कर्नाटक के हालिया चुनावी अभियान में भारतीय सेना का जिसप्रकार क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के लिए इस्तेमाल किया गया है और जिस प्रकार केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के शीर्षस्थ व्यक्ति द्वारा भारतीय सैन्य इतिहास के साथ तोड़-मरोड़ की गई है, वह एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में हमारे भविष्य को लेकर खतरे की घंटी है। हमारे लोकतंत्र पर हुये बड़े से बड़े सांप्रदायिक और जातिवादी हमलों के बाद भी भारतीय सेना एक तंत्र के रूप में कुल मिलाकर सेकुलर रही है, वह राजनीति के कीचड़ से सदैव निर्लिप्त रही है। लेकिन स्वयं को राष्ट्रवादी कहने वाले एक दल द्वारा, उस दल से आने वाले वर्तमान प्रधानमंत्री द्वारा गलत बयानी करके भारतीय सुरक्षा बलों को राजनीति के कीचड़ में धकेलना निश्चय ही निंदनीय है। इसी प्रकार यह तथ्य भी समान रूप से चिंतनीय है कि हमारे एक सर्वोच्च सैन्य अधिकारी द्वारा हाल के दौर में जिसप्रकार खुले राजनीतिक बयान दिये गये हैं, उनके कारण धर्म आदि को लेकर हमारी सेनाओं में ध्रुवीकरण की आशंकाओं के बादल मंडराने लगे हैं। यह सोच कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि जिस दिन भारतीय सुरक्षा बल तिरंगे की जगह किसी धर्म विशेष के प्रति संकीर्ण सांप्रदायिकता से संचालित होने लगेंगे तो उस दिन क्या होगा …
2014 के आम चुनाव से ही भाजपा प्रधानमंत्री पद के तत्कालीन उम्मीदवार और वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में हर चुनाव में व्यापक स्तर पर संकीर्ण विभेदनकारी चुनावी अभियान चलाती आ रही है। अपने राजनीतिक दल भाजपा के चुनावी फायदे के लिए श्री नरेंद्र मोदी तमाम नैतिकता को ताक पर रखकर पूर्व प्रधानमंत्रियों विशेषत: हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री के ऊपर वैयक्तिक हमले करते रहे हैं। इस चुनाव में भी उन्होंने तथ्यों से परे हटकर उन्हें भगतसिंह और दूसरे क्रांतिकारियों के खिलाफ खड़ा दिखाने की कोशिश की। लेकिन इस बार तो कर्नाटक के चुनावी समर में बुरी तरह घिर चुके अपने दल की चुनावी नैया पार लगाने के लिए वे भारतीय सैन्य बलों के इतिहास तक से छेड़छाड़ करने से नहीं चूके। भारतीय सैन्य इतिहास के अराजनीतिक राष्ट्रीय चरित्र को दाव पर लगाते हुए भ्रामक तथ्यों के सहारे उन्होंने भारतीय सेना के दो प्रसिद्ध जनरलों के अपमान का आरोप भी कांग्रेस पर लगा दिया। राष्ट्रवाद की कूची से कांग्रेस के चेहरे पर चुनावी मैदान में कालिख पोतने की इस हड़बड़ी में वे भूल गये कि उन्होंने भारतीय सेना के धवल इतिहास पर ही दाग लगाने का अपराध कर डाला है। भारतीय सेना के ये दोनों प्रसिद्ध व्यक्ति – फील्ड मार्शल के.एम. करियप्पा (कोडंडेरा मडप्पा करिअप्पा) और जनरल के.एस. थिमय्या (कोदंडेरा सुबय्या थिमय्या) कर्नाटक के स्थानीय कूर्गी समुदाय (वर्तमान कोडावा) से आते हैं और इन दोनों के बहाने कन्नड़ अस्मिता का कार्ड खेलने की कोशिश उन्होंने की थी ताकि कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार सिद्धारमैया के कन्नड़ कार्ड की काट निकाली जा सके। किंतु भारतीय सेना के इन लब्धप्रतिष्ठित अधिकारियों को कर्नाटक का सपूत कहकर मात्र कर्नाटक तक सीमित कर देना और और इनके कथित अपमान के लिए तत्कालीन कांग्रेस सरकार को दोषी ठहराने के जोश में प्रधानमंत्री यह भूल गये कि सेना के राजनीतिकरण के दूरगामी दुष्परिणाम लोकतंत्र के भविष्य के लिए बड़े अशुभ साबित हो सकते हैं।
इस संदर्भ में निकट अतीत के ठोस तथ्यों को उलटते-पलटते हुए अपने दल के चुनावी अभियान के दौरान सार्वजनिक मंच से भ्रामक बातों को दुष्प्रचारित करना स्वयं प्रधानमंत्री पद की गरिमा और प्रतिष्ठा को बट्टा लगाने वाला है। गत 3 मई कर्नाटक के कलबुर्गी में एक चुनावी सभा में प्रधानमंत्री ने कहा कि हमने जनरल थिमय्या के नेतृत्व में पाकिस्तान के खिलाफ 1948 की लड़ाई में जीत हासिल की थी किंतु जिस आदमी ने कश्मीर को बचाया, उसी का तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू और तत्कालीन रक्षामंत्री वी.के. कृष्ण मेनन ने अपमान किया था। और इसी कारण जनरल थिमय्या को अपने पद की गरिमा बचाये रखने के लिए त्यागपत्र देना पड़ा था। प्रधानमंत्री अपने उस भाषण में सिर्फ यहीं तक नहीं रुके। 1962 के भारत-चीन युद्ध को लेकर फील्ड मार्शल करियप्पा का उल्लेख करते हुए उन्होंने मतदाताओं से एक प्रश्न के बहाने कांग्रेस पर करियप्पा का तिरस्कार करने का भी आरोप जड़ दिया। उन्होंने पूछा कि फील्ड मार्शल करियप्पा के साथ भी कांग्रेस सरकार ने क्या किया? थिमय्या और करियप्पा जैसी प्रसिद्ध सैन्य शख्सियतों के साथ कथित रूप से समुचित व्यवहार न करने के तत्कालीन कांग्रेस सरकारों पर निशाना साधते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह खुलासा भी करना चाहिए था कि कांग्रेस की सरकारों ने किस प्रकार और कब इन शख्सियतों के साथ दुर्व्यवहार किया। वास्तव में प्रधानमंत्री ने चुनावी फायदे के लिए कांग्रेस को बदनाम करते हुए उसकी सरकारों पर लब्ध प्रतिष्ठित सैन्य अधिकारियों का तिरस्कार करने और राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ समझौता करने के आरोप तो ठोक दिये किंतु ये आरोप हवा-हवाई हैं क्योंकि ऐतिहासिक सच्चाइयों से मेल नहीं खाते।
तथ्य कहते हैं कि 1947-48 के कश्मीर युद्ध के समय भारतीय सेना का नेतृत्व थिमय्या के पास नहीं था अपितु उस समय भारतीय सेना के प्रमुख एक अंग्रेज अफसर जनरल सर फ्रांसिस बुचर थे। जनरल थिमय्या भी उस दौरान दो सितारा जनरल ही थे जो लेफ्टिनेंट जनरल करियप्पा की कमान में सेवारत थे और जनरल करियप्पा उस समय एक सैन्य कमांडर हुआ करते थे। कश्मीर में घुसपैठ करने वाले कबाइलियों के खिलाफ थिमय्या और करियप्पा ने जो सफल अभियान चलाया, उसके लिए सारे मुल्क को इन पर सदैव नाज़ रहेगा लेकिन प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के इतिहास बोध का देश क्या करे जिन्हें इतना भी पता नहीं कि उस समय देश के रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन नहीं अपितु सरदार बलदेव सिंह थे। प्रधानमंत्री का यह दावा भी खोखला है कि थिमय्या ने उसी समय त्यागपत्र दे दिया था। भारत-चीन युद्ध के संदर्भ में करियप्पा के जिक्र का भी कुछ तुक नहीं बैठता क्योंकि भारतीय सैन्य दस्तावेज साफ बताते हैं कि करियप्पा 1953 में ही सेवानिवृत्त हो चुके थे और 1962 के भारत-चीन युद्ध का वे कभी हिस्सा रहे ही नहीं थे।
वैसे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कृष्ण मेनन ने भारतीय सेना के सर्वोच्च पद का राजनीतिकरण करने की कुचेष्टा की थी और यह भी सत्य है कि संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नेहरू ने अपनी सरकार की चीन विषयक नीति से असहमति जताने पर थिमय्या को संसद में झिड़क दिया था। लेकिन वे संदर्भ अलग हैं और एक चुनावी सभा में भारतीय सेना के कंधे पर बंदूक रखकर झूठे तथ्यों के आधार पर विपक्षी राजनीतिक दल के चरित्र हनन वाले इस मामले का कैसे भी बचाव नहीं किया जा सकता। पिछले 70 सालों से चुनावों में राजनीतिक नफे-नुकसान के मद्देनज़र होने वाले धर्म और जाति के दुरुपयोग के दंशों से ही हम आज तक नहीं उभर पाये हैं। अब भारतीय सैन्य इतिहास की राजनीतिक व्याख्या-कुव्याख्या और तथ्यात्मक त्रुटियों के बल पर मतदाताओं को अपने पीछे लामबंद करने की खतरनाक राजनीति अलग से शुरु हो गई है। राष्ट्रवाद के नाम पर छद्म राष्ट्रवादियों की इस राष्ट्र विरोधी राजनीति के खिलाफ नागरिक समाज को समय की नज़ाकतता को देखते हुए त्वरित कदम उठाना होगा ताकि सेना के अराजनीतिक चरित्र की रक्षा समय रहते की जा सके, अन्यथा राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर अपने राजनीतिक विरोधियों के चेहरे पर कालिख पोतने वाला सेना का यह राजनीतिक दुरुपयोग आगामी दिनों में बेहद विस्फोटक स्थितियाँ पैदा कर सकता है। राष्ट्रीय सुरक्षा संदर्भ में पूर्ववर्ती सरकारों से हुई गलतियों और नीतिगत त्रुटियों का लेखाजोखा करने के लिए चुनावी दंगल ठीक जगह नहीं है। अतीत की गलतियों और त्रुटियों पर व्यापक विचार-विमर्श के लिए सैन्य विशेषज्ञ हैं, संसद है। दूसरों के दामन में दाग लगा दिखाकर वैसे भी आप अपना दामन पाक साबित नहीं कर सकते। लगता है कि सेना के राजनीतिकरण के चलते अपने पड़ोसी देश में जिस तरह बारंबार लोकतंत्र का गला घोटा जाता रहा है, उससे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने कोई सबक नहीं सीखा ! अथवा कहीं ऐसा तो नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुशासन में राजनीति का क ख ग सीखने वाले श्री नरेंद्र मोदी को लोकतंत्र की तुलना में सैन्य तानाशाही ज्यादा रास आती हो.
हमारे लोकतंत्र ने सेना के अराजनीतिकरण की जो नींव डाली थी और जिस प्रकार कभी भी सेना को बैरकों से बाहर निकलकर राजनीतिक सत्ता सूत्र अपने हाथों में लेने का अवसर मुहैया नहीं कराया, उस लोकतांत्रिक आदर्श की पालना पहले सेना प्रमुख जनरल करियप्पा से लेकर अब तक कुल मिलाकर भारतीय सैन्य बलों द्वारा भी की जाती रही है। इस शक्ति संतुलन को बनाये रखना सेना और लोकतंत्र, दोनों के हित में है। भारतीय सेनाओं की वफादारी सदैव से संविधान के प्रति रही है और हमारी तीनों सेनायें लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई नागरिक सरकार की सर्वोच्चता का लिहाज़ करती आई हैं। यह अलग बात है कि हमारी सरकारों ने ही एक-दो मौकों पर सेना के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार किया है किंतु तब भी सेना ने कभी अनुशासनहीनता न दिखाई। व्यवस्थापिका ने भी कभी नीतिगत स्तर पर सेना के राजनीतिकरण को बढ़ावा नहीं दिया और न ही शीर्ष सैन्य नेतृत्व ने अपनी क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं के लिए कभी सैन्य सेवा में रहते हुए राजनीतिक दलों की भाषा में बोलने की गलती की। पिछले सत्तर सालों से भारतीय सेनायें अपने इस अराजनरीतिक चरित्र को बचाती आ रही हैं और यही कारण है कि सांप्रदायिक हिंसा के अनियंत्रित हो जाने की सूरत में आज भी चाहे बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक, दोनों सेना पर भरोसा रखते हैं।
लेकिन पिछले चार सालों से केंद्र की एनडीए सरकार के शासन में व्यवस्थापिका और सेना, दोनों ने कई-कई मर्तबा अपनी मर्यादाएँ तोड़ी हैं। उदाहरण हेतु सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत कुछ दिन पहले जम्मू-कश्मीर के स्कूली पाठ्यक्रम को लेकर दिये गये अपने बिन मांगे सुझावों को लेकर विवाद में रहे थे। अब एक बार फिर कश्मीर में आजादी की नारा लगाने वाले युवाओं को ताकत के बल पर कुचल देने की धमकी देकर उन्होंने फिर अपनी लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया है। इससे पूर्व उनके द्वारा असम के दो राजनीतिक दलों की तुलना किये जाने से भी वहाँ की राजनीति गर्मा गई थी। ध्यातव्य है कि ये वही जनरल रावत हैं जिन्हें सबसे वरिष्ठ माने जाने वाले जनरल बक्शी की उपेक्षा करके केंद्र की वर्तमान एनडीए सरकार ने सेना प्रमुख बनाया था। इसी प्रकार प्रधानमंत्री जिस प्रकार भारतीय सेना विशेषत: कर्नाटक से ताल्लुक रखने वाले दो वरिष्ठ सैन्य अफसरों के अपमान का आरोपी ठहराते हुए कांग्रेस की छवि धूमिल करने की जो चेष्टा करते हैं, उसके पीछे निहित उनका द्वेष और सत्ता की भूख किसी से छिपी नहीं है। ऐसे दुष्प्रचार से प्रधानमंत्री और उनका दल चाहे कर्नाटक का चुनाव जीत जाये किंतु ऐसे चुनावी दुष्प्रचारों की बड़ी कीमत हमें सेना के दीर्घकालीन राजनीतिकरण के रूप में चुकाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए और तैयार हो जाना चाहिए पाकिस्तान की जैसे सैन्य तानाशाही की आशंकाओं के लिए।
डॉ. प्रमोद मीणा
सहआचार्य, हिंदी विभाग, मानविकी और भाषा संकाय, महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय,
जिला स्कूल परिसर, मोतिहारी, जिला–पूर्वी चंपारण, बिहार–845401,
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