चिन्तन

हाशिये पर विकलांग….

 

‘वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीड़ पराई जाणे रे।
पर दुःखे उपकार करे तोये, मन अभिमाण न आणे रे।

अर्थात सच्चा वैष्णव तो वही है जो दूसरों की पीड़ा को समझता हो, दूसरे के दुःख पर जब वह उपकार करे तो अपने मन में कोई अभिमान ना आने दे। गुजराती भक्ति साहित्य की श्रेष्ठतम विभूति नरसी मेहता ने इसमें वैष्णव धर्म के सारतत्त्वों का संकलन करके अपनी अंतर्दृष्टि एवं सहज मानवीयता का परिचय दिया है। एक कथा के अनुसार वे आठ वर्ष तक गूंगे रहे और किसी कृष्ण भक्त साधु की कृपा से उन्हें वाणी का वरदान प्राप्त हुआ।

     मलिक मोहम्मद जायसी एक आँख से कुरूप थे। शेरशाह सूरी जब उनकी कुरूपता पर हँस पड़ा तो जायसी ने कहा -“मोहि का हँससि कि कोहरहि ?” अर्थात मुझ पर हँसा था या उस कुम्हार (ईश्वर) पर। इस बात से लज्जित होकर शेरशाह सूरी को जायसी से माफ़ी माँगनी पड़ी। जायसी ने अपनी विकलांगता को कोसने की बजाय उसे महिमा मंडित किया –

एक नयन कवि मुहम्मद गुनी
सोई बिमोह जेहि कवि सुनी
चाँद जैसे जग विधि औतारा
दीन्ह कलंक कीन्ह उजियारा

 जायसी की उपर्युक्त गर्व से कही गयी पंक्तियाँ विकलांगता पर पुरुषार्थ की जीत का परिणाम है।

 “जाके पाँव ना फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई”

जब तक ख़ुद को कोई पीड़ा ना हों तब तक दूसरे की पीड़ा का एहसास नही हो पाता है। मौजूदा वक्त में तुलसीदास जी की यह पंक्ति दिव्यांगों की स्थिति का सही चित्रण करती है। दिव्यांगजन समाज का एक ऐसा वर्ग है जो हाशिये पर जीते हुए दूसरों की दया, सहारे, सहायता एवं सहानुभूति पर जीने को विवश है। लोगों के मध्य वह ‘बेचारा’ कहलाने के दंश को झेलने के लिए मजबूर है। उसे मजबूत बनाने के लिए विकलांग-चिन्तन या विमर्श एक सार्थक पहल है।

     मुझे यह कहने में ज़रा भी संकोच नही है कि यह वर्ग सदियों से उपेक्षित, प्रताड़ित तथा अपमानित होता रहा है। शारीरिक और मानसिक अक्षमता इसके मन में निराशा तथा हीनता की भावना भरती रही है परन्तु फिर भी यह देखा गया है कि जो व्यक्ति शरीर के यदि किसी अंग से विकलांग होता है तो दूसरा कोई अंग उसे अवश्य सशक्त बनाता है। सूरदास, मलिक मोहम्मद जायसी, राणा सांगा, हेलन केलर, स्टीफन हॉकिन्स, सुधा चंद्रन, बाबा आम्टे तथा फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट सैकड़ों ऐसे नाम हैं जिन्होंने अपनी शारीरिक अक्षमता को भूलकर सम्पूर्ण जगत् में लोहा मनवाया है। अक्सर देखा जाता है कि शारीरिक या मानसिक रूप से ग्रसित ये लोग सामान्य लोगों की तरह नही होते हैं। जिनको अशक्त, विकलांग, विशेष योग्यजन तथा दिव्यांग आदि नामों से संबोधित किया जाता है। विकलांगता को हमारे समाज में एक अभिशाप की तरह लिया जाता है और इस कारण बचपन से ही इन बच्चों को समाज में दरकिनार किया जाता है।

     सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में दो करोड़ अड़सठ लाख व्यक्ति विकलांगता के शिकार हैं जो देश की कुल जनसंख्या का दो दशमलव दो एक प्रतिशत है। भारत सरकार ने समय-समय पर इनके उत्थान के लिए कई कानून लागू किये हैं। विकलांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकार, सुरक्षा तथा पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 दिव्यांग लोगों को शिक्षा, रोजगार तथा सामाजिक सुरक्षा प्रदान करता है तथा स्वलीनता, मस्तिष्क पक्षाघात, मंदबुद्धि और बहु- विकलांगता वाले व्यक्तियों के कल्याण के लिए राष्ट्रीय न्यास अधिनियम-1999 में विकलांगता को अंधता, कमदृष्टि, उपचारिता कुष्ठरोग, बहरापन, लोकोमोटर विकलांगता, मंदबुद्धि, मानसिक रोग, स्वलीनता तथा मस्तिष्क पक्षाघात की श्रेणियों में बांटा गया है। केंद्र सरकार ने दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के अंतर्गत दिव्यांगता को 21 श्रेणियों में बांटा है।

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विकलांगता शिखर सम्मेलन के द्वितीय संस्करण का आयोजन 6 से 8 जून 2019 के बीच अर्जेंटीना गणराज्य के ब्यूनस आयर्स शहर में किया गया। इससे पहले वर्ष 2018 में प्रथम “वैश्विक विकलांगता शिखर सम्मेलन” का आयोजन लंदन में किया गया, जिसका उद्देश्य विकलांग लोगों के पूर्ण समावेशन को सुनिश्चित करना और उनके अधिकारों, स्वतंत्रता एवं मानवीय गरिमा को सुनिश्चित करने के लिए विश्व की प्रतिबद्धता को मजबूती प्रदान करना है। विकलांगजन के लिए देश ही नही अपितु विश्वस्तर प्रयास किये जा रहे हैं जो ना काफ़ी है।

    यदि साहित्य की बात की जाए तो दिव्यांग-विमर्श हमेशा ही दिव्यांगों की तरह उपेक्षित ही रहा है। इस विषय पर बहुत ही कम चिन्तन हुआ है। यदि इस विषय पर भी साहित्यिक चिन्तन होने लगे तो दिव्यांगों में सम्यक प्रेरणा-प्रोत्साहन उत्पन्न हो सकेगा जिससे दिव्यांगजन अपनी भीतर की शक्ति को पहचान सकेंगे। महाकवि सूरदास को यदि वल्लभाचार्य ने “सूर ह्वे के काहे घिघियात हौ, कुछ भगवान भजन कर” नही कहा होता तो वे सूरसागर की रचना नही कर पाते।  ‘अष्टावक्र’ महाकाव्य की रचना जगतगुरु रामभद्राचार्य ने की। इस महाकाव्य में आठ सर्ग हैं। इस काव्य के नायक अष्टावक्र अपने शरीर के आठ अंगों से विकलांग है। महाकवि रामभद्राचार्य स्वयं भी दो मास की अल्पायु से प्रज्ञाचक्षु है। इस महाकाव्य में विकलांगों की सार्वभौमिक समस्याओं के समाधान हेतु सूत्र प्रस्तुत किए गए हैं। अमेरिकी लेखिका हेलन केलर अक्सर कहा करती थीं, ‘आंखें होते हुए भी न देख पाना दृष्टिहीन होने से कहीं ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है’ हेलन केलर : खामोश अंधेरे से शुरू हुई ऐसी दास्तान जो हमेशा के लिए उम्मीद की एक किरण बन गई

27 जून, 1880 को अमेरिका के अलाबामा प्रांत में जन्मी हेलन हमेशा से ऐसी नहीं थीं। 19 महीने की आयु में उन्हें गंभीर बुखार ने अपनी चपेट में ले लिया। डॉक्टरों ने कह दिया था कि इस बच्ची का बचना अब मुश्किल है। हालांकि उनकी यह आशंका गलत साबित हुई और हेलन बच गयीं, लेकिन इस बीमारी के चलते उनकी देखने-सुनने की शक्ति हमेशा के लिए जाती रही। अपनी आत्मकथा ‘द स्टोरी ऑफ माई लाइफ’ में हेलन लिखती हैं, “मेरे पास एक गुड़िया हुआ करती थी- नैन्सी… मेरी सारी नाराज़गी और खीज बेचारी नैन्सी पर उतरती। फिर भी मुझे नैन्सी सबसे प्यारी थी। मैं नैन्सी को एक छोटे से पालने में सुलाया करती थी। एक दिन मुझे पता चला कि मेरी छोटी बहन उस पालने में सो रही थी। आपे से बाहर होकर मैंने वो पालना पलट दिया। लेकिन वहां अचानक पहुंची मेरी माँ ने छोटी बच्ची को संभाल लिया था। यदि वे न होती तो शायद मैं अपनी बहन को मार चुकी होती।” अपनी शिक्षिका के बारे में हेलन लिखती हैं, “वह मेरी जिन्दगी का सबसे महत्वपूर्ण दिन था जब मेरी शिक्षिका एनी मैंसफील्ड सुलिवान मेरे पास आयी थीं।” हेलन आगे लिखती है कि एनी एक दिन मुझे म-ग (जग) और वॉ-ट-र (पानी) के संकेत सिखा रही थीं, लेकिन मैं बार-बार दोनों के बीच भ्रमित हो रही थीं, यह खीज मेरे भीतर ऐसी बढ़ी कि मैंने अपनी गुड़िया और कमरे का दूसरा सामान तोड़ दिया। मेरे व्यवहार से नाराज एनी मुझे कमरे से बाहर ले आयीं और एक हैडपंप से पानी निकाल कर मेरे हाथ पर डाल दिया और वॉ-ट-र का संकेत बनाया। यही वो क्षण था जब मैं समझ गयीं कि वे सारे संकेत जो एनी मेरे हाथ पर बनाती थीं, वे असल में अलग-अलग चीजों के नाम थे।

साहित्य में कई ऐसे विकलांग पात्रों का वर्णन हुआ है जैसे-श्रवण कुमार के माता-पिता, एकलव्य, कंस की दासी कुब्जा, पृथ्वीराज चौहान, राणा सांगा, कौरवों के पिता महाराज धृतराष्ट्र तथा कैकेई की दासी मंथरा आदि। इनके विकल अंगों की शक्ति अन्य अंगों को अतिरिक्त क्षमता देती है।

डॉ दामोदर मौर्य का कथन है-“कुदरत की दी हुई शारीरिक, मानसिक दुर्बलता, न्यूनता या विरूपता विकलांगता है। यह विकलांगता दुःख की जननी है लेकिन इस सत्य को स्वीकारते हुए दूर भागना कायरता है। “

    हिन्दी साहित्य में अनेक कहानियों, नाटकों तथा उपन्यासों में विकलांग पात्रों की पीड़ा को व्यक्त किया गया है। प्रेमचंद द्वारा लिखी गयी कहानी “पत्नी से पति” विकलांग विमर्श से जुड़ी कहानी है-

 अन्धे ने कहा-माता जी कुछ खाने को दीजिए। आज दिन भर से कुछ नहीं खाया।
गोदावरी-दिन भर माँगता है, तब भी तुझे खाने को नहीं मिलता?
अन्धा-क्या करूँ माता, कोई खाने को नहीं देता।
गोदावरी-इस पैसे का चबैना ले कर खा ले।
अन्धा-खा लूँगा, माता जी, भगवान् आपको खुश रखे। अब यहीं सोता हूँ।

प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि में भी अंधे सूरदास को नायक बनाया गया है। इसके अलावा इलाचंद जोशी द्वारा रचित उपन्यास “प्रेत और छाया” में अंधी माँ का चित्रण हुआ है। हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित उपन्यास “अनामदास का पोथा” में भी विकलांग-विमर्श के दर्शन होते हैं।

डॉ एस के वाजपेई का कथन है-“ज़रा सोचिए जो जन्म से विकलांग है उसका जीवन दर्शन क्या होगा? शायद शून्य जिसकी हम आप कल्पना मात्र ही कर सकते हैं। उसकी सोच, उसका व्यक्तित्व, बाधाएँ तथा लक्ष्यहीन दूसरों पर निर्भर जीवन यह एक बहुत बड़ा प्रश्नवाचक चिह्न है जिसका उत्तर खोज पाना वाक़ई एक चुनौती है। “

   सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की “रानी और कानी” शीर्षक कविता ‘कानी’ की व्यथा-कथा उभारकर करुण धारा में आह्वान के लिए विवश करती है:-

माँ उसको कहती है रानी
आदर से, जैसा है नाम;
लेकिन उसका उल्टा रूप,
चेचक के दाग़, काली, नक-चिपटी,
गंजा-सर, एक आँख कानी।
रानी अब हो गयी सयानी,
बीनती है, काँड़ती है, कूटती है, पीसती है,
डलियों के सीले अपने रूखे हाथों मीसती है,
घर बुहारती है, करकट फेंकती है,
और घड़ों भरती है पानी;
फिर भी माँ का दिल बैठा रहा,
एक चोर घर में पैठा रहा,
सोचती रहती है दिन-रात,
कानी की शादी की बात,
मन मसोसकर वह रहती है
जब पड़ोस की कोई कहती है—
“औरत की जात रानी,
ब्याह भला कैसे हो
कानी जो है वह!”
सुनकर कानी का दिल हिल गया,
काँपें कुल अंग,
दाईं आँख से
आँसू भी बह चले माँ के दुख से,
लेकिन वह बाईं आँख कानी
ज्यों-की-त्यों रह गयी रखती निगरानी।

सम्यक ललित एवं स्वप्निल तिवारी द्वारा संपादित पुस्तक “जैसा मैंने देखा तुमको” विकलांगता पर केंद्रित पचास रचनाओं का काव्य-संग्रह है:-

कभी-कभी कुछ उलझा-उलझा
कभी-कभी कुछ कहते-सुनते
कभी-कभी चुप रहते-सहते
कभी-कभी कुछ सपने बुनते
जैसा मैंने देखा तुमको
कभी-कभी पानी-सा बहते
कभी-कभी जड़ हो जाते
कभी-कभी मुसकाते हँसते
कभी-कभी दुनिया से डरते
जैसा मैंने देखा तुमको
कभी-कभी तुम कह ना पाए
कभी-कभी तुम सुन ना पाए
कभी-कभी क्या, ज्यादातर ही
हम सब धीरज धर ना पाए
कभी-कभी तुम खुद बोले तो
कभी-कभी खामोशी बोली
जैसा मैंने देखा तुमको।

 

भारतेन्दु मिश्र की विकलांगता-विमर्श की रचनाएँ:-

कौन इधर आता है
कौन उधर जाता है
अंधी आँखों का अनुमान है
लाठी ही उसका भगवान है।

     ***

जब से होश सँभाला
बस अम्मी के कन्धे पर रही
अस्पताल हो या पीरबाबा की मजार
स्कूल से घर और घर से स्कूल तक
अम्मी का कन्धा ही उसका रिक्शा बना
जब कभी अम्मी बीमार हुई उसे छुट्टी करनी पड़ी
तमाम दुआओं ताबीजों के बावजूद
अपने पैरों कभी खड़ी नही हो पायी सफिया

     ***

वील चेयर से
बास्केट बाल खेलते हुए
बच्चे खिलखिला रहे हैं
दूसरे बच्चे से छीनकर
मोहन गोल पोस्ट में
बाल डालने में सफल हुआ
अब वह खेल रहा है पूरे मन से
उसे अपनी दिव्यांगता को गढ़ा है
क्षमता के व्याकरण से
वो खुश होकर नाच रहा है
लट्टू सा अपनी वील चेयर पर
उसकी खुशी को
मानो आसमान में
कोई परिंदा बाँच रहा है।

     विकलांग-विमर्श पर बहुत अधिक साहित्य तो नही लिखा गया है परंतु फिर भी इस क्षेत्र में लेखन की व्यापक संभावनाओं को नकारा नही जा सकता है। आधुनिक समय में भारतेन्दु मिश्र, पीयूष कुमार द्विवेदी, ऋचा दीपक कर्पे, सुमित्रा महरोल, गिरीष बिल्लोरे ‘मुकुल’ आदि विकलांगता पर केंद्रित काव्य सृजन कर रहे हैं। आज विकलांग-विमर्श समय की माँग है। विकलांग-विमर्श की चेतना जिस दिन यथार्थ रूप लेगी, वास्तव में वह दिन निश्चित रूप से निःशक्तजन की सशक्तता की दिशा में एक सार्थक कदम होगा।

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सुरेश पँवार

लेखक जवाहर नवोदय विद्यालय, खैरथल,अलवर में अध्यापक हैं। सम्पर्क +917891892323, sureshpanwar0502@gmail.com
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