कोरोना के समय प्लेग वाली गलती दोहराना कितना खतरनाक
- विवेक आर्यन
कोरोना से पहले भारत में प्लेग ने महामारी के रूप लिया था। 1994 में प्लेग की वजह से 56 मौतें हुई थीं, लेकिन वैश्विक स्तर पर चर्चा का विषय बनी थी सूरत से भारी संख्या में लोगों का पलायन। 24 सितम्बर 1994 को ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने भी लोगों के पलायन की खबर को पहले पन्ने पर जगह दी थी। उस रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ दो दिनों में सूरत से लगभग 2 लाख लोगों का पलायन हुआ था। बाद में लगभग आधा शहर खाली हो गया था। सरकार और प्रशासन की तमाम कोशिशों के बावजूद लोगों को जैसे संभव हुआ, वे भाग निकले। इसका असर यह हुआ कि सूरत के अलावा बाकी राज्यों में भी प्लेग फैल गया। जिसके बाद स्थितियां खतरनाक हो गयी थी।
आज पूरा विश्व कोरोना की चपेट में है। इस विकट परिस्थिति में भारत जैसे घनी अबादी वाले देश की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। इसलिए WHO सहित दुनिया के अन्य देश भारत की ओर देख रहे हैं। 1994 की ही तरह आज भी भारत को सबसे बड़ा खतरा लोगों के पलायन से ही है। इसलिए केन्द्र ने लॉकडाउन को सबसे जरूरी समझा। लेकिन लॉकडाउन के दौरान भी जिस प्रकार लाखों लोगों का पलायन एक राज्य से दूसरे राज्य में हो रहा है, ऐसा लगता है कि भारत ने प्लेग की घटना से कोई सीख नहीं ली है।
अभी भारत के पास कोरोना से सम्बन्धित जो आंकड़े हैं उन पर कुछ भी टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी। कोरोना संदिग्ध के पॉजिटिव पाए जाने या उनमें कोरोना के लक्षण दिखने में लगभग 14 दिन का समय लग जाता है। यानी यदि आज कोई व्यक्ति संक्रमित हुआ है तो 14 दिन बाद ही इसकी पुष्टि हो सकेगी।
अन्य राज्यों से लौट रहे मजदूरों की नहीं हो रही जाँच –
रोजगार के लिए पलायन के मामले में झारखण्ड और बिहार सबसे आगे हैं। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देश के 31 राज्यों में (केन्द्रशासित प्रदेशों को लेकर) झारखण्ड बिहार के मजदूर पाए जाते हैं। उनके जीवन यापन का जरिया मुख्य रूप से फैक्ट्रियों में मजदूरी है। ‘द प्रिंट’ के लिए रांची से आनंद दत्ता की एक रिपोर्ट के मुताबिक 29 मार्च तक झारखण्ड में अन्य राज्यों से 84 हजार लोग आए, जिनमें से सिर्फ 196 लोगों की जाँच हुई है।
रांची के ही यूट्यूब पोर्टल अनब्रेकिंग की वीडियो रिपोर्ट से पता चलता है, कि झारखण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों में लौट रहे मजदूर ज्यादातर ट्रकों में भरकर लाए जा रहे हैं। यह स्थिति और भी खतरनाक है। 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के दौरान रांची रेलवे स्टेशन पर करीब 500 लोग अन्य राज्यों से आए थे, जिनकी कोई जाँच नहीं हुई। दिन भर स्टेशन पर बैठने के बाद सभी लोग अपनी सुविधानुसार घर को चले गए। 22 मार्च से लेकर अब तक हर दिन भारी संख्या में लोगों का झारखण्ड आगमन हो रहा है जिनकी जाँच की कोई व्यवस्था राज्य सरकार के पास नहीं है।
झारखण्ड में एक भी कोरोना पॉजिटिव केस नहीं पाये जाने तक उम्मीद बनी हुई थी, लेकिन रांची के हिंदपीढ़ी से मिली तब्लीगी जमात की मलेशियाई महिला के पॉजिटिव पाए जाने के बाद चुनौतियां बढ़ गयी हैं।
पंचायत स्तर पर हो क्वारंटाइन की व्यवसथा, बीडीओ, सीओ को मिले जिम्मेवारी –
झारखण्ड में कोरोना के आगमन का एक बड़ा माध्यम मजदूरों का पलायन भी है। यह मजदूर ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्र से हैं। इसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायत स्तर पर क्वॉरेंटाइन व आइसोलेशन की व्यवस्था होनी चाहिए। सप्ताह भर पहले मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने मुखिया, ग्राम पंचायतों को इसके लिए निर्देश दिए हैं।
एक सकारात्मक पहलू यह भी –
कोरोना के बारे में चारों तरफ से आ रही जानकारियां नकारात्मक ही है। इस बीच एक सकारात्मक बात यह हो सकती है कि पलायन कर रहे मजदूर नीचे तबके के हैं, जिनका एलीट क्लास के लोगों से कोई शारीरिक सम्पर्क लगभग न के बराबर है। झारखण्ड बिहार से गए ज्यादातर लोग फैक्ट्रियों में काम करते हैं, अपनी कोई दुकान अथवा ठेला लगाते हैं। बहुत कम है लोग हैं जो बड़े घर में ड्राइवर अथवा माली व गार्ड जैसे काम करते हैं। भारत में कोरोना का आगमन विदेशियों द्वारा अथवा विदेश में रह रहे भारतीयों द्वारा हुआ है। संभव है कि पलायन कर रहे लोगों का उन लोगों से कोई सम्पर्क ना हुआ हो और इनमें से ज्यादा लोग संक्रमित नहीं हो। इसके लिए मजदूर वर्ग के लोगों का इम्यून सिस्टम भी जिम्मेवार है, जो कि अन्य लोगों के मुकाबले बेहतर है। बेशक यह तर्क इतना मजबूत नहीं है, जिसके आधार पर यह माना जा सके कि पलायन कर रहे लोग संक्रमित नहीं हैं। लेकिन ऐसा हो तो बेहतर है।
लेखक पत्रकारिता के छात्र और दैनिक जागरण के संवाददाता रहे हैं|
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