समाज

क्या हम कम बातें कर सकते हैं?

 

(1)

सभ्यता के बारे में यह जाना-माना सच है कि दर्शन, अध्यात्म, धर्म, विज्ञान, कला, साहित्य, अध्ययन-मनन के अन्य विविध शास्त्र, स्वतन्त्र अध्ययन-मनन आदि में गहरे डूबा व्यक्ति हमेशा कम बातें करता है। गाँधी की अवधारणा लें तो राजनीति के बारे में भी यह सच माना जा सकता है। (भारत का स्वतन्त्रता आन्दोलन इस मायने में भी शानदार था कि उसके विविध धाराओं में सक्रिय नेतृत्व ने हमेशा तौल कर बोलने का विवेक कायम रखा और बहस का एक स्तर एवं मर्यादा बनाए रखी।)

इसके साथ जिस व्यक्ति का गहरा जीवनाभुव होता है, भले ही वह पारंगत विद्वान न हो, कम से कम बातें करने वाला होता है। कोई भी विषय अथवा सन्दर्भ हो, बात में सार और ईमानदारी होना जरूरी माना गया है। कह सकते हैं सार और ईमानदारी बात की आत्मा होते हैं। तभी भाषा में बात से ज्यादा अर्थ-व्यंजक शब्द शायद ही दूसरा कोई हो।

हालाँकि, सभ्यता का सच यह भी है कि दुनिया में हर दौर में ज़बानी जमा-खर्च करने वालों की कमी नहीं रही है। बातें बनाना, बातें छोंकना, बातें चटकाना, बातों की खाना, बातों के बताशे फोड़ना, बातों से पेट भरना, बातों के पुल बनाना जैसी अनेक अभिव्यक्तियाँ इस तथ्य की पुष्टि करती हैं। ऐसे लोगों को नागर भाषा में वाचाल, लबार आदि और देहाती भाषा में बक्कू, बकवादी, बतोलेबाज़, बात फरोश, गप्पी, गड़ंकी,  गपोड़ी, लफ्फाज़, हांकने वाले, फेंकने वाले आदि कहा जाता है। इनके बारे में नागर और देहाती दोनों समाजों में कतिपय अश्लील अभिव्यक्तियाँ भी प्रचलित हैं। हर मामले में टांग अड़ाने की आदत के बावजूद, ऐसे लोगों को बात-चीत में गंभीरता से नहीं लिया जाता। सभ्यता ने अपने बचाव में यह पेशबंदी की हुई है।   

ज़बानी जमा-खर्च करने वाले लोगों में कोई कुदरती कमी नहीं होती। उनकी कमजोरी इंसानी ही होती है। विभिन्न (मल्टीप्ल) सामाजिक-मनोवैज्ञानिक कारणों के चलते ऐसे लोग खोखलेपन को ही सद्गुण (वर्च्यू) मान लेते हैं। आचार्य नरेंद्र देव ने संस्कृति को चित्त की खेती कहा है। चित्त की समुचित और सतत निराई-डसाई होती है, तो वह हरा-भरा रहता है। यानी संस्कृति फलती-फूलती है। ज़बानी जमा-खर्च करने वाले लोगों का समस्त जीवन-रस (इसेंस ऑफ़ लाइफ) जबान की प्यास बुझाने में ही खप जाता है, और चित्त की खेती सूखी रह जाती है। चित्त से असम्बद्ध ज़बान कुछ भी बोलने के लिए हमेशा लपलपाती रहती है। वे सम्पूर्ण ‘निष्ठा’ के साथ ज़बानी जमा-खर्च में जुटे रहते हैं।

ऐसे लोग प्रत्येक मौके को अनुष्ठान (इवेंट) बना देने में माहिर हो जाते हैं। क्योंकि अनुष्ठानवाद खोखलापन भरने का साधन बन जाता है। वे खुद से ही प्रतिस्पर्धा करने लगते हैं कि जितना भारी-भरकम अनुष्ठान करेंगे उतना ही उनकी ‘महानता’ में चार चाँद लगेंगे। इस तरह वे ‘महान सभ्यता’ और ‘महान संस्कृति’ की एक अपनी ही दुनिया रच लेते हैं। मनोवेत्ता यह शोध कर सकते हैं कि सभ्यता-विमर्श से बाहर रखे गये ऐसे लोगों का क्या यह सभ्यता से बदला होता है?    

आधुनिक युग के पूर्व तक केवल थोथी बातें करने वालों का सभ्यता-विमर्श के केन्द्र में आना असम्भव होता था। ‘थोथा चना बाजे घना’, ‘अधजल गगरी छलकत जाए’ जैसी उक्तियों से पता चलता है कि समाज में ज्ञान के अधकचरेपन की पहचान का विवेक भी बराबर काम करता था। विद्वता उत्तराधिकार में या प्रचार से नहीं मिल सकती थी।यहाँ तक कि राजसत्ता के क्षेत्र में उत्तराधिकार के चलते कोई ‘बातों का बादशाह’ सत्ता के शीर्ष पर आ जाता था, तो जनमानस उसकी सनकों का शिकार होने के बावजूद उसे मन से स्वीकृति नहीं देता था। राजाओं के बारे में यह स्थिति थी, तो विद्वानों की कड़ी कसौटी के बारे में समझा जा सकता है।

(2)

आधुनिक युग में लोकतन्त्र के चलते राजनीतिक सत्ता पर दावेदारी के साथ ज्ञान की सत्ता पर दावेदारी भी सार्वजनिक हुई।लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में राजनीतिक सत्ता पर दावेदारी के संघर्ष में भाषण की कला का महत्व बढ़ गया। भाषण के साथ कुछ न कुछ अतिशयोक्ति जुड़ी रहती है। लेकिन कोरी लफ्फाजी ज्यादा देर नहीं चल पाती। सच्चे नेतृत्व की पहचान का आधार संयमित और सार्थक वक्तृता माना जाता है। अगर बात संयमित और सार्थक है, तो भाषण-कला कमजोर होने पर भी सच्चा नेतृत्व पहचान लिया जाता है।

इस कसौटी के बावजूद असत्य, अन्धविश्वास और घृणा परोसने वाले भाषणबाज़ भी लोकप्रिय होते  हैं। सार्वजनिक जीवन के किसी पड़ाव पर किसी नेता और उसके संगठन द्वारा फैलाए गये असत्य, अन्धविश्वास और घृणा समाज में स्वीकृति पाते हैं, तो उसकी ज़िम्मेदारी अकेले उस नेता और संगठन की नहीं होती। असत्य, अन्धविश्वास और घृणा का पेटेंट भले ही नेता और संगठन का अपना होता है, जिस समाज में असत्य, अन्धविश्वास और घृणा स्वीकृति पाते है, वह समाज सबका साझा होता है। दूसरे शब्दों में, असत्य, अन्धविश्वास और घृणा समाज में बड़े पैमाने पर तभी स्वीकृत होते हैं, जब सत्य, तर्क और प्रेम का दावेदार नेतृत्व (राजनीतिक और बौद्धिक दोनों) लम्बे समय तक और बड़े पैमाने पर अपनी बातों में मिलावट अथवा धोखा करता रहा हो।

असत्य, अन्धविश्वास और घृणा फ़ैलाने वाले नेता/संगठन की लोकप्रियता के पीछे तात्कालिक निहित स्वार्थों की भूमिका जरूर हो सकती है, लेकिन वह गौण भूमिका होती है। उदाहरण के लिए नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के अचानक ‘उत्थान’ के पीछे निहित स्वार्थों, यानी अम्बानी-अडानी की भूमिका गौण है; प्रमुख भूमिका उस प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व की है, जिसने भारतीय संविधान का खुला उल्लंघन करते हुए मेहनतकश किन्तु गरीब/लाचार जनता की छाती पर अम्बानी-अडानी का साम्राज्य खड़ा किया। ध्यान दिया जा सकता है कि नयी आर्थिक नीतियों के विरोध में उठ खड़े हुए देशव्यापी आन्दोलन को विनष्ट करने में आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की भूमिका ज्यादा नहीं रही है; असली भूमिका प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व की है।हमारे संविधान के केंद्र में सामाजिक ...

चर्चा को थोड़ा और बढ़ाएं तो देख सकते हैं कि आज़ादी के समय से ही भारतीय संविधान का विरोध लगातार आरएसएस/जनसंघ ने ही नहीं किया है, कम्युनिस्टों ने भी किया है। कम्युनिस्ट नेतृत्व के लिए आज भी भारतीय संविधान और उस पर आधारित बहुदलीय संसदीय लोकतन्त्र में हिस्सेदारी स्वाभाविक स्थति नहीं है। समाज को शिक्षित और जागरूक बनाने वाली शिक्षा के स्वरूप, माध्यम, ढांचे (इंफ्रास्ट्रक्चर) और उपलब्धता की व्यवस्था का काम आरएसएस/भाजपा ने नहीं किया है। असमान और बहुपरती शिक्षा की व्यवस्था आरएसएस/भाजपा की देन नहीं है। शिक्षा और शासन के माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं की जगह अंग्रेजी थोपने का काम आरएसएस/भाजपा का नहीं है।

इस समय देश में बड़े पैमाने पर फैले निजी स्कूल/संस्थान/कॉलेज/यूनिवर्सिटी भी अकेले आरएसएस/भाजपा की बदौलत नहीं स्थापित हुए हैं। आरएसएस/भाजपा शिक्षा का भगवाकरण करते हैं। धर्मनिरपेक्ष सरकार आने पर भगवाकरण के प्रयास निरस्त किए जा सकते हैं। शिक्षा का निजीकरण-व्यावसायीकरण (प्राइवेटाइजेशन-कमर्शियलाईजेशन) असली समस्या है। सैद्धांतिक और नीतिगत विषयों की यह सूची काफी लंबी हो सकती है। प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व ने सैद्धांतिक और नीतिगत मामलों के अलावा विभिन्न सरकारी संस्थाओं के संचालन सम्बन्धी मामलों में भी निष्पक्ष भूमिका नहीं निभायी है।

इस खेमे की फासीवाद-विरोध की आवाज़ खोखली साबित होती है, क्योंकि आरएसएस/भाजपा का हिन्दू-राष्ट्र धर्मनिरपेक्षता के चोर-बाज़ार में ढलता है। हाल का उदाहरण लें तो देख सकते हैं कि आम आदमी पार्टी (आप) ने दिल्ली विधानसभा का चुनाव भाजपा के मुकाबले नवउदारवाद और साम्प्रदायिकता का ‘सही’ अनुपात बैठा कर जीत लिया। प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष खेमे ने पूरी ताक़त लगा कर मुसलमानों के कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों के हिस्से के वोट एकमुश्त आप के पक्ष में डलवा दिए।

मुसलामानों को दंगे मिले और जेल के साथ कोर्ट-कचहरी के चक्कर। बार-बार जिस कपिल शर्मा को उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगे भड़काने का मुख्य आरोपी बताया जाता है, वह पिछली विधानसभा में आप का विधायक था और चुनाव के ऐन पहले भाजपा में शामिल हुआ था। लेकिन एक भी धर्मनिरपेक्ष पत्रकार या एक्टिविस्ट इस सच्चाई का उल्लेख नहीं करता। कोरोना महामारी नहीं आती तो दिल्ली सरकार के सौजन्य से दिल्ली का वातावरण ‘सुंदर काण्ड’ के हवन-प्रवचन से ‘पवित्र’ हो रहा होता।          हिंदू राष्ट्र के सपने को लेकर बना था ...      

आरएसएस 1925 से हिन्दू-राष्ट्र के झूठ का पीछा कर रहा था, लेकिन भारत की जनता ने न स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौर में, न स्वतन्त्रता मिलने के बाद उसका साथ दिया। देहात में शाखा लगने का कोई सवाल ही नहीं था। आरएसएस की राजनीतिक भुजा जनसंघ/भाजपा को राजनीतिक प्रक्रिया में संवैधानिक मूल्यों और प्रावधानों का पालन करना होता था। कम से कम भाजपा के वाजपेयी-युग तक यह स्थिति बनी हुई थी। आजकल तीव्र आशंका जताई जाती है कि मोदी संविधान बदल देंगे। यह हो सकता है कि इस पारी के अंत तक या अगली पारी की शुरुआत में मोदी संविधान से धर्मनिरपेक्षता शब्द हटा दें; यह कहते हुए कि हिन्दू स्वभावत: धर्मनिरपेक्ष होता है; कि यह शब्द संविधान की प्रवेशिका में इंदिरा सरकार ने बाद में जोड़ा था।

लेकिन इस शब्द के साथ भी मोदी की भाजपा देश को हिन्दू-राष्ट्र की तर्ज़ पर चलाती रह सकती है। जैसे संविधान की प्रवेशिका में उल्लिखित समाजवाद शब्द और मूल चेतना (बेसिक स्पिरिट) में निहित समाजवादी विचारधारा के बावजूद 1991 में देश को पूँजीवाद के रास्ते पर डाल दिया गया था। इस फैसले के तहत जब देश के अधिसंख्य नागरिकों से बराबरी का अधिकार हमेशा के लिए छीन लिया गया, तो वे कोरे हिन्दू और कोरे मुसलमान रह गये। कहने का आशय यह है कि संवैधानिक ‘समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतन्त्र’ एक पूरा पैकेज है। एक की बलि देकर दूसरे को नहीं बचाया जा सकता। नरेंद्र मोदी की उग्र साम्प्रदायिकता देश में चलने वाले उग्र और कुत्सित (शैबी) पूँजीवाद का उपोत्पाद (बाईप्रोडक्ट) है।  

बहरहाल, समाज में असत्य, अन्धविश्वास और घृणा की अचानक प्रतिष्ठा का एक कारण मुकाबले में औसत दर्जे (मीडियोकर) या औसत दर्जे से नीचे (बिलो मीडियोकर) का नेतृत्व भी होता है। इस सन्दर्भ में भारत की वर्तमान स्थिति साफ़ है।यहाँ प्रतिस्पर्धा नवउदारवाद के समर्थकों के बीच है, जिनमें प्रछन्न नवउदारवादी भी शामिल हैं। नवउदारवाद का विरोधी नेतृत्व प्रतिस्पर्धा से बाहर रखा जाता है, क्योंकि वह प्रतिस्पर्धा की मूल शर्त (नवउदारवाद के दायरे में खेलना) को पूरा नहीं करता। नवउदारवादी दायरे में सक्रिय राजनीतिक और बौद्धिक प्रतिस्पर्धियों का बोदापन किसी से छिपा नहीं है। यह स्थति दर्शाती है कि दरपेश चुनौती के समक्ष भारत का राजनीतिक और बौद्धिक नेतृत्व उत्तरोत्तर मीडियोकर होता गया है।Trump, Putin, Erdogan: The Year of the Autocrat

इस दशा (प्रीडिकेमेंट) पर विस्तृत विवेचना के लिए किशन पटनायक की पुस्तक ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ देखी जा सकती है। दुनिया के स्तर पर भी इसके कुछ उदाहारण देखे जा सकते हैं। डोनाल्ड ट्रम्प (अमेरिका), पुतिन (रूस), एरदोगन (टर्की) आदि की लोकप्रियता के पीछे एक गौण कारण उनके मुकाबले में मीडियोकर नेतृत्व का होना भी है। अमेरिका में पिछली बार बर्नी सेंडर्स अपनी ही पार्टी में हिलेरी क्लिंटन से परास्त हो गये थे और इस बार जो बिडन से। हिटलर और मुसोलिनी के उत्थान के जटिल कारणों में एक यह भी था कि चर्चिल, स्टालिन और रूज़वेल्ट बड़े पाए के नेता नहीं थे। उनके मुकाबले गुलाम भारत के गाँधी का कद कहीं ज्यादा ऊंचा था। बल्कि गाँधी, जो मानवता के स्टेट्समैन थे, ने राजनीति में स्टेट्समैनशिप की अवधारणा ही बदल दी थी।   

(3)

सार्वजनिक जीवन में असत्य, अन्धविश्वास और घृणा के उछाल को कोई तात्कालिक घटना आधार प्रदान करती है। आइए इस बारे में थोड़ा विचार करें। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) काल में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में नवसाम्राज्यवाद की जड़ें ज़माने का काम बिना बातें किए चुपचाप चल रहा था। कुछ मुखर नागरिक समाज एक्टिविस्ट्स नवउदारवाद की मार से बदहाल गरीब भारत के लिए कुछ रियायतें मांगने में सफल होते थे। उसे सुधारों को मानवीय चेहरा प्रदान करना कहा जाता था। उस दौर को भारत में नवसाम्राज्यवाद के अवतरण का चुप्पा-युग कह सकते हैं। उनके पहले अटलबिहारी वाजपेयी का दौर भी लगभग चुप्पा ही था। उनके शासनकाल में बिना संसद में बहस कराए एक के बाद एक अध्यादेशों के ज़रिए देश की सम्प्रभुता गिरवीं रखी जा रही थी। उस समय तक देश की सम्प्रभुता को गिरवीं रखने के खिलाफ एक प्रतिबद्ध आन्दोलन सक्रिय था।

देश के अलग-अलग हिस्सों और अलग-अलग मुद्दों पर होने वाले उस आन्दोलन का स्वरूप फुटकर था।सम्भावना जताई जा रही थी कि वह फुटकर आन्दोलन जल्द ही राजनैतिक रूप से एकताबद्ध (इंटीग्रेटेड) होकर बढ़ते नवसाम्राज्यवादी शिकंजे को तोड़ कर देश की स्वतन्त्रता, सम्प्रभुता और स्वावलम्बन को बहाल करेगा। वाजपेयी सरकार के अलोकतान्त्रिक फैसलों पर कड़े सवाल उठाए जाते थे। सवाल उठाने पर वाजपेयी चेंक कर कहते थे, ‘कोई माई का लाल भारत को नहीं खरीद सकता!’ राष्ट्र-भक्ति और स्वदेशी की बढ़-चढ़ कर बात करने वाला आरएसएस अध्यादेशों के ज़रिए  लादी जाने वाली नवसाम्राज्यवादी गुलामी पर चुप्पी साध लेता था।

दरअसल, वाजपेयी 1991 में नयी आर्थिक नीतियाँ लागू किए जाने पर कह चुके थे कि कांग्रेस ने उनका (आरएसएस-भाजपा का) काम (पूँजीवादी अर्थव्यवस्था लागू करना) हाथ में ले लिया है। ध्यान कर सकते हैं कि अन्यथा भाषण-प्रिय वाजपेयी की रुची उन दिनों अचानक भाषण के बजाय ‘चिन्तन’ में बढ़ गयी थी। देश के ज्यादातर बुद्धिजीवियों ने 1991 से ही चुप्पी साधी हुई थी। जैसा कि किशन पटनायक ने कहा है, भारत में अंग्रेजी बोलने-लिखने वाले ही बुद्धिजीवी होते हैं। ये बुद्धिजीवी आज तक यह मानने को तैयार नहीं हैं कि आज़ादी के संघर्ष और संविधान के मूल्यों का उल्लंघन कर देश नवसाम्राज्यवाद की गिरफ्त में आ चुका है, जिसका मूलभूत कारण 1991 में लागू की गयीं नयी आर्थिक नीतियाँ हैं।1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के ...

तीन दशक बाद यह बताने की जरूरत नहीं कि 1991 में जिस भारत पर आर्थिक संकट बताया गया था, वह मिश्रित अर्थव्यवस्था के तहत सशक्त हुआ अमीर भारत था। वरना रोज कुआं खोद कर पानी पीने वाली अधिकांश भारतीय जनता को विदेशी मुद्रा भण्डार घटने या बढ़ने से क्या फर्क पड़ने वाला था? सुधारों का मकसद और दिशा स्पष्ट थे : तब तक के अमीर भारत को आगे निगम भारत (कॉर्पोरेट इण्डिया) में विकसित करना। कोरोना काल में सारी दुनिया देख चुकी है कि निगम भारत को बनाने और चलाने में जुटे गरीब भारत की क्या दुर्दशा हो चुकी है!    

नवसाम्राज्यवाद की अगवानी में समर्पित लम्बे चुप्पा-युग के गर्भ से अचानक भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के रूप में एक लबार-युग का विस्फोट होता है। देश की ख्यातनाम विभूतियाँजन्तर-मन्तर और रामलीला मैदान पर आयोजित मजमे में भाषण करने के लिए बेताब हो उठतीं हैं। रातों-रात पूरे देश में जन्तर-मन्तर और रामलीला मैदान खड़े कर दिए जाते हैं। निगम भारत के नागरिक गण बच्चो-कच्चों को लेकर इण्डिया गेट से क्नॉट प्लेस तक ‘प्रभात फेरी’ लगाते हैं। कारपोरेट घरानों के साथ आरएसएस आन्दोलन का पूरा साथ देता है। मीडिया एकजुट होकर आन्दोलन को हाथों-हाथ लेता है। देश में चौतरफा बातों की बाढ़ आ जाती है। बातें भी ऐसी-ऐसी जो न उठाई जाएँ न धरी जाएँ!

आन्दोलन की एक स्तम्भ किरण बेदी ने अन्ना हजारे को बड़ा और अरविंद केजरीवाल को छोटा गाँधी घोषित करते हुए ऐलान कर दिया कि बाबा रामदेव और श्रीश्री रविशंकर दो फ़कीर हैं, जो देश का भला करने निकले हैं। उत्तेजना और उतावलापन इतना अधिक था कि बात भ्रष्टाचार-विरोध तक सीमित न रह कर दूसरी-तीसरी क्रान्ति तक जा पहुँची।’क्रान्ति’ के लिए रातों-रात आम आदमी की नयी पार्टी के गठन की घोषणा हो गयी। देश का प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष तबका पार्टी और उसके नेता के साथ एकजुट हो गया और आम आदमी के नाम पर धड़ाधड़ जबान साफ़ करने लगा। एक वरिष्ठ और प्रतिष्ठित पत्रकार ने कहा, ‘भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की राख से आम आदमी पार्टी पैदा हुई है; अब पीछे मुड़ कर नहीं देखना है’।

बातों का ऐसा बाज़ार सजा कि गाँधी के आखिरी आदमी को ‘गायब’ कर, निगम भारत के देश-विदेश में फैले प्रोफेशनलों/अधिकारियों/व्यापारियों को आम आदमी के रूप में स्थापित कर दिया गया। इस पूरी प्रक्रिया में ईमानदारी और सादगी के ठेकेदारों ने प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह को बेईमान के रूप में बदनाम करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी। जबकि उनके जैसा ईमानदार और सादगीपूर्ण जीवन जीने वाला प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री के अलावा अन्य कोई नहीं हुआ। मनमोहन सिंह ईमानदार नयी आर्थिक नीतियों को लेकर भी थे। उन्होंने कभी यह मिथ्या प्रचार नहीं किया कि वे किसान/मजदूरों/बेरोजगारों के लिए अच्छे दिन लाने वाले हैं। उन्होंने चुनौती खुली रखी – देश को आर्थिक संकट से बचाने के लिए किसी के पास नयी आर्थिक नीतियों से अलग कोई विकल्प हो तो बताएँ।      lockdown

आन्दोलन के प्रथम पुरुष ने गुजरात मॉडल के प्रणेता नरेंद्र मोदी की खास तौर पर प्रशंसा की। विनम्र मोदी ने ख़त लिख कर आभार जताया, और दुश्मनों से सावधान रहने की हिदायत दी। नरेंद्र मोदी पहले से बातों के बादशाह थे, लेकिन गुजरात में ही छटपटा कर रह जा रहे थे। राष्ट्रीय स्तर पर बातों की बिसात बिछ गयी तो उन्हें कोई रोकने वाला नहीं था। क्योंकि उनके फेंकना शुरू करने से पहले माहौल और मैदान तैयार हो चुका था। (भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन द्वारा निर्मित आधार नहीं मिलता तो हो सकता है नरेंद्र मोदी अंतत: गुजरात में ही छटपटा कर दम तोड़ देते, और देश के अगले प्रधानमन्त्री लालकृष्ण अडवाणी या तीसरी शक्ति का कोई नेता होता।)

मोदी ने खुद को कारपोरेट घरानों के हवाले करके पार्टी के प्रधानमन्त्री पद की उम्मीदवारी के अखाड़े में अडवाणी को शिकस्त दी और तैयार मैदान में आ डटे। सुधारों के मानवीय चेहरे की बात करने वाली कांग्रेस आगे के लिए कारपोरेट के काम की नहीं रह गयी थी। उधर कारपोरेट केजरीवाल को भी टिटकारी दिए हुए था। प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष खेमें की हालत देखिए, एक तत्काल बनाई गयी पार्टी के नेता को मोदी की काट बता कर पेश किया जाने लगा। वे जनता को बताने लगे कि मोदी के मुकाबले केजरीवाल की रेटिंग विदेशों में भी ऊपर चल रही है! केजरीवाल ने प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष खेमें की मदद से बनारस में मोदी को दोहरी जीत का तोहफा भेंट कर ‘छोटे मोदी’ का खिताब झटक लिया।  भारतीय कारपोरेट के चेहरे।

यह थोड़ा ब्यौरा इसलिए दिया गया है ताकि जान लें कि मोदी के राष्ट्रीय पटल पर आने से पहले सत्य, तर्क और प्रेम का दावेदार प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष खेमा कितनी ‘सच्ची’ और ‘तार्किक’ बातें कर रहा था। उनमें से आज तक एक ने भी खेद का एक वाक्य नहीं कहा है। इसके दो ही कारण सकते हैं : या तो ये लोग समझते हैं जनता उनके धोखे को नहीं पकड़ सकती; या परम ज्ञानी होने के नाते जनता के साथ धोखा करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। तब से अब तक गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है, मोदी बात-बात पर बातों का बाज़ार सजाते हैं। उनका विरोधी खेमा कभी उपहास उड़ाता है, कभी कटाक्ष करता है, कभी चुटकुले बनाता है, कभी नारे बनाता है, कभी कार्टून बनाता है, कभी धिक्कारता है। मोदी के लोकतन्त्र विरोधी फासीवादी हथकंडों पर लेख लिखता है। इस जुगलबंदी में निगम भारत के निर्माण की गति तेज़ होती जाती है।    

(4)

भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की समीक्षा के दौरान मैंने लिखा था कि स्वतन्त्रता संघर्ष के नेताओं का लेखन  (राइटिंग्स) सामने नहीं होता, तो आने वाली पीढ़ियाँ यही समझतीं कि देश के संसाधनों और श्रम को कारपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बेच कर बातें बनाते जाना ही नेता का सबसे बड़ा काम होता है! कोरोना महामारी एक अवसर हो सकता था कि बातों की बीमारी से बाहर आया जाए। लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि असत्य, अन्धविश्वास और घृणा आगे और महामारी पीछे चल रही है। 6 महीने बीत जाने के बाद भी देश में कोरोना महामारी से जुड़े समस्त पहलुओं को लेकर जितने मुँह उतनी बातें हैं। महामारी के बीच लद्दाख क्षेत्र में चीन के साथ सीमा-विवाद हो गया। झड़प में भारत के 20 सैनिक शहीद हो गये। राजनीति की मोदी-शैली के तहत सीमा-विवाद और सैनिकों की शहादत भाषण का मौका बन गये।

मौजूदा सत्ता-प्रतिष्ठान यह प्रवृत्ति (ट्रेंड) जारी रखना चाहेगा, ताकि उसकी सत्ता और यह अन्यायपूर्ण व्यवस्था चलती रहे। इतिहास की गवाही के मुताबिक असत्य, अन्धविश्वास और घृणा पर टिकी व्यवस्था देर-सवेर धराशायी होती है। ऐसा जल्दी भी हो सकता है, बशर्ते मोदी-विरोधी खेमे की तरफ से कम बातें की जाएँ। यह कोई आसान काम नहीं है। कम बातें होंगी तो प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व यह समझ पाएगा कि संवैधानिक मूल्य उसका प्राथमिक सरोकार नहीं हैं। उसका प्राथमिक सरोकार अपने प्रति है।वर्तमान हालात में 'फासीवाद विरोधी ...

उसने फासीवाद-विरोध की अपनी एक दुनिया रच ली है, जिसे बचाने के उद्यम में वह लगा रहता है। इस दुनिया में वह आश्वस्त रहता है कि वह कभी गलत नहीं हो सकता। एक तरफ मोदी की दुनिया है, दूसरी तरफ इनकी दुनिया है। इन दो दुनियाओं की टकराहट में निगम भारत की ताकत बनती जाती है। आज मोदी का पलड़ा भारी है, तो  निगम भारत में असत्य, अन्धविश्वास और घृणा का पलड़ा भारी है। कल संविधान का पलड़ा भारी होगा, तो भारत में सत्य, तर्क और प्रेम का पलड़ा भारी हो जाएगा। आरएसएस/भाजपा की भी एक भूमिका हो सकती है। अगर वहां कुछ ऐसे लोग हैं, जो इस स्थिति को समाज और देश के लिए सही नहीं मानते, वे अपनी बात कहना शुरू करें।

.

Show More

प्रेम सिंह

लेखक समाजवादी आन्दोलन से जुड़े  हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक तथा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो हैं।  सम्पर्क- +918826275067, drpremsingh8@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x