19 वीं सदी में, अँग्रेजों के समय प्रश्न था, क्या चाहिए – आधुनिकता या स्वतन्त्रता? आज पूछा जाता है, क्या चाहिए – राष्ट्र की सुरक्षा या स्वतन्त्रता? स्त्रियों के आगे भी सवाल होता है, क्या चाहिए – सुरक्षा या स्वतन्त्रता? दरअसल हर युग में स्वतन्त्रता ही दाँव पर लगाई जाती रही है।
कोई व्यवस्था स्वतन्त्रता को अच्छी दृष्टि से नहीं देखती, जबकि खासकर आज का व्यक्ति जितना स्वतन्त्र है, हमेशा उससे ज्यादा स्वतन्त्रता चाहता है। वह स्वातंत्र्य-प्रेमी होता है, क्योंकि स्वप्न देखता है। उसमें जिज्ञासा होती है, अधिकारों का ज्ञान होता रहता है। भारत के लोगों ने लगभग 125 साल तक लगातार एक न एक रूप में स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष किया है, तब जाकर आजादी मिली है।
एक नया भारत वह था, जिसकी 1947 में आजादी और 1950 में गणतन्त्र की घोषणा के साथ नींव पड़ी थी। भारत के सपनों का ऐसा संविधान अस्तित्व में आया था जो स्वतन्त्रता संग्रामियों के सपनों की मिट्टी से बना था। लेकिन पिछले 25 सालों में संविधान और यथार्थ के बीच फर्क बढ़ता गया। हर आर्थिक वृद्धि ने इनके बीच फर्क को एक नया स्तर दे दिया। इसलिए आज के नये भारत में सेकुलर, जातिनिरपेक्ष, न्यायपूर्ण और अन्य मानवीय चीजें वस्तुतः कितनी बची हैं, यह सोचने का विषय है। यह भी एक अहम सवाल है, आज के लोगों में अपनी स्वतन्त्रता को बचाने की कितनी इच्छा है?
भारत जब गुलाम था, औपनिवेशिक दमन के बावजूद अँग्रेज बौद्धिक स्वतन्त्रता को मिटा नहीं पाए थे। लोग अन्याय को अन्याय और अत्याचार को अत्याचार बोलते थे। आज देश आजाद है पर आज की श्रम-संस्कृति में लोग खाते-पीते गुलाम हैं। गम्भीर मौकों पर सबकी अपनी-अपनी चुप्पियाँ होती हैं। लोगों के सामने सवाल होता है, क्या चाहिए- सुख-सुविधा या स्वतन्त्रता?
इधर सुख मूल्यबोध में दीमक की तरह घुसा है। वैश्वीकरण के युग में देखा जा सकता है कि बाजार व्यवस्था ने तरह-तरह की उपभोक्ता वस्तुओं से परिचित कराया है जो नये-नये अवतार में आती रहती हैं। यह सही है कि आज पहले से ज्यादा संख्या में लोग अभाव के वृत्त से बाहर आकर स्वाधीनता और बेहतर जीवन का मजा ले रहे हैं। कई पुरानी रूढ़ियाँ टूटी हैं। अब खुलकर प्रेम करना सम्भव है, भले कुछ जगहों पर नैतिक अभिभावक लाठी लेकर घूमने से बाज न आते हों। फूड के विकल्प बढ़े हैं। पहले से मध्यवर्ग का अधिक विस्तार हुआ है, जिससे लोकतन्त्र पर चर्चा का परिसर बढ़ा है। बड़ी संख्या में नये शहर अस्तित्व में आये हैं और महानगरों का विस्तार हुआ है। शहरों में मॉल और मल्टीप्लेक्स स्वाधीनता के नये रूपक रचते हैं। यह भी एक यथार्थ है कि इन जगहों पर घूम रहे लोगों की सुखविभोरता इतनी ज्यादा है कि उन्हें कृषकों और छोटे व्यापारियों के उजड़ने का जरा भी शोक नहीं होता। उनकी संवेदनहीनता ने स्वतन्त्रता के अर्थ को सीमित कर दिया है। वे एक ही चीज देखते हैं- ‘अपना होना सीखो’। वे अपने से बाहर नहीं सोचते, भले देशभक्त हों।
कोई समाज हमेशा आपस में मिलने-जुलने से बनता है। दूसरे के स्नेह-स्पर्श से, हाथ मिलाने से, गले मिलने से, संवाद और खेलने-कूदने से बनता है। अब जिसे देखो मोबाइल में डूबा है। अधिकांश की रुचि समाचारों से ज्यादा वीडियो गेम में है, फेसबुक में है। अब छोटी सभाएँ, गोष्ठियाँ कम हो गयी है। ये सब समाज की नींव कमजोर करने वाली चीजें हैं। स्नेह-स्पर्श का आलम यह है कि पिछले साल बेंगलुरु से थोड़ी दूर एक दलित युवक को जूते से इसलिए पीटा गया कि उसने एक सवर्ण का मोटर बाइक छू दिया था। मध्य प्रदेश के गुना जिले में एक कृषक दंपति को उसके बच्चों के सामने मारा-पीटा गया। दंपति ने कीटनाशक खाकर आत्महत्या की कोशिश की। जहाँ देखो, एक दबंग आवाज है – देख लेंगे तुमको! अब अत्याचार करने के बाद नया चलन है, पीड़ित को ही अपराधी घोषित करना। शिक्षा से स्मार्ट हुआ है आदमी और पैसे से दबंग। कहना होगा, स्वतन्त्रता के अनुभव के लिए भयमुक्त भारत चाहिए।
क्या हमारा समाज कभी प्रेमचन्द की कहानी ‘गुल्ली दण्डा’ के उस छंद में कभी लौटेगा, जहाँ एक इंजीनियर अपने दलित दोस्त गया के पास आता है, साथ खेलता है, और कहता है, ‘तुम्हारा एक दाँव हमारे ऊपर है, वह आज ले लो’। हालांकि शिक्षा ने इन दोनों के बीच दूरी बढ़ा दी थी। नये युग में गया बोलने लगा है तो उसपर जूते पड़ रहे हैं, यह है स्वतन्त्रता एक का चेहरा।
आज स्वाधीनता की धारणा उन दिनों की स्वाधीनता की धारणा से भिन्न है, जब ज्ञान और बुद्धि स्वाधीनता की राह दिखाते थे। अभी ज्ञान की जगह टेक्नोलॉजी है और बुद्धि की जगह उपभोक्ता वस्तुएँ है। स्वतन्त्रता एक मायावी स्वर्ण हिरण बन गयी है जिसके पीछे सब दौड़ रहे हैं। एक समय स्वाधीनता की चिन्ताएँ स्त्रियों और दलितों की मुक्ति, बौद्धिक स्वतन्त्रता, सहिष्णुता, समानता, सदाचार और अहिंसा से जुड़ी हुई थीं। आखिर एक दिन आधी रात को नियति से मुठभेड़ करते हुए स्वाधीनता इस वादे के साथ आयी थी कि हजारों आँखों से आँसू पोछना है, पर धीरे-धीरे लक्ष्य हो गया –आँखों में रंगीन धूल झोंकना।
आज के दौर के स्वाधीनता का भोग कर रहे लोगों को वस्तुत: न ‘राष्ट्र’ से मतलब है और न ‘अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ से। उनकी नजरों में राष्ट्र उपभोग की वस्तु है और स्वतन्त्रता का अर्थ है जिसमें फायदा है उसे चुनने की स्वतन्त्रता। कहना न होगा कि विश्व बाजार और उपभोक्तावाद स्वतन्त्रता की जो धारणाएँ दे रहे हैं उनमें स्वतन्त्रता के शत्रु बैठे हुए हैं।
धर्म, जाति, प्रान्तीयता के आधार पर – सामुदायिक कट्टरवाद से प्रेरित होकर जो महाविमर्श या विमर्श चल रहे हैं, उनमें भी स्वतन्त्रता के शत्रु छिपे हैं। इन सभी में सिर्फ अपने या अपने समुदाय के लिए स्वतन्त्रता की भूख है, सबके लिए स्वतन्त्रता की चेतना नहीं। नतीजतन लम्बे संघर्षों से अर्जित राष्ट्रीय और मानवीय मूल्य जर्जर हो गये हैं और आम लोगों की स्वतन्त्रता वस्तुतः सिकुड़ गयी है।
संस्कृति स्वतन्त्रता के अर्थ को नियन्त्रित करने वाला एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। संस्कृति के अर्थ में काट-छांट स्वतन्त्रता के अर्थ को सीमित कर देती है, इसे वस्तुतः नकारात्मक बना देती है। एक ही देश में एक नागरिक दूसरे नागरिक को ‘दूसरे’, ‘बाहरी’ और ‘शत्रु’ के रूप में देखता है और उसकी स्वतन्त्रता छीन लेना चाहता है। सांस्कृतिक उदारवाद स्वतन्त्रता का विस्तार करता है, जबकि सांस्कृतिक कट्टरवाद स्वतन्त्रता में गिरावट लाता है। भारतीय समाज में जब-जब धार्मिक कट्टरतावाद बढ़ा है स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों और नौजवानों की स्वतन्त्रता में ह्रास आया है। जब-जब सामूहिक स्मृतियों का एकायामी प्रतीकीकरण हुआ है, हमारा राष्ट्रीय आत्मपरिचय दूषित हुआ है।
पिछले कुछ सालों से स्वतन्त्रता का विश्व भर में व्यापक ह्रास हुआ है, यह सूचना ‘फ्रीडम हाउस’ नाम की एक संस्था ने दी है। उसकी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में स्वतन्त्रता संकट में है। जिन कई देशों में मानवाधिकार और बराबरी का सलूक पाने का अधिकार ज्यादा खतरे में हैं, उनमें एक भारत है। इन देशों में घृणा, हिंसा और सत्ता की भूख के चलते नागरिक चेतना में भारी गिरावट आ गयी है। कई देश लोकतन्त्र से स्वेच्छाचारिता की तरफ मुड़ चुके है, क्योंकि वे जन-असन्तोष को सम्हाल नहीं पा रहे हैं। 2021 की रिपोर्ट में स्वतन्त्रता के मामले में भारत का स्थान 66 वाँ है। कहा गया है कि इस देश में ‘आँशिक स्वतन्त्रता’ है।
बर्नाड शॉ ने कहा था, ‘स्वाधीनता का अर्थ उत्तरदायित्व है। यहीं वजह है कि अधिकांश मनुष्य इससे डरते हैं।’ स्वाधीनता जवाबदेह बनाती है। वैश्वीकरण के बाद जनता के प्रति उत्तरदायित्व में ह्रास आया, राष्ट्र बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के औजार बनते गये। दूसरी तरफ, स्वाधीनता का अर्थ होता गया सिर्फ अपनी स्वाधीनता, अपने लिए स्वाधीनता, जल्दी यश के लिए स्वतन्त्रता और पैसे के विनिमय से मिली स्वाधीनता। इसका अर्थ है, जिसके पास जितना कम पैसा है, उसके पास उतनी कम स्वाधीनता है। इस देश में करोड़ों लोगों को पता भी नहीं है कि स्वाधीनता क्या चीज है।
दुनिया में पुरानी पीढ़ियों के साथ स्वतन्त्रता के उदारवादी मूल्य जाते रहे। नयी पीढ़ियाँ स्वतन्त्रता की नयी धारणाएँ लेकर आयीं। उनमें एक है- स्पर्धा में अपने स्वजनों, परिजनों दोस्तों और सहयात्री देशवासियों को रौंदते हुए आगे बढ़ते जाओ! आज के अर्जुन ‘गीता’ का उपदेश पाए बिना अति-सक्रिय है। उत्तर-आधुनिक विडम्बना है कि ‘भूलने की स्वतन्त्रता’, ‘हिंसा की स्वतन्त्रता’, ‘भ्रष्टाचार की स्वतन्त्रता भी दैनिक जीवन की जरूरत बनते गये। स्वतन्त्रता और तर्क में जब कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता, तब वह निर्बुद्धिपरक स्वतन्त्रता होती है।
एडमंड बर्क ने काफी पहले एक बात कही थी, ‘भ्रष्ट नागरिक समाज में स्वाधीनता चिरस्थायी नहीं हो सकती।’ इसका अर्थ है, जहाँ घृणा और हिंसा का राज्य है सिर्फ वहीं नहीं, जहाँ व्यापक भ्रष्टाचार है वहाँ भी आम लोगों की स्वतन्त्रता सुरक्षित नहीं है। इस देश में जिस तरह हिंसा एक धार्मिक यज्ञ है, उसी तरह भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक एक आर्थिक कर्मकाण्ड है। दरअसल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुनाफे और बड़े व्यापारियों के कालाधन में गरीबों की स्वाधीनता कैद है।
मनुष्य की यह विचित्र दशा है कि उसे सुख और सत्ता के लिए अपनी स्वतन्त्रता खोने में कोई हिचक नहीं होती। मुक्तिबोध की एक सुपरिचित कहानी है ‘पक्षी और दीमक’। पक्षी को एक व्यापारी से दीमक लेकर खाने की लत लग जाती है। कीमत के रूप में उसे अपना एक पंख नोचकर देना पड़ता है। धीरे-धीरे पक्षी का पंख के अभाव में उड़ना बंद हो गया। अब वह किसी तरह बस फुदक पाती थी। उसकी स्वतन्त्रता खो गयी। एक दिन पक्षी ने मेहनत से खुद दीमकों का एक ढेर इक्का किया और व्यापारी से कहा ‘ये अपने दीमक लेकर मेरे पंख वापस कर दो’। व्यापारी ने कहा, ‘मैं पैसे लेकर दीमक बेचता हूँ, दीमक लेकर पंख नहीं।’ यह है बाजार। बाजार ही नहीं, धर्म, जाति, प्रान्तीयता आदि की अन्धी विचारधाराओं के आगे आत्मसमर्पण करके लोग वस्तुतः अपनी स्वतन्त्रता खो रहे हैं। उनके सोचने की क्षमता क्षीण हो रही है।
एक और चिन्ताजनक घटना है कि इस देश के कई राजनीतिक दलों ने शैक्षिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं के राजनीतिकरण की परम्परा शुरू कर दी, पार्टी- सम्पर्क जरूरी हो गया। योग्यता और राजनीतिक वफादारी में राजनीतिक वफादारी को मुख्य बताकर सारी सरकारी नियुक्तियाँ होने लगीं, पद भरे जाने लगे और पसन्द निर्धारित होने लगी। गदहों पर जीन रखकर उन्हें घोड़ा के रूप में दिखाया जाने लगा। पार्टी ही उनके लिए भारत है, जैसे इसके बाहर नागरिक नहीं है। पार्टीमेव जयते! हिन्दुत्व की राजनीति ने आज इस मामले को चरम पर पहुँचा दिया है, जो स्वतन्त्रता पर कुठाराघात है। राजनीतिक पक्षपात हमेशा गुणवत्ता का शत्रु है, स्वतन्त्रता का शत्रु है और विकास का शत्रु है। अतीत की सारी अच्छाइयों का त्याग और सारी बुराइयों का ग्रहण वर्तमान युग की मुख्य खूबियाँ हैं।
महाभारत में कहा गया है, दूसरों के साथ ऐसा कुछ न करो जो अगर तुम्हारे साथ हो तो तुम्हारा नुकसान हो। (शाँति पर्व, 113.8)। स्वाधीनता का अर्थ न व्यक्तिवाद है और न स्वेच्छाचारिता और न अराजकतावाद। इन सदर्भों में देखें तो स्वाधीनता के स्थानीय इतिहास के बावजूद उसका एक सार्वभौम रूप है जो हर किस्म के वर्चस्ववाद से मुक्त होता है। कहा जा सकता है कि स्वाधीनता की मुख्य प्रेरणाएँ हैं- सहिष्णुता, बन्धुत्व, समानता, ईमानदारी और बृहत्तर समाज का ज्ञान। स्वाधीनता की कोई आखिरी मंजिल नहीं है। वह एक निरन्तर खोज है जो प्राचीन काल से चली आ रही है। क्योंकि दासता, चाहे वह धार्मिक हो, राजनीतिक हो या विचारधारात्मक हो, मनुष्य जाति के लिए सदा असह्य चीज रही है। इसलिए कभी नहीं पूछा जाना चाहिए, क्या चाहिए – देशप्रेम या स्वतन्त्रता? हमें दोनों चाहिए?