धर्म और राजनीति का घालमेल – एक
आशंका और आकांक्षा
एक दिन मैने अपनी बेटी से उसकी सबसे अच्छी सहपाठिन का नाम पूछा।
उसका जवाब था – ”नूर। वह मुसलमान है।”
मैं सन्न रह गया। नूर, स्कूली वर्दी में आती है। उसके शरीर पर मुसलमान होने का कोई निशान नहीं है। फिर मेरी बेटी को किसने बताया कि नूर, मुसलमान है। मैंने तो कभी नहीं बताया। क्या मुसलमान होना ही नूर की पहचान है?
दूसरी घटना तब घटी, जब मेरे स्कूल के दिनों के साथी अमरजीत जी जब पहली बार मेरी बेटी से मिले। उन्होने अपने बारे में पूछा कि वह कौन है।
बेटी ने तपाक से उत्तर दिया – सिख।
अमरजीत, हतप्रभ थे और मैं, शर्मिंदा। हम दोनों ने अपेक्षा की थी कि उसका जवाब चाचू या अंकल होगा।
उन्होने पूछा कि उसे किसने बताया। वह बोली – ”आपके सिर पर पगड़ी है न; इसने।”
हालांकि दोनो बार बिटिया ने जवाब सहज भाव से ही दिया था, किन्तु इसने मुझे दुखी किया कि उसमें भिन्नता के बीज पड़ गया है। मुझे तो आजकल साम्प्रदायिक सद्भाव के नारे लगाते भी संकोच होता है। ये नारे भी तो हमारा परिचय एक इंसान या भारतीय के रूप में न कराकर, हिन्दू-मुसलमां-सिख-ईसाई के तौर पर कराते हैं। कभी-कभी लगता है कि पाठ्यक्रमों से कौमी भिन्नता के निशानों से परिचय कराने वाले पाठों को हटा देना चाहिए। खैर, मेरी चिंता और जिज्ञासा तब और ज्यादा बढ़ जाती है, जब मुझे मेरे कई हिन्दू करीबियों की दिलचस्पी, हिन्दुओं का गौरव गान करने से ज्यादा, मुसलमानों और ईसाइयों को खतरनाक सिद्ध करने में दिखती हैं।
मेरा गाँव अमेठी के जिस इलाके में है, वहाँ मुसलिमों की आबादी कम नहीं। पीढियों से इलाके का कपडा सिलने वाले, हमारे सार्वजनिक उत्सवों उत्सवों, और शादियों में गोला-पटाखे दगाने वाले और मंदिरों के बाहर फूलमाला बेचने वाली मालिने… सब मुसलमां हैं। सब से हमारा सुख-दुख का रिश्ता है; आना-जाना है; बावजूद इसके बाबरी मसजिद विघ्वंस के बाद अपनी पहचान के निशानों के लिए उनकी बेचैनी देखकर भी मैं चिन्तित हूं।
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हिन्दूवादी संगठन भी भारत को हिन्दू राष्ट्रवाद के डंडे से हाँकने की कोशिश में इतनी शिद्दत के साथ लगे हैं, मानो हिन्दू राष्ट्र रहते हुए नेपाल ने कुदरत और दुनिया की सारी नियामतें पा ली थी या फिर हिन्दू राष्ट्र रहते हुए नेपाल में आपसी वैमनस्य को कोई आंदोलन ही नहीं हुआ। आखिर वह क्या है, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाकर नेपाल ने खोया और हिन्दू राष्ट्र होते हुए उसने हासिल कर लिया था? गौर कीजिए कि भारत में भाजपा सरकार आने के बाद से नेपाल को हिन्दू राष्ट्र बनाने की मांग को फिर हवा देने की कोशिश की गयी। सफल नहीं होने पर नाराजगी जताई गयी। नतीजा भी सामने ही है। पिछले मात्र पांच वर्षों के छोटे से राजनैतिक कालखण्ड में भारत ने नेपाल के बङे भाई का पद और हक.. दोनो खो दिया है। इस बीच एक समय ऐसा आया कि नेपाल ने भारतीय चैनलों की एक बङी संख्या का नेपाल में प्रसारण रोक दिया। इसे भारत के प्रति किस भाव की श्रेणी में रखेंगे?
दूसरी तरफ दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इतने वर्षों बाद भी पाकिस्तान और भारत आपस में क्रमशः एक मुसलमां और हिन्दू राष्ट्र की तरह ही व्यवहार कर रहे हैं। जर्मनी, रूस समेत दुनिया के कई देशों का विभाजन हुआ, किन्तु विभाजन पश्चात् आपसी सरकारों में ऐसा साम्प्रदायिक रंज किन्ही और दो देशों में नहीं। जिन्ना ने मृत्यु पूर्व भारत-पाकिस्तान के एक हो जाने की इच्छा जाहिर की थी। दोनो मुल्कों के कितने लोगों के मन में आज भी है कि दोनो मुल्कों के शासन, साम्प्रदायिक कट्टरता त्यागें। कश्मीर के मसले पर हिन्दू-मुसलमां के तरफदार होकर हल करने की जिद्द छोडें। एक दोस्त की तरह रहें। अपना ध्यान, एक-दूसरे का नुकसान करने की बजाय, तरक्की में सहयोग के लिए लगायें। इन्ही तमाम आकांक्षाओं और आशंकाओं ने मुझे हिन्दू-मुसलिम कट्टरता, मिथक और यथार्थ को जानने को प्रेरित किया। जो जाना, वह अगले लेख में।
अगला भाग – धर्म और राजनीति का घालमेल – दो
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