एतिहासिक

स्वाधीन भारत, आपातकाल और लोकतान्त्रिक आन्दोलन

 

1974 में भारत में निरंकुश राजनीतिक सत्ता के विरुद्ध छात्रों ने एक आन्दोलन किया था जो गुजरात से शुरु हुआ और बाद में बिहार व अन्य राज्यों में फैला। इस आन्दोलन ने इन्दिरा गाँधी और उनके पुत्र के विरुद्ध राजनीतिक आन्दोलन को मजबूत किया जिसका नेतृत्व 1942 के आन्दोलन के एक नायक जयप्रकाश नारायण ने किया। पचास वर्ष पूर्व हुए इस आन्दोलन का ऐतिहासिक महत्त्व इस कारण से है कि इसने काँग्रेस को स्वाधीन भारत में पहली बार सत्ता से बाहर कर दिया। इस परिवर्तन की कल्पना कम से कम इस समय तो किसी ने नहीं की थी जब यह आन्दोलन शुरु हुआ था। इस आन्दोलन के फलस्वरूप इन्दिरा गाँधी ने आपातकाल की घोषणा की। 1975 के जून में आपातकाल की घोषणा के साथ स्वाधीन भारत की राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन आया इसमें सन्देह नहीं। इमरजेंसी लगाने का इन्दिरा का फैसला हर दृष्टि से गलत था। यह बहुत अच्छा हुआ कि सभी ओर से इस निर्णय का विरोध हुआ।

लोकशक्ति की तानाशाही प्रवृत्ति के इस जय को पूरी दुनिया ने देखा जब 1977 में इन्दिरा इन्दिरा न सिर्फ लोक सभा का चुनाव हार गयीं बल्कि उनको उनके क्षेत्र में राजनारायण के हाथों हार का मुँह देखना पड़ा। इमरजेंसी उन शक्तियों द्वारा लाया गया था जो राजशक्ति को लोक शक्ति से अधिक महत्त्व देने वाले लोग थे। इमरजेंसी को लाने के पक्ष में तर्क देने वाले लोग भी रहे हैं लेकिन इसने हमारी स्वतन्त्रता का हनन करने का प्रयास किया था। प्रो आनंद कुमार ने इमरजेंसी के विरोध में कैसे जनता उठ खड़ी हुई इस विषय पर जो लिखा है वह बहुत मूल्यवान है। ज्ञान प्रकाश ने भी एक पुस्तक लिखी है जिसमें उस दौर में कैंपस पर किस तरह का खराब असर पैदा किया था उसपर लिखा है।

  बाद में इन्दिरा गाँधी की शक्तिशाली काँग्रेस सरकार के विरुद्ध विपक्षी दल एक साथ आये और उन्हें उन शक्तिशाली काँग्रेस नेताओं का साथ भी मिला जो इन्दिरा गाँधी को सत्ता से हटाने के लिए लगभग आठ वर्षों से लगे हुए थे। इस निर्णायक मोड़ पर वामपन्थी, समाजवादी दलों से लेकर दक्षिणपन्थी जनसंघ एक साथ आये और इस इन्दिरा विरोधी मुहिम में शाही इमाम का फतवा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ दोनों शामिल हुए। यह एक अभूतपूर्व राजनीतिक लामबन्दी का साक्षी बना जिसके केन्द्र में इन्दिरा और उनके निरंकुश पुत्र संजय गाँधी का विरोध था। 

इन्दिरा गाँधी, संजय गाँधी और उनके समर्थक इस आन्दोलन को फासिस्ट, साम्प्रदायिक और देश विरोधी शक्तियों के आ जुटने के रूप में देख रहे थे। वे लोगों में प्रचार कर रहे थे कि जो लोग गरीबों के जीवन में सुधार करने के कॉंग्रेसी कार्यक्रमों से खुश नहीं वे लोग साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ मिलकर षड्यन्त्र कर रहे हैं और विदेशी ताकतों की मदद से देश में अस्थिरता फैला रहे हैं। उनका कहना था कि देश विरोधी इन शक्तियों को कुचलने के लिए राज्य को उसके विशेषाधिकार का प्रयोग करना पड़ रहा है। इन्दिरा गाँधी ने 1976 में लाल किले से जो भाषण दिया है उसे ध्यान से सुनने से स्पष्ट है कि उनके इस तरह के राजनीतिक आन्दोलनों के प्रति सख्ती करने के कारण क्या थे। 

आज इस इतिहास में लौटने पर दो बातें स्पष्ट हैं। एक दृष्टि है कि यह लोकतन्त्र की रक्षा के लिए किया गया आन्दोलन था जिसमें लोक सत्ता ने राजसत्ता को चुनौती दी और उसे सत्ता से हटा दिया। कालान्तर में जो लोग सत्ता में आये वे सफल नहीं हुए लेकिन इस आन्दोलन ने एक सबक तो दे ही दी कि भारत में लोकशाही चलेगी, तानाशाही बर्दास्त नहीं की जाएगी। इसके बाद शायद ही कोई तानाशाह बनने की कोशिश करे! 

दूसरी तरह की दृष्टि का यह मानना है कि इस लोकतान्त्रिक आन्दोलन की आड़ में साम्प्रदायिक शक्तियों को सत्ता के नजदीक आने का मौका मिला जिसके दूरगामी परिणाम बहुत घातक हुए। इतिहासकार बिपन चंद्र ने एक पुस्तक लिखकर यह दिखलाने का प्रयास किया है कि 1974 के आन्दोलन से साम्प्रदायिक शक्तियों को असली लाभ मिला। पिछले ढाई दशकों से साम्प्रदायिक शक्तियों को हाशिए पर रखा गया था और जे पी आन्दोलन की आड़ में उनको मौका मिल गया कि वे सत्ता में आ जाएँ और उनकी सोच को बड़ा साम्प्रदायिक आधार मिल जाए।

वही हुआ। उसके बाद देश में साम्प्रदायिक दलों का प्रभाव बढ़ता ही चला गया और कुछ वर्षों के बाद वे सत्ता में भी आ गये। यानि लोकतान्त्रिक और क्रान्तिकारी 1974 के आन्दोलन ने अन्ततः दक्षिणपन्थी जनसंघ को मजबूत किया!

आज जब हम जे पी आन्दोलन का मूल्यांकन करने बैठते हैं तो हमें मानना पड़ेगा कि दोनों ही दृष्टियों में से किसी को भी पूरी तरह अस्वीकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इसके बावजूद इस आन्दोलन का नकारात्मक मूल्यांकन गलत है। आज इस आन्दोलन से क्या हासिल हुआ इस प्रश्न पर विचार करते हुए हिन्दी के बड़े आलोचक और समाजवादी चिन्तक विजयदेव नारायण साही के एक लेख ‘सामाजिक परिवर्तन और लोकतन्त्र की कसौटियां’ का स्मरण करना उपयुक्त होगा। इस महत्त्वपूर्ण आलेख में उन्होंने लिखा है कि जब से अठारहवी शताब्दी में स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व का क्रान्तिकारी मन्त्र मिला इन तीनों का समन्वित रूप ही काम्य रहा है। वे कुछ असाधारण उदाहरणों के माध्यम से दिखलाते हैं कि रूस और चीन की क्रान्तियों और उसके बाद एक प्रवृत्ति ऐसी रही है कि इनमें से एक को कम महत्त्व देना भी ठीक है। अगर आर्थिक विकास चाहिए तो समानता और स्वतन्त्रता को या इनमें से किसी एक को कम महत्त्व देना ठीक समझा गया। इसको वे गलत बतलाते हैं। वे कहते हैं “ स्वतन्त्रता हमेशा एक बढ़ता हुआ रूप है।” वे अपने विद्वान मित्रों को इस क्रम में यह याद दिलाना नहीं भूलते कि अराजकता का भय दिखला कर स्वतन्त्रता का हनन लोकतन्त्र के लिए शुभ नहीं है। वे कहते हैं “ अराजकता तो कभी किसी देश में होती नहीं। कोई न कोई तो राज करता ही रहता है, वह खुद गोली चलाकर लूट ले या किसी और से गोली चलवाकर।…जब हम समाज को बदलने की बात कर रहे हैं, तो उनके लिए सचमुच सराजकता और अराजकता में बहुत बड़ा अन्तर नहीं है।” इसके बाद वे निष्कर्ष में कहते हैं कि तीनों आयाम को एक साथ नहीं रखते तो भूल करते हैं। 

इस विषय पर बातचीत की शुरुआत इसी बिन्दु से होनी चाहिए। क्या लोकतन्त्र के बढ़ते हुए रूप में प्रतिपक्ष को इस अराजकता बढ़ाने वाला कह कर स्वतन्त्रता का हनन करना लोकतन्त्र के लिए सही हो सकता है? 

जे पी क्यों इस आन्दोलन के साथ खड़े हुए यह एक बड़ा प्रश्न है। इसमें सन्देह नहीं कि 1969 से 1971 के बीच इन्दिरा गाँधी ने वामपन्थ के समर्थन से सत्ता पर अपनी मजबूत पकड़ बना ली थी। लेकिन इस सत्ता ने 1972 और 1974 के बीच जिस तरह से देश को चलाने की कोशिश की उससे देश में असन्तोष बढ़ा। आर्थिक स्थिति विकट हुई और असन्तोष बढ़ा। राजनीतिक विरोध का दमन हुआ और एक किस्म से यह स्पष्ट हो गया कि सरकार का विरोध करने पर सरकार निरंकुश तरीके से दमन करेगी। एक तरफ जनता में असन्तोष बढ़ रहा था और दूसरी ओर राजसत्ता दमनकारी नीति से चल रही थी। 

इन्दिरा गाँधी और उनके समर्थकों को लोकशक्ति और जे पी के प्रभाव का अन्दाजा नहीं था। किसी ने अब तक ठीक से इस बात का विश्लेषण नहीं किया है कि 1971 के बाद अगले तीन सालों में इन्दिरा गाँधी चरम लोकप्रियता से बहुत अलोकप्रिय कैसे हुई। इसकी कुछ जिम्मेदारी निश्चित रूप से उनके सलाहकारों को लेनी चाहिए जो किताबी वामपन्थी थे। वे क्रान्ति को इन्दिरा गाँधी को प्रभावित करके कर लेने वाला काम मानते थे। शायद वे इन्दिरा गाँधी को थोड़ा कमज़ोर नेता भी मानते हों। लेकिन इन्दिरा गाँधी वामपन्थी नेताओं को एक हद तक ही महत्त्व देती थी। उनके इर्द गिर्द जमा हो गये लोग उनके दिमाग में भारतीय नेताओं की एक ऐसी छवि बनाने में सफल हो गये थे कि उनको वे उनकी औकात दिखा सकें। आज इस बात की चर्चा लोग नहीं करते कि वामपन्थी प्रभाव में इन्दिरा गाँधी अटल बिहारी बाजपेयी को बहुत कठोर तरीके से फासिस्ट पार्लियामेंट में कहने को जरूरी समझ बैठी। 

इन्दिरा गाँधी में इस तरह की एक प्रवणता पहले भी थे जब वे जिद पर अड़ जाती थी और अपना अहित कर लेती थी। जब नेहरु थे उस समय के दो उदाहरण दिए जा सकते हैं। एकबार जयंत कृपलानी लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे और काँग्रेस पूरी ताकत से उनको हराने के लिए प्रयास कर रही थी। इन्दिरा गाँधी प्रचार करने के लिए गयीं तो उन्होंने अपने भाषण में कहा कि कृपलानी जी की काँग्रेस में कोई खास हैसियत नहीं थी, वे काँग्रेस के दफ्तर में आनंद भवन में क्लर्क भर थे! (नेहरू ने अपनी पुत्री को मृदुता के साथ बाद में कहा था कि उन्हें ऐसा नहीं बोलना चाहिए था।)

दूसरा उदाहरण है जब इन्दिरा गाँधी की ज़िद के कारण नेहरु ने नंबूदरीपाद की सरकार को अपदस्थ किया था। इन बातों का उल्लेख करना इसलिए जरूरी है कि यह समझा जा सके कि इन्दिरा गाँधी 1971 से 1974 के बीच इतनी अलोकतान्त्रिक हो उठीं कि जे पी जैसे नेहरु के कारण इन्दिरा के प्रति स्नेहिल रहे व्यक्ति के लिए भी सरकार का विरोध करना अपना कर्तव्य लगने लगा। इन्दिरा गाँधी तानाशाही प्रवृत्ति की शायद नहीं थी, इसलिए उन्होंने आपातकाल समाप्त करके चुनाव करने का फैसला किया होगा। लेकिन इन्दिरा गाँधी को लोकशाही की असली ताकत का अन्दाजा नहीं हुआ होता यदि 1974 के जे पी आन्दोलन ने उनको अपदस्थ करने के लिए मुहिम नहीं छेड़ी होती।

1974 के आन्दोलन ने एक तरह से भारत में तानाशाही की सम्भावना को बहुत हद तक समाप्त कर दिया। यह एक बड़ी उपलब्धि थी। इसके कारण इसका ऐतिहासिक महत्त्व है और रहेगा। अब चर्चा इस बात पर भी करनी चाहिए कि क्या इस आन्दोलन ने जनसंघ और हिन्दू राष्ट्रवाद को मजबूत कर दिया। इसका एक उत्तर है हाँ और एक उत्तर है नहीं। 

निश्चित रूप से अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख, मुरली मनोहर जोशी, के आर मलकानी, शांता कुमार से लेकर बीसियों नेताओं को 1974 से लेकर 1970 के बीच के समय ने बहुत मौके दिये और ये सभी देश के बड़े नेता बने। विदेश मन्त्री और सूचना और प्रसारण मन्त्रालय वाजपेयी और आडवाणी के हिस्से आया। कई राज्यों में जनसंघ को मन्त्रीमण्डल बनाने का मौका मिला जिसने सांगठनिक रूप से उनको मजबूत बनाया। लेकिन यह स्वाभाविक था और सिर्फ उनको ही मौका नहीं मिला जो दक्षिणपन्थी थे। क्या ज्योति बसु (सीपीएम) को पश्चिम बंगाल, कर्पूरी ठाकुर को बिहार, रामनरेश यादव (उत्तर प्रदेश) आदि को मौका इस आन्दोलन के कारण नहीं मिला? सीपीएम ने इस आन्दोलन के कारण सत्ता पायी और चौंतीस वर्ष तक सत्ता पर अपने को काबिज बनाए रखा। कर्पूरी ठाकुर और रामनरेश यादव के कारण क्या सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वालों को मौका नहीं मिला? ये अपने कार्यक्रमों को संकीर्णता की ओर लेकर चले गये और सांगठनिक लोक बल की ओर नहीं ले जा सके इसके लिए 1974 के आन्दोलन को दोष देना ऐसा है जैसे समाजवादी पार्टी में परिवारवाद और घनघोर जातिवाद के लिए राममनोहर लोहिया और जे पी को दोष देना!

किसी भी आन्दोलन की एक तात्कालिक सफलता होती और एक दूरगामी प्रभाव होता है। तात्कालिक सफलता तो स्पष्ट है कि इसने तानाशाही की सम्भावना को खत्म किया। इसका दूरगामी प्रभाव यह सन्देश है कि किसी आन्दोलन की भावना को समय की जरूरत के साथ जोड़कर देखकर राजनीतिक संघर्ष जारी रखने में एक प्रेरणा के रूप में देखा जाना चाहिए। कोई भी जन आन्दोलन एक नयी सम्भावना का सूचक होता है। इतना भी वह कर दे तो उसकी सफलता है, भले ही वह असफल ही क्यों न हो जाए। किसी आन्दोलन से अगर जन चेतना और बौद्धिक चेतना मजबूत हो तो उसको इतिहास में याद किया जाता है। अधिकतर आन्दोलन असफल होते हैं उनकी सफलता के मानदण्ड यही दोनों होते हैं। 

इस आन्दोलन से जुड़े लोगों की एक बड़ी संख्या दशकों तक लोकतान्त्रिक मूल्यों के लिए लड़ती रही है। कुछ आज भी झण्डा लिये और अपनी कलम से युवाओं को लोकशक्ति की ताकत समझाने में लगे हुए दिखते हैं। 

साम्प्रदायिक शक्तियों का उभार क्यों हुआ उसके लिए पहले लोहिया (गैर काँग्रेसवाद के प्रतिष्ठाता के रूप में) और बाद में जे पी और वी पी (विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में भी सभी थे) को दोष देना ऐतिहासिक परिदृश्य को न समझने के कारण अधिक है। साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय के बीच के महीन अन्तर और इससे जुड़ी राजनीति की सूक्ष्म व्याख्या के बिना इसको या उसको दोष देना ठीक नहीं। भारत में राष्ट्रवाद और धार्मिक राष्ट्रवाद (हिन्दू और मुस्लिम) का जन्म एक ही साथ उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ था।

राष्ट्रवाद ने साम्प्रदायिकता को मजबूत किया। यह कहना अगर गलत है तो बिपन चंद्र की इस बात को भी मानना कठिन है कि 1974 का जे पी आन्दोलन बाद में भाजपा के लिए ज़िम्मेदार है। इतिहासकार बिपन चंद्र ने साम्प्रदायिकता पर औपनिवेशिक शासन के दौरान के समय पर बड़ा काम किया था, लेकिन 1947 के बाद के समय में राष्ट्रीय और साम्प्रदायिक दलों को बिल्कुल अलग अलग देखने के कारण इसकी थोड़ी सरलीकृत व्याख्या ही की। 

अन्त में एक नज़र आज से 1974 के आन्दोलन के देखने की एक विडम्बना पर। आज जे पी आन्दोलन की प्रशंसा करने वाले अधिकतर वे लोग हैं जिसे दक्षिण पन्थ का समर्थक कहा जाता है। समाजवादियों और गाँधीवादियों के अतिरिक्त इस आन्दोलन की प्रशंसा भाजपा के नेता करते हैं, वाम और काँग्रेस के समर्थकों की तुलना में। पर भाजपा के नेतागण इस आन्दोलन की सम्भावनाओं के लिए कुछ कर सके इसका तो कोई प्रमाण नहीं मिलता है। वे बस इसकी प्रशंसा इसलिए करते हैं क्योंकि इससे काँग्रेस को धक्का लगा और जनसंघ को पाँव फैलाने का मौका मिला।

यहाँ यह कहना जरूरी है कि इस आन्दोलन को उन नेताओं से (खासकर मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव से) जोड़कर देखना भी ठीक नहीं जो बाद की राजनीति में संकीर्ण राजनीति की ओर मुड़ गये और अधिकतर अपने पारिवारिक हितों के लिए कार्य करते रहे। जे पी आन्दोलन को याद करना बढ़ती हुई स्वाधीनता और लोकतन्त्र के विस्तार से जोड़कर देखना उचित होगा। यह आन्दोलन अन्ततः बिखर गया और कोई राजनीतिक विकल्प सामने नहीं रख सका यह सच है, लेकिन इसके कारण दूसरे हैं। जे पी आन्दोलन लोकतन्त्र को मजबूत करने का एक ऐतिहासिक आन्दोलन था जो अपनी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सका इसके लिए जे पी को दोष देना ठीक वैसा ही है जैसे भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के अन्तिम वर्षों और उसके तुरन्त बाद के समय में आन्दोलन की अपेक्षाओं पर खरे न उतरने के लिए गाँधी को दोष देना

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हितेन्द्र पटेल

लेखक इतिहास के प्राध्यापक और उपन्यासकार हैं। सम्पर्क +919230511567, hittisaba@gmail.com
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