चिन्तन

हिन्द स्वराज : एक वायलन समंदर किनारे

 

‘एक वायलन समंदर किनारे’[1] उर्दू भाषा के मेधावी लेखक कृशन चंदर का एक बेहद महत्वपूर्ण उपन्यास है। उस उपन्यास में सैकड़ो साल पुराने एक वीणा वादक की मूर्ति को, जो कि कोणार्क के सूर्य मंदिर में स्थित था, मुंबई के किसी महाविद्यालय की आधुनिक लड़की छू देती है। लड़की कल्पना करती है कि ‘काश, इस प्रश्तर की मूर्ति में जान आ जाती !’[2] वीणा वादक के लिए लड़की की यह कल्पना वीणा वादक के प्रश्तर रूह को हिला देती है। आधी रात के अँधेरे में भगवान शंकर की जब मंडली बैठती है तो वीणा वादक शंकर जी से मिन्नतें करता है कि उसे मानव देह दे दें क्योंकि उसे प्यार हो गया है। महादेव कहते हैं कि वह आज की लड़की है और तुम सैकड़ो साल पुरानी चेतना वाले वीणा वादक। तुम भला साथ कैसे निभाओगे? पर वीणा वादक मिन्नतें करता ही रहता है। देवी पार्वती भी शंकर जी से आग्रह करती है कि “प्रभु इसकी वीणा में हिमालय जैसी ऊंचाई तो है पर समुद्र वाली गहराई नहीं है। इसलिए कि इस वादक ने आजतक प्रेम नहीं किया।”[3] देवी के आग्रह पर महादेव वीणा वादक को साल भर के लिए मानव देह दे देते हैं। परिणाम यह निकला कि वीणा वादक ने मुंबई तक उस लड़की का पीछा किया। दोस्त बनाया, फिर प्यार का इजहार किया और उपन्यास के अंत-अंत में वीणा वादक उस लड़की को गोली मार देता है।

 हालाँकि उपन्यास के अंत में शंकर अपनी शक्ति से उस लड़की को जिंदा कर देते हैं। कुल मिलाकर उपन्यासकार दिखाना चाहता है कि देह के जवान होने भर से दो के बीच प्रेम नहीं हो सकता। भाव-बोध और मनोरचना में वीणा वादक सैकड़ो साल पुराना है,वह वो ना हो सका जो आज का युग उसे होने को कहता है। ‘हिन्द स्वराज’ पढ़ते वक़्त इस उपन्यास का खयाल आना अचरज में डालता है।

 ‘हिन्द स्वराज’ लिखे जाने के बरसों बरस बाद, उसमें शामिल तमाम चेतावनियों के बावजूद भारत सरकार ने आखिरकार ‘भूमंडलीकरण’ की समूची प्रक्रिया को अपना लिया। अब तो भूमंडलीकृत भारत का तीसरा दशक भी खत्म हो चुका है। ठीक ऐसे में ‘हिन्द स्वराज’ को फिर से सामने लाकर खड़ा करना हमारी जरूरत और मजबूरी क्या दोनों ही नहीं बनती जा रही है? पहला ही सवाल उठता है कि अब तक जो आर्थिक प्रक्रिया रही थी उसमें ऐसा क्या था कि उसे बदलकर विश्व-बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष के इशारे पर उदारीकरण की प्रक्रिया को अपनाना पड़ा? मिश्रित अर्थव्यवस्था के सपनों में आखिर छेद कहाँ हुआ? या कि वह सपना ही गलत था? या कि सपना तो सही था पर शेष संसार से हम ही गति का तालमेल नहीं कर पाए? क्या बाकी दुनिया की गति हमारी गति से तेज दिखी? क्या ‘उस’ गति को पाने का प्रयास आज तक नहीं ज़ारी है? बुलेट ट्रेन और अबाध संचार, क्या यह “गति” ही असली विमर्श है? आज के हिंदुस्तान में और 1909 के ‘हिन्द स्वराज’ के विमर्श में ‘गति’ की परिभाषाएँ क्या बदल गई हैं? क्या आज का समय गांधी जी की तरह सोचता है कि “ देश की शक्ति के मामले में, यह केवल एक व्यक्ति का प्रश्न नहीं है। एक व्यक्ति बहुत ऊंचे उठ सकता है, लेकिन यहाँ समूची संस्था, समूचे देश को ऊंचे ले जाने का प्रश्न है।”[4]

 गति को लेकर गांधी जी का एक अपना फार्मूला है या यह कहें कि हिन्द स्वराज का मुख्य तत्व-दर्शन गति के सिद्धांत पर ही आधारित है जिसे हमें सामाजिक ‘क्वांटम थ्योरी’ से समझना होगा। गांधी जी कहते थे “हिंदुस्तान अँग्रेजी हुकूमत के नहीं बल्कि आधुनिक सभ्यता के पैरों तले रौंदा जा रहा है।”[5] हिंदुस्तान की कमर में रेल के पहिये हिन्दुस्तानियों ने नहीं जड़े, अंग्रेज़ों ने जड़े थे पर जेट इंजन तो हमने ही जड़ा है। इस बात को हमें प्रतीकात्मक ढंग से समझना होगा कि जिस गतिशीलता पर हम सवार होना चाहते थे वही भूत आज हमारी सवारी कर रहा है, इस डर से कि कहीं हम पिछड़ ना जाएँ। ‘गतियों’ की प्राप्ति का यह दशकों का जतन श्रम, संयम और संतुलन के त्रिकोण को तोड़ते हुए है। गांधी गतिशीलता के विरोधी नहीं थे बल्कि एक ‘नियंत्रित गति’ की सभ्यता चाहते थे “ यंत्रों की ऊपरी विजय से चमत्कृत होने से मैं इंकार करता हूँ। और मारक यंत्रों के मैं एकदम खिलाफ हूँ। लेकिन ऐसे सादे औजारों, साधनों और यंत्रों का, जो व्यक्ति की मेहनत को बचाए और झोपड़ियों में रहने वाले लाखों करोड़ो लोगो का बोझ कम करें, मैं जरूर स्वागत करूंगा।”[6]

 पर ‘आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस’ का यह समय है। ज्ञान और सूचनाओं के विश्लेषण के मामले में मानव-मस्तिष्क से लाख गुना तेज मशीनें (चिप) बन कर तैयार हैं। पिछले एक दशक में हमने इतना ज्ञान (हर प्रकार का) और विश्लेषण ‘जेनरेट’ किया है जितना शताब्दियाँ नहीं कर पाईं। यदि दुनिया के आठ अरब लोगों का डाटा हो तो एक मशीन उससे हैरतंगेज निष्कर्ष निकाल सकती है। अब हम क्या करें इस गति का? इस सांख्यिकी का? क्या वास्तव में यह रफ्तार सबके लिए है? क्या इस रफ्तार से कुछ ऐसा हो रहा है कि हाशिए के करोड़ो-करोड़ लोगों की जिंदगियों को रोशन किया जा सके? यदि नहीं, तो गति की उपयोगिता पर बात करनी ही होगी। गाँधी ‘हिन्द स्वराज’ में रेल की बुराई कर चुके थे और इस किताब का जब एक और संस्करण 1938 में आया तो इसे ‘एक मूर्ख व्यक्ति की रचना’ कह डाला[7] गया और बहुत बाद में नेहरू ने इस किताब को ‘यथार्थ से परे’ कहा.[8] स्वाभाविक है कि गांधी का रेल, डॉक्टर और वकीलों के बारे में जो राय थी वह बिलकुल सपाट ढंग से ले लिया गया जबकि वह आने वाली सभ्यता की गति, संयम और तर्क के फिसलन पर एक टिप्पणी है। ‘हिन्द स्वराज’ नियंत्रित गति का एक वायलन था जिसे एक आदमी 1909 में बजा चुका था . वह “धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष”[9] के उस पारंपरिक ज्ञान सरोवर से निकला था जो तब दकियानूस लग रहा था पर आज जब विउपनिवेशीकरण की नई अवधारणा पर बहस तेज हो चुकी है और भारतीय ज्ञान परंपरा के मौलिक चिंतन के आलोक में उपयोगी दृष्टिकोण की खोज हो रही है तब यह बार-बार अहसाह हो रहा है कि ‘हिन्द-स्वराज’ को इतिहास में हमने बहुत सस्ते में निपटाया है। वह धुन बज तो आज भी रही है पर हमने नए शौक पाल लिए हैं जिसका नाम है ‘रफ्तार’। यह रफ्तार या गति पहले प्रशासकीय स्तर पर वांछनीय थी पर भूमंडलीकरण के बाद इसके स्वाद और तलब को व्यक्ति-व्यक्ति पर देखा जा सकता है। यह चीजें एक दिन में तो हुईं नहीं। एक लम्बी प्रक्रिया का परिणाम है यह। गाँधी जिस व्यक्ति पर लगातार बल देते रहे उसे आजादी के बाद के नेहरू के मॉडल में समाज के साथ ‘परस्पर’ होने का अवसर ही कम मिला। दूसरे शब्दों में गाँधी एक साथ दो चीजों (व्यक्ति और समाज) पर बल देते हैं, लेकिन इन दो की परस्परता को आजाद भारत में जगह नहीं मिली, यही ‘शैतानी सभ्यता’ की अनिवार्य त्रासदी है। गांधी जी ने आगाह किया था “ सच्चा लोकतन्त्र केंद्र में बैठे हुए बीस व्यक्तियों द्वारा नहीं चलाया जा सकता।”[10] यह वही चीज है जिसे ‘कामायनी’ में प्रसाद भी दर्ज करते हैं। पर इतना भर कह देने से ना तो ‘हिन्द स्वराज’ का आंकलन हो सकता है और ना ही तथाकथित ‘शैतानी सभ्यता’ का। रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं “ जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ में देव और असुर संस्कृतियों से भिन्न, और उसकी तुलना में अधिक सर्जनात्मक मानवीय संस्कृति के विकास का आख्यान है, उसके वर्तमान संकट की समझ है और इस संकट के बचाव की संभाव्य दिशा संकेतित है। थके और पराजित मनु के प्रति अपने उद्बोधन का समापन ‘श्रद्धा’ इन शब्दों में करती है – शक्ति के विद्युत कण, जो व्यस्त/विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय/ समन्वय उसका करे समस्त/विजयिनी मानवता हो जाय।”[11]

जिसे प्रसाद ‘समन्वय’ कह रहे हैं वह क्या केवल सृष्टि का संतुलन था? क्या वह भोग और कर्म का संतुलन है केवल? वह ज्ञान-विज्ञान, कला और तकनीक के संतुलन से क्या नहीं जुड़ता? अपने समय की ‘गति’ का जो संकट है, उसे समझने के लिए उत्तर-आधुनिक विमर्श की एक शाखा ‘उत्तर-संगीत’ से समझा जा सकता है। टीम वुड्स के सम्पादन में उत्तर-आधुनिकता पर जो हालिया किताब आई है उसके एक अध्याय ‘पोस्ट मोडेर्निज़्म,पॉपुलर कल्चर एंड म्यूजिक’ में लेखक की मान्यता है कि “कॉर्पोरेट की शक्ति और उद्योग की गति ने संगीत को एक ऐसे फ्यूजन पर लाकर खड़ा किया है जिसमें संगीत के सारे मानक ध्वस्त हो चुके हैं और जिस तरह के संगीत अब पैदा हो रहे हैं या होंगे, उसका अर्थ, मानवीय जुड़ाव और क्षेत्र से कोई आवयविक रिश्ता होगा, इसकी कोई भविष्यवाणी अब संभव नहीं। कुल मिलकर यह (संगीत की) दुनिया अब कॉर्पोरेट और उद्योग के नियंत्रण से भी बाहर जा चुकी है।”[12] यह बस एक उदाहरण है। ध्यान रहे कि जिसे हम आजतक संस्कृति की आत्मा मानते रहे हैं अर्थात संगीत, उसको कॉर्पोरेट और उद्योगों ने मिलकर कहाँ पहुंचा दिया है? इसे ही कार्ल मार्क्स ने ‘सेल्फ एलिनेशन’ कहा था। जहां उत्पादक का उत्पाद से कोई भावनात्मक संबंध नहीं रहा जाता। करोना, डीप फ़ेक और आर्टिफिश्यल इंटेलिजेंस पर तो अभी ठीक से बात ही नहीं हो पा रही है। करोना लाभ की महत्वाकांशी प्रयोगशाला से निकला वह विषाणु था जिसने पूरी दुनिया को ही लगभग निगल लिया था। लाखों-लाख मौतें तांडव कर रही थीं और हम विवश थे। लाभकारी गति की वांछनीयता हमें तबाही के कगार तक ले आई। सृष्टि का सारा संतुलन, आज भी डांवाडोल है क्योंकि हम अभी तक यह नहीं जान पाए कि करोना के बाद हमारी देह में किस किस्म के बदलाव या प्रभाव पड़ रहे हैं। एकबारगी तो हम करोना महामारी से जीतते हुए खुद को देख सकते हैं क्योंकि तब तक विश्वास का संकट इतना नहीं गहराया था। इससे ज्यादा भयानक आर्टिफ़िश्यल इंटेलिजेंस से पैदा हुआ डीप फेक की तकनीक है जिसमें चेहरे, हाव-भाव और अभिव्यक्ति की सम्पूर्ण चोरी के रास्ते खुल गए हैं। टेस्ला कार के मालिक एलन मस्क ने तो यहाँ तक कह डाला है कि आने वाले समय में आर्टिफ़िश्यल इंटेलिजेंस परमाणु बम से ज्यादा खतरनाक परिणाम देने वाला है। मानव-कल्याण और अतिरिक्त श्रम को बचाने की संकल्पना और प्रण से शुरू हुआ यह ‘गति’ का खेल विध्वंस के मुहाने पर ले आया है। लोकतन्त्र के नाम पर उसकी कोख में बैठी पूंजीवादी शक्तियों ने नदी-नाले, पहाड़-जंगल, धरती-हवा सबको पिछले सौ वर्षों में जितना दूषित किया है उतना अबतक के इतिहास में कभी नहीं हुआ था। अब इस गति का क्या किया जाय?

‘हिन्द-स्वराज’ की शक्ति ‘एक वायलन समंदर किनारे’ के महादेव की तरह अमोघ मानने की दावेदारी यहाँ नहीं है। पर वह शक्ति कुछ जीवन-दायिनी जरूर दिख रही है। जीवन में जब संतुलन नहीं दिखता तो हम उसे साहित्य और कल्पना के माध्यम से संतुलित करने का सपना देखते हैं। सभ्यताएँ अब तक आत्म-अवलोकन से बचती आ रही हैं। उसने अब तक की अपनी पायी हुई गति का ठीक से विलेशण नहीं किया है। दुनियाभर के पूँजीपतियों के दबाव में हर देश की अर्थव्यवस्था एवं उसकी संतुलित नीतियाँ जनता और उसकी सरकार के नियंत्रण से बाहर जा रही हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक अब तक दुनिया में जितने हथियार इकट्ठे किये गए हैं और उनका उत्पादन व संरक्षण हो रहा है, उसमें जितना धन लगा है, उस धन से एशिया और अफ्रीका की गरीबी एक दफा नहीं बल्कि तीन-तीन बार खत्म की जा सकती थी। यह किस तरह की गति है? क्या इसका कभी विश्लेषण होगा? किशन कालजयी लिखते हैं “एक सच्चे लोकतन्त्र में न तो किसी तरह की सामाजिक गैर-बराबरी की जगह हो सकती है और न ही किसी तरह की आर्थिक असुरक्षा की। इन दोनों कसौटियों पर परखें तो अभी हम एक पिछड़े हुए लोकतन्त्र में जी रहे हैं।”[13] समय और गति के बीच संसाधन, अवसर और विकास के समान बँटवारे से चूक का परिणाम भारत ही नहीं पूरी दुनिया भुगत रही है। उपरोक्त वक्तव्य केवल एक देश पर लागू नहीं होता। एशिया और अफ्रीका में ज्यादा हालत खराब है क्योंकि पूंजीवादी और विकसित देशों का कचरा चाहे युद्ध सामग्री के रूप में हो या तकनीक के नाम पर हो, लगातार बहकर यहाँ आ रहा है। विकास का पूरा ग्लोबल मॉडल अस्थिर है और फायदा ज्यादातर एकतरफा है।

 यदि आत्म-विश्लेषण होगा तो यह तय है कि ‘हिन्द स्वराज’ के प्रति हमारा आज का यह आकर्षण किसी दार्शनिक और भावात्मक आग्रह की वजह से नहीं होगा बल्कि उसका आकर्षण अब किसी एक सभ्यता को ही नहीं पूरी दुनिया को बचा लेने के परिणाम के रूप में देखा जाएगा। गाँधी की जिस सादगी को अब तक अनुकरणीय आदर्श के रूप में देखते हुए सभ्यताएँ उसका महिमामंडन करती रहीं (या अवांछनीय/ अव्यावहारिक विचार मानकर निंदा करती रहीं) वह अब धीरे धीरे मजबूरी होती जा रही है। वह पूछ रही है कि विश्व-अर्थव्यवस्था का यह कैसा मानक है कि यूक्रेन या फिलिस्तीन में चलने वाली लड़ाई और लाखों-लाख लोगो के विस्थापन और मौतों पर हम फायदे और नुकसान की निगाह से क्यों सोच रहे हैं? क्या सादगी और गति का संतुलन रखकर यह काम किया गया है? सवाल यह भी उठता है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम रफ़्तार को बढ़ाए रखें और सादगी को अनिवार्य मूल्य के रूप में भी अपनाए रखें? ऐसा भी भला हो सकता है? बस इसी सोच में ‘हिन्द स्वराज’ समय के विराट समंदर के किनारे पड़ा हुआ है। रफ्तार की तमाम प्रतियोगिताओं के बावजूद उसमें से सादगी के सौन्दर्य की धुन लगातार अब भी उठ रही है। उसमें नियंत्रित गति है। पर हमारे नए समय को क्या? उसके शौक का क्या?

[1] एक वायलन समंदर किनारे , कृशन चंदर , राजकमल प्रकाशन , पेपर बैक 2019

[2] वही , पृष्ठ 16

[3] वही पृष्ठ 21

[4] गांधी-पटेल , भाषण और संभाषण , नीरजा सिंह ,नेशनल बूक ट्रस्ट , 2012, पृष्ठ -1

[5] आसमां और भी है , अदित्या निगम , सेतु प्रकाशन -2023 , पृष्ठ 240

[6] मेरे सपनों का भारत , गांधी जी , संग्राहक-आर के प्रभु, नवजीवन प्रकशन मंदिर 1960, पृष्ठ -34 

[7] सितंबर 1938 , ‘आर्यन पाथ’ के हिन्द स्वराज अंक के लिए भेजे सन्देश

[8] गाँधी को नेहरू का पत्र 9 अक्टूबर , 1945 , देखें पृष्ठ 153 ,

[9] ज्ञान की राजनीति, मणींद्र नाथ ठाकुर , सेतु प्रकाशन 2023, पृष्ठ -99

[10] ग्राम्य स्वराज , महात्मा गांधी ( संकलन हरि प्रसाद व्यास), नवजीवन प्रकाशन मंदिर , तीसरा मुद्रण 2007, पृष्ठ-15

[11] हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभरती प्रकाशन, ग्यारहवाँ संस्कारण 1999। पृष्ठ-110 

[12] Beginning postmodernism , Tim Woods , second edition 2017, viva books private limited, page-204

[13]  संस्कृति : विविध परिप्रेक्ष्य , डॉ मुन्ना कुमार पांडे , किशन कालजयी द्वारा समय से संवाद ,सीरीज-14 , अनन्य प्रकाशन-2021 , भूमिका से

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प्रवीण कुमार

लेखक सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। सम्पर्क +918800904606, pkpravindu677@gmail.com
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