धर्म और राजनीति का घालमेल – दो
पिछला भाग – धर्म और राजनीति का घालमेल – एक
एक आइना, भारतीय राजनीति
आमजन के लिए मजहब, आस्था का विषय है, धार्मिक-राजतांत्रिक सत्ता के लिए वर्चस्व का, मीडिया के लिए रेटिंग व पूर्वाग्रह का और वर्तमान भारतीय नेताओं के लिए वोट की बन्दरबांट का। हिन्दू, मुसलमान, पारसी और ईसाइयों के बीच कुछ सांस्कृतिक-वैचारिक भिन्नता हो सकती है? ऐसी भिन्नता तो दक्षिणपंथी, वामपंथी, समाजवादी और गाँधीवादियों के बीच भी है। क्या वे एक-दूसरे के लिए असहनीय हैं? नहीं, तो क्या दुनिया का कोई मजहब ऐसा भी है, जो दूसरे मजहब को सहन न करने की शिक्षा देता हो? नहीं, तो फिर निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि मजहबी असहिष्णुता दर्शाने के कारण कुछ और हैं। वैचारिक-सांस्कृतिक भिन्नता में छोटे-मोटे द्वंद कोई खास बात नहीं, किन्तु एक-दूसरे को न सह पाने का संदेश देना, निश्चित ही मजहब के गैरमजहबी इस्तेमाल के कारण ही है।
अतीत पर गौर कीजिए कि यदि राजनीतिक इस्तेमाल की तमन्ना न होती, तो सोमनाथ मंदिर से लेकर बाबरी मसजिद तक को ध्वस्त करने के राजनीतिक प्रयास न होते। जमशेदपुर, मुंबई, सूरत, अहमदाबाद, भोपाल, कानपुर, मुरादाबाद, अलीगढ़, आगरा, मुजफ्फरनगर और मेरठ के हाशिमपुरा, मलियाना आदि जगहों मंे घटे शर्मनाक दंगे न घटते; एक वक्त में गुलाम अली की आवाज सुनने से शिवसेना को ऐतराज न होता; प्रतिक्रिया में दिल्ली के मुख्यमन्त्री, गुलाम अली को दिल्ली में मंच देने का वक्तव्य न देते। बात राजनीतिक न होकर देशभक्ति की होती, तो पाकिस्तान और बांग्ला देश से एक-एक इंच ज़मीन वापस लेने का घोष करनेे वाले, भारत की लाखों वर्ग किलोमीटर ज़मीन दबाये बैठे चीन को सबसे पहले आंखें दिखाते। यदि ऐसा न होता, तो बांग्ला देश से भारत आये भिन्न-धर्मी शरणार्थियों की गिनती, सिर्फ मुसलमान के रूप में नहीं होती। नित नई पाबंदियां तथा तालिबानी, फियादिन व जिहादी हमलों का नये वैश्विक चित्रों का संदेश क्या है?
जंग-ए-आज़ादी का दर्द
यह गौर करने की बात है कि जब-जब खुद को मजहबों के प्रतिनिधि कहने वाले राजनैतिक दलों या संगठनों द्वारा साझा करने की कोशिश हुई, उसके बाद अक्सर माहौल बिगाड़ने की कोशिशें भी हुई; नतीजे में साप्रदायिक ताकतें, ताकतवर होकर उभरीं।
याद कीजिए वर्ष 1905; जब बिना किसी तरह का मजहबी ख्याल मन में लाये भारत हिन्दू और मुसलमान एक कौम.. एक सांस होकर जंग-ए-आज़ादी में जुटी थी, तब लॉर्ड कर्जन, मजहबी आधार पर बंगाल के बंटवारे का प्रस्ताव ले आया। 1906 में मुसलिमों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की मांग को मंजूर कर लॉर्ड मिंटो ने साम्प्रदायिक विभेद की अपनी कोशिश को आगे बढ़ाना जारी रखा। मुसलिमों के लिए अलग सीटों के आरक्षण को क्या कहेंगे? इन सीटों पर काँग्रेस और मुसलिम लीग के एक साथ चुनाव लड़ने को असफल प्रयास के नतीजे, इन सीटों पर काँग्रेस को महज एक सीट और दंगे के रूप में सामने आये। 1927-28 में काँग्रेस द्वारा मुसलिम लीग की मांगों को पहले मानना और फिर नेहरु रिपोर्ट के जरिए पलट जाना। तीन-तीन गोलमेज सम्मेलनों का विफल रहना। ये तो सिर्फ कुछ नजीर भर हैं।
आज़ादी की जंग का काला हिस्सा यह है कि इस दौरान की ब्रितानी और हिंदुस्तानी राजनीति…पूरी की पूरी मजहबी पक्ष-विपक्ष में खङे होकर गढी गयी। वह चाहे मुसलिम लीग हो या फिर जनसंघ, एक संप्रदाय विशेष के नाम पर राजनीति करना, संप्रदाय का राजनैतिक इस्तेमाल ही है। लाला लाजपतराय ने लाहौर के अखबार ट्रिब्यून में तीन लेखों की श्रृंखला लिखकर, पंजाब और बंगाल की मांग पेश कर दी। उन्होने तो यहाँ तक मान लिया था कि अब हिन्दू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते।
दंगे गवाह
भारत में दंगों का इतिहास देखिए। मजहबी आधार पर किसी मुल्क का विभाजन और फिर दंगे! आखिर ऐसा भी कहीं हुआ है? वर्ष 1947 – भारत में हुआ। 1961 और आज़ादी के बाद का दूसरा चुनाव – उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, असम, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि प्रदेशों में प्रगतिशील तत्वों द्वारा एकजुट विपक्ष के रूप में उभरने की प्रक्रिया चल रही थी। दूसरी ओर केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ काँग्रेस, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और मुसलिम लीग ने साझा कर लिया। 1961 और 1964 में फिर बङा साम्प्रदायिक दंगा करा दिया गया।
नतीजा?
दंगे की प्रतिक्रिया में मजलिस मुसलिम मुसाबरात का गठन हुआ। 1969 में तो जैसे साम्प्रदायिक दंगों की बाढ़ ही आ गयी। रांची, जमशेदपुर, अहमदाबाद, जलगाँव आदि में इंसानियत शर्मसार हुई। भारतीय जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनसंघ पर उंगली उठी; नतीजे में मजलिस मुसलिम मुसाबरात का विस्तार हुआ और 1972 के चुनाव में भारतीय जनसंघ, एक शक्तिशाली राजनैतिक दल के रूप में उभरा।
काँग्रेस
1977 के बाद क्या हुआ? वर्ष 1977 में चुनाव हारने के बाद काँग्रेस की कट्टरता गुंडागर्दी और आपराधिक शक्ति के तौर पर सामने आई। उसके ‘गरीबी हटाओ’ नारे और समाजवाद चेहरे का भ्रम टूटा, तो इंदिरा गाँधी ने भी हिन्दू कार्ड को अपनी ताकत बनाने की कोशिश की। शेख अबदुल्ला की मृत्यु के बाद जम्मू-कश्मीर घाटी में हुए चुनावों में उग्र हिन्दू एजेंडे के साथ चुनाव लङा। नतीजा? कश्मीर में फारूक अबदुल्ला की नेशनल कांफ्रेस जीती, किन्तु हिन्दू वोट वाली जम्मू घाटी में काँग्रेस (आई) ने सबका सफाया कर दिया।
जनसंघ को भी एक सीट नहीं मिली। इसी तरह पंजाब के अकाली दल को निपटाने के लिए काँग्रेस ने जरनैल सिंह भिंडरावाले के आतंकवाद को फलने-फूलने दिया। फिर एकता और अखण्डता के नारे को उछाल कर सिखों को राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के लिए खतरे के रूप में पेश किया गया। हिन्दू समाज में व्यापक प्रतिक्रिया स्वाभाविक थीं। सोची-समझी रणनीति के तहत् काँग्रेस ने ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ करा दिया और हिन्दू मानस को तुष्ट करने का श्रेय लूट लिया। यह बात और है कि हिन्दू वोट हथियाने की इस जुगत में इंदिरा गाँधी की जान चली गयी। इस खेल से गुस्साये दो सिख अंगरक्षकों ने उन्हे मौत के मुंह में पहुंचा दिया। राजनैतिक लाभ, राजीव गाँधी को मिला।
सत्ता में आते ही उन्होने हिन्दुओं की प्रिय गंगा की सफाई हेतु ‘गंगा कार्य योजना’’की घोषणा की। स्वामी विवेकानंद के जन्म दिन को ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ घोषित कर डाला। शाहबानो प्रकरण में मुसलिम समुदाय के सामने समर्पण से हिन्दुओं में नकरात्मक प्रतिक्रिया होती दिखी, तो स्वयं श्री राजीव गाँधी, उनके आंतरिक सुरक्षा राज्य मन्त्री अरूण नेहरू और उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री वीर बहादुर सिंह ने मिलकर राम जन्मभूमि स्थल का ताला खुलवा कर, कट्टरवादियों के लिए एक नया जिन्न खड़ा कर दिया।
गौर कीजिए कि इसी के बाद रामजन्म भूमि मुक्ति आन्दोलन खड़ा हुआ। इसी समय दूरदर्शन पर रामानंद सागर रचित ‘रामायण” धारावाहिक शुरु हुआ। इसी बीच 1989 के चुनाव आ गये और राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली काँग्रेस ने हिन्दूवादी संगठनों के साथ मिलकर बाबरी मसजिद के पास राम जन्मभूमि मंदिर का शिलान्यास करा दिया। किन्तु तब तक जनसंघ से ज्यादा आक्रामक तेवर वाली भारतीय जनता पार्टी का अवतार हो चुका था। काँग्रेस के धर्मोन्मादी रुख से वामपंथी नाराज थे। लिहाजा, काँग्रेस के हाथ से बाजी निकल गयी।
जाति-धर्म-राजनीति: बढ़ता घालमेल
1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय मोर्चा, भाजपा और वामपंथी दलों के समर्थन से सरकार बनाने में सफल रहा। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिश पर अमल पर फैसला किया, तो अगङों की खिलाफ प्रतिक्रिया को देखते हुए भाजपा ने समर्थन खींच लिया; सरकार गिरा दी। जनता ने दंगों का दर्द झेला। जनता दल भी बंट गया। किन्तु जातिवाद के नये जिन्न ने पिछङी-दलित जातियों, जनजातियों और अल्पसंख्यकों को नई जगह दी। लिहाजा, हिन्दू कट्टरता को फलने-फूलने के पर्याप्त कारण विद्यमान थे।
नतीजे में जहाँ एक ओर जाति व अल्पसंख्यक गठजोड़ की राजनीति ने मुलायम सिंह, काशीराम, कर्पूरी ठाकुर, लालू यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान के अलावा कई मुसलिम दलों और नेताओं को भी जन्म दिया, वहीं प्रतिक्रिया में साध्वी उमा भारती, साध्वी ऋतम्भरा, योगी आदित्यनाथ जैसे हिन्दू चोला पहनने वाली कई शख्सियतें राजनैतिक हो गयीं। इसी संघ-भाजपा और विश्व हिन्दू परिषद ने बाद में केन्द्र में तत्कालीन प्रधानमन्त्री नरसिम्हा राव और प्रदेश में तत्कालीन मुख्यमन्त्री कल्याण सिंह से सांठगांठ कर बाबरी मसजिद ढहा दी। फिर साम्प्रदायिक सद्भाव टूटा। भारत ने फिर मार-काट का दर्द झेला। इससे जहाँ भारतीय जनता पार्टी एक ओर पूरी तरह कट्टर हिन्दू पार्टी के रूप में उभरी, वहीं एक जिम्मेदार पार्टी के तौर पर भाजपा की छवि को गहरा धक्का भी लगा।
उदारवाद और कट्टरता का कॉकटेल
तब भाजपा ने अटल बिहारी बाजपेई के उदारवादी चेहरे और आडवाणी के कट्टरवादी चेहरे के कॉकटेल का प्रयोग करने में ही भलाई समझी। अटल, प्रधानमन्त्री बने और आडवाली गृहमन्त्री। गौर कीजिए कि कॉकटेल के इसी सबक से सीखते हुए वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा किसी एक छवि के साथ आगे आने से बची। इस चुनाव में भाजपा की पूरी छवि, श्री नरेन्द्र मोदी के एकमात्र आइने में उतार दी गयी। मोदी की कई छवियां गढी गयीं।
एक छवि, गुजरात के विकास मॉडल को सामने रख उकेरी गयी विकास पुरुष की छवि थी। दूसरी छवि, पिछङे वर्ग के जातिवादी मोदी की थी। तीसरी छवि, ‘मैं आया नहीं हूँ, मुझे गंगा मां ने बुलाया है’ तथा रात्रि में योग-ध्यान करने वाले, मां का आशीष लेने वाले सनातनी हिन्दू की थी। चौथी छवि, एक चाय वाले से प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार की ऊंचाई तक पहुँचने वाले निर्णायक, जुझारू, निर्भीक व बेदाग और गरीबी से उठकर आसमान छू लेने वाले नेतृत्व की छवि थी। काँग्रेस के कारपोरेट घोटाले वाले शासनकाल और सोनिया, राहुल और मनमोहन सिंह की तुलना में इन चारों छवियों ने बहुस्तरीय असर किया। मोदी के साथ-साथ भाजपा भी जीती, किन्तु हिन्दूवाद का कार्ड उसने छोङा नहीं।
कभी जनगणना में मुसलिमों की आबादी में वृद्धि का आंकङा पेश कर, तो कभी साक्षी महाराज, कभी योगी आदित्यनाथ महाराज, कभी शंकराचार्य द्वारा साईंबाबा के हिन्दू-मुसलमान होने का विवाद और कभी गोमांस का निर्यात बन्द कर और कभी जैन पर्युषण पर्व पर बूचड़खाने और मांस बिक्री पर प्रतिबंध लगाकर एजेंडे को मरने नहीं दिया। बिहार चुनाव के बाद अब राम मंदिर और असहिष्णुता को मुद्दा बनाकर पेश कर के प्रयास किया गया। राम मंदिर चंदा के जरिए चल रहा समर्थन सर्वे हम सभी के सामने हैं ही।
पश्चिमीकरण से असुरक्षा और पहचान के निशान
सब जानते हैं कि वैश्विक उदारवाद और डिजीटल उदारवाद के इस दशक में जिला, राज्य या राष्ट्र को एक जाति, संप्रदाय या वर्ग विशेष की संर्कीर्ण दीवारों वाले बांधने की कोशिश करना बेमानी है; बावजूद इसके जातीय असुरक्षा के कारण उपजी कट्टरता के कारण, आज कई स्थानों पर उत्तर-पूर्व से लेकर गुजरात तक जातीय आन्दोलन हैं, ब्राह्मण-क्षत्रिय महासभायें हैं, आरक्षण विरोधी अनशन हैं, हिंदु-मुसलिम विरोधी नारे हैं, डी एन ए के जुमले हैं, और जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान विरोधी नारों को गतिमान रखकर, हिन्दू वोट धुव्रीकरण के छिपे एजेंडे हैं। अपनी-अपनी पहचान दिखाने के प्रयास भी कम नहीं।
पहचान के इन निशानों के लिए बेचैनी इसलामी समाज में भी बढ़ी है। पढे़-लिखे मुसलिम युवाओं में भी दाढ़ी, टोपी और ऊंचे पायजामों का चलन बढ़ा है। हो सकता है कि भारत में बाबरी मसजिद ढहाये जाने के बाद अल्पसंख्यक मन की असुरक्षा ने इस प्रवृति को हवा दी हो, किन्तु हकीकत यह है कि पश्चिमी तौर-तरीकों ने हिन्दू और मुसलमान… दोनो की पारम्परिक जीवन शैली, संस्कार और ज्ञानतन्त्र में घुसपैठ कर इन्हे जिस तरह ध्वस्त करना शुरु किया है, इससे उपजी असुरक्षा भी कट्टरता का एक बङा कारण है।
आयतुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में उभरी ईरानी कट्टरता के दौर को याद कीजिए। शिया-सुन्नी… दोनो फिरकों पर पश्चिमीकरण का आघात बराबर है। खासकर, पश्चिमी मुल्कों के खिलाफ तनी आतंकवादी हरकतों को देखिए। ब्रिटिश मुसलमान छात्र से इस्लामिक स्टेट नामक संगठन द्वारा फिदायिन बनने की अपील करता वीडियो, काबुल में नाटो काफिले पर तालीबनी हमला; सब याद करते जाइये। दुनिया के तमाम इसलामी मुल्कों में घट रही घटनाओं का समग्रता से विश्लेषण कीजिए; आप गांरटी से पायेंगे कि हिन्दू-मुसलिम दोनो की कट्टरता के कारण, भीतरी से ज्यादा बाहरी हैं।
स्पष्ट है कि मजहबी खेमों में खङे होकर मुद्दे की खाल खीचने से हल नहीं निकलेगा। निवेदन है कि यदि मजहबी कट्टरता से निजात पानी है, तो बाहरी कारणों से निजात पाने की कोशिश करनी चाहिए। लोकतन्त्र में यह संभव है। क्या हम करेंगे?
अगला भाग – धर्म और राजनीति का घालमेल – तीन
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