय ब्रिटेन और इसरायल के राष्ट्रीय समाचारपत्रों की हेडलाइन का विषय था और दो दिन के अन्दर यूरोप और अमेरिका के समाचारपत्रों में भी मुख्य समाचार बन गया। कुछ लोगों ने इसे ब्रिटिश एकेडेमिया पर काला धब्बा माना तो तुर्की के ‘डेली न्यूज’ ने भी ‘बहिष्कार की धमकियों पर इसरायली कदम’ शीर्षक देकर इसरायल में हो रही तीव्र प्रतिक्रया की सूचना दी। 

उसी दिन ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर ने इसरायली प्रधान मंत्री को फोन कर आश्वस्त किया कि इस प्रस्ताव को ब्रिटेन की आम जनता की राय न मानी जाए। इसरायल में संसद सदस्यों ने एक बिल तैयार किया जिसके आधार पर इसरायल में ब्रिटेन से आयात होने वाली सभी वस्तुओं पर ‘मेड इन ब्रिटेन’ का लेबिल लगा होना आवश्यक हो जाता यानी सरकार नहीं वरन स्वयं इसरायली जनता इस ‘बहिष्कार का बहिष्कार’ करती।    

उसके बाद अन्य जगहों की अपेक्षा अमेरिका में ही बहिष्कार विरोधियों का वर्चस्व रहा, ऐसा कहा जा सकता है जहाँ दो हजार से अधिक बौद्धिकों ने, जिनमें कई नोबेल पुरस्कृत लोग भी थे, ऐसे किसी समारोह या मंच में उपस्थित न होने  या किसी भी रूप में भाग न लेने की प्रतिज्ञा की जिसमें इसरायली लोगों के भाग लेने पर प्रतिबन्ध हो। फिलाडेल्फिया की विधान परिषद् में एक डेमोक्रेट सदस्य ने एक प्रस्ताव रखा जिसके आधार पर अमेरिका के यूनिवर्सिटी और कालेज यूनियनों से इस प्रस्ताव का विरोध करने की मांग की गयी। UCT: Debate On Israel Boycott Rages On - The Daily Vox

हारवर्ड विश्वविद्यालय के कानून के प्रोफ़ेसर तथा अमेरिका के एक प्रसिद्द वकील एलान दर्शूवित्ज ने अमेरिका के 100 से अधिक प्रसिद्द वकीलों की एक टीम बनाई जो इस बात के लिए कटिबद्ध थे कि इस्रायली विश्वविद्यालयों के विरुद्ध की जाने वाली किसी भी प्रकार की गतिविधि में भाग लेने वालों को चैन नहीं लेने देंगे तथा उन्हें दिवालिया बना कर ही छोड़ेंगे। उनका मानना है कि  ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों का यूनियन भले ही केवल इसरायली विश्वविद्यालयों का बहिष्कार करें पर स्वयं उनका बहिष्कार दुनिया भर के अन्य विश्वविद्यालय करेंगे। हमारा संपर्क दुनिया भर के दो-चार सौ नहीं वरन हजारों ऐसे प्रोफेसरों से है जो ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों के ऐसे किसी भी कार्यक्रम में सहयोग नहीं करेंगे जिसमें इसरायलियों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध हो। इस प्रकार उनका ऐसा कोई कदम उठाना उनके स्वयं के विरुद्ध प्रतिविस्फोट साबित होगा यानी वे स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे। 

इस सम्बन्ध में यह भी जानना आवश्यक है कि 2005 में भी ब्रिटेन के असोसियेशन आफ यूनीवर्सिटी टीचर्स ने इसी प्रकार का एक प्रस्ताव रखा था जिसमें इसरायली विश्वविद्यालयों के बहिष्कार की मांग की गयी थी। यहाँ यह भी बतला देना ठीक होगा कि यूनियन के बहिष्कार-विरोधी बहुत-से सदस्यों का मानना था कि इस प्रकार के किसी प्रस्ताव की ब्रिटेन के बाहर व्यापक प्रतिक्रिया होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसके पहले ब्रिटेन के पत्रकारों और डाक्टरों ने भी इसरायल के बहिष्कार की बातें की हैं और इस प्रकार इसरायल को हर दृष्टि से थोक के रूप में बुरा बतलाने की कोशिश की जाती रही है। यह एक प्रकार से मध्य युग में क्रिस्चियन चर्च द्वारा यहूदी विरोधी अभियान की याद दिलाता है। 

मेरा ख्याल था कि पिछली सदी के चौथे और पांचवें दशक में पैदा हुए यहूदी लोग अब उन यातनाओं के शिकार नहीं होंगे जिनसे उनके माता-पिता ही नहीं, दादा और परदादा भी गुजरे थे, पर अब जान पड़ता है कि मेरा ऐसा सोचना गलत था। इस प्रकार के किसी भी प्रस्ताव में नैतिक दृष्टि से  तो खामियाँ हैं ही, यह अकादमिक स्वतन्त्रता पर भी आघात है। मैं यह नहीं कहता कि इस प्रकार के किसी प्रस्ताव की आलोचना नहीं की जानी चाहिए या इसरायल की सरकार की किसी नीति से आप सहमत नहीं हैं या कोई गलत कार्य करता है तो उसका विरोध नहीं किया जाना चाहिए, पर इस प्रकार के  किसी प्रस्ताव को इसरायल विरोधी नहीं बल्कि यहूदी विरोधी ही माना जाना चाहिए। हमें इसरायली सरकार और इसरायली विश्वविद्यालयों को एक साथ नहीं रखना चाहिए क्योंकि इसरायली विश्वद्यालयों में भी कुछ ही नहीं बहुत से लोग हैं जो वहाँ की सरकार की नीतियों के समर्थक नहीं हैं। Staff in 74 UK universities start 2-week strike over pensions - Xinhua |  English.news.cn  

ब्रिटेन के यूनिवर्सिटी कालेज यूनियन के इस प्रस्ताव पर इसरायल में व्यापक प्रतिक्रया होना स्वाभाविक था। वहाँ के कुछ यूनियनों ने ब्रिटेन के सभी प्रकार के उत्पादों का बहिष्कार करने की घोषणा कर दी, तो कुछ मजदूर संघों ने वहाँ आयात की जाने वाले ब्रिटिश माल को जहाज़ों से नहीं उतारने की धमकी दे दी। जैसा कि मैंने पहले कहा है इसरायल का सीधा-सीधा बहिष्कार किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। उचित यह होगा कि जो संस्थाएँ, जो कम्पनियाँ, जो औद्योगिक प्रतिष्ठान आदि इसरायल की सरकार की गलत नीतियों के समर्थक हैं उनका और उनके उत्पादों का बहिष्कार किया जाए न कि इसरायल का पूर्ण रूप से। इसरायल के सामूहिक बहिष्कार से वहाँ के लोगों को दक्षिणपंथी जनोत्तेजक भड़काऊ क्षेत्रों की ओर जाने का अवसर मिलेगा और इस कारण हर किसी को दण्डित होना पडेगा। हमें विचार इस प्रश्न पर करना चाहिए कि इसरायल में अन्दर से ही परिवर्तन लाया जा सकता है या नहीं।

मुझे विश्वास है कि यह संभव है। मैं नहीं मानता कि किसी भी प्रकार के बाहरी दबाव से ऐसा होगा। बाहरी दबाव से तो इसरायल अपनी नीतियों से और भी चिपकेगा। मैं मानता हूँ कि ब्रिटेन के विश्वद्यालयों के यूनियन ने इस प्रश्न को सही समय पर उठाया था, पर उसके इस प्रस्ताव के पक्ष में सकारात्मक कुछ भी नहीं था। इस प्रकार के किसी प्रस्ताव से न तो फिलिस्तीनियों की स्थिति में कुछ सुधार होने वाला है और न ही इसरायल की सरकार की नीतियों में कुछ परिवर्तन होने वाला है। वस्तुतः ऐसी किसी भी प्रस्ताव से उदारवादी इसरायली भी इसकी चपेट में आ जाते हैं  और उन कट्टरपंथी राजनीतिज्ञों को बल मिलता है जो किसी प्रकार की संधि प्रक्रिया की अपेक्षा एकपक्षीय कार्यवाही में विशवास करते हैं।

इसके पहले ब्रिटेन के पत्रकार संघ ने भी इसरायल का प्रत्येक दृष्टि से बहिष्कार करने का प्रस्ताव पास किया था। वह एक प्रकार से असंगत कदम था, क्योंकि इससे स्वयं उनका ही नुकसान होता। वैसी स्थिति में इसरायल से किसी भी प्रकार की रिपोर्टिंग संभव नहीं हो पाती।

उससे और तो कुछ हुआ नहीं, पर इतना अवश्य हुआ कि  ब्रिटिश प्रेस के सम्बन्ध में दुनिया भर में यह प्रचारित हो गया कि वह मध्य पूर्व के सम्बन्ध में गुरिल्लापंथी दृष्टि रखता है। इसी प्रकार यह प्रस्ताव ब्रिटिश विश्वविद्यालयों द्वारा यह बतलाने की कोशिश समझी गयी कि वे इसरायली सरकार की नीतियों और सामान्य इसरायली व्यक्ति के विचारों में कोई भेद नहीं करते। वे इसरायली अकादमिकों को केवल इस कारण ‘दण्डित’ करना चाहते थे कि वे ‘इसरायली’ हैं।For justice: SA Jews support the academic boycott of Israeli universities -  The Mail & Guardian

मेरे विचार से इसरायली मीडिया और विश्वविद्यालय मध्य पूर्व में सर्वाधिक स्वतन्त्र कहे जा सकते हैं यानी उन पर वहाँ की सरकारों का किसी प्रकार का दबाव या प्रतिबन्ध नहीं है। यदि ब्रिटिश विश्वद्यालय भाईचारा और एकजुटता ही चाहते हैं तो उन्हें सऊदी अरब, ईरान, मिस्र, तुर्की और सीरिया की ओर देखना चाहिए जहाँ पत्रकारों और बौद्धिकों को जेलों में बंद ही नहीं किया जाता वरन तरह-तरह की यातनाएँ भी दी जाती हैं केवल इस कारण कि सरकारी नीतियों से उनका मतभेद  है और वे उनसे अपनी असहमति भी प्रदर्शित करते हैं।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसरायली विश्वविद्यालयों के बहिष्कार की बात इसरायली अकादमिकों के प्रति पक्षपात की सूचक तो है ही , अकादमिक विश्वव्यापकता के सिद्धांत को भी कमजोर करती है जो कि दुनिया भर के वैज्ञानिकों और बौद्धिकों के लिए महत्वपूर्ण है। इस सिद्धांत के सम्बन्ध में सर्वविदित कथन इंटरनेशनल काउन्सिल आफ साइंस की नियमावली में है। इसके अनुसार धर्म, जाति, वर्ण, नागरिकता, भाषा, राजनीतिक विचार, लिंग और उम्र आदि किसी भी आधार पर वैज्ञानिकों में भेद नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वैज्ञानिकों में उनके अपने क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। नागरिकता या आवासीय देश की बात भी इसमें शामिल की गयी है। ऐसी स्थिति में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं समझी जानी चाहिए कि 2002 में जब इसरायली वैज्ञानिकों के बहिष्कार की बात उठी थी तो काउन्सिल ने बहुत ही कड़े शब्दों में उसकी भर्त्सना की थी।

विज्ञान की प्रगति इस बात पर भी निर्भर है कि सभी वैज्ञानिक बिना किसी भेद भाव के आपस में विचार-विमर्श कर सकें। अतः किसी एक देश के वैज्ञानिकों का सम्पूर्ण रूप से बहिष्कार अन्य देशों के वैज्ञानिकों के लिए आत्मघाती ही कहा जा सकता है। किसी को इस बात के लिए दण्डित करना जिसके लिए वह जिम्मेदार नहीं है, पूर्णतः असंगत है। यह तो ठीक वही बात हुई जिस प्रकार कोई अपहरणकर्ता बन्धक बनाए गये सभी लोगों के साथ व्यवहार करता है।FDD | War by Other Means

विश्वव्यापकता का सिद्धांत केवल विज्ञान पर ही लागू नहीं होता। हमारी पीढ़ी और इसके पहले की पीढी ने अपराधियों और युद्धबंदियों के साथ व्यवहार में उत्तरोत्तर प्रगति, समाज में सम्पत्ति के आधार पर असमानता के प्रति विरोध और लिंग, जाति, वर्ण, आदि के आधार पर भेद भाव का विरोध आदि के क्षेत्रों में अब तक जो कुछ हासिल किया है वह सभी मानविकी और समाज विज्ञान के विद्वानों के कार्यों और लेखन में देखने को मिलता है। विज्ञान के समान ही इन क्षेत्रों के विद्वान भी आपसी विचार-विनिमय और सहभागिता के आधार पर ही अपने-अपने क्षेत्रों में आगे बढ़ते हैं।

जो लोग इसरायली विश्वविद्यालयों के बहिष्कार की बात करते हैं, उन्हें यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि इस प्रकार के बहिष्कार की बात केवल इसरायल के सम्बन्ध में ही क्यों की जाती है। क्या चीन पर भी यही बात लागू नहीं होती जिसने  50 वर्ष से अधिक समय से तिब्बती भूमि पर कब्जा कर रखा है। इस प्रकार के प्रस्ताव से स्पष्ट ही यह ध्वनि निकलती है कि फिलिस्तीन पर इसरायली आधिपत्य में इसरायली अकादमिकों का भी हाथ है या उनके समर्थन से ही ऐसा हो सका है जबकि वस्तुस्थिति यह है कि स्वयं इसरायली अकादमिकों ने फिलिस्तीनी भूमि पर इसरायली आधिपत्य के विरोधी सभी प्रमुख संगठनों के साथ हाथ में हाथ मिलाया है। 

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महेन्द्र राजा जैन

लेखक लायब्रेरी असोसियेशन, लन्दन के फेलो हैं। सम्पर्क- mrjain150@gmail.com
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